अमृतचंद्राचार्य :
(सर्व प्रथम, ग्रंथ के प्रारंभ में श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवविचरित प्राकृत गाथाबद्ध श्री प्रवचनसार नामक शास्त्र की 'तत्त्वदीपिका' नामक संस्कृत टीका के रचयिता श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव उपरोक्त श्लोकों के द्वारा मङ्गलाचरण करते हुए ज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा को नमस्कार करते हैं : ) सर्वव्यापी (अर्थात् सबका ज्ञाता-द्रष्टा) एक चैतन्यरूप (मात्र चैतन्य ही) जिसका स्वरूप है और जो स्वानुभव प्रसिद्ध है (अर्थात् शुद्ध आत्मानुभव से प्रकृष्टतया सिद्ध है) उस ज्ञानानन्दात्मक (ज्ञान और आनन्दस्वरूप) उत्कृष्ट आत्मा को नमस्कार हो । (अब अनेकान्तमय ज्ञान की मंगल के लिये लोक द्वारा स्तुति करते हैं : ) जो महामोहरूपी अंधकारसमूह को लीलामात्र में नष्ट करता है और जगत के स्वरूप को प्रकाशित करता है ऐसा अनेकांतमय तेज सदा जयवंत है । (अब श्री अमृतचंद्राचार्यदेव (तीसरे श्लोक द्वारा) अनेकांतमय जिन प्रवचन के सारभूत इस प्रवचनसार शास्त्र की टीका करने की प्रतिज्ञा करते हैं : ) परमानन्दरूपी सुधारस के पिपासु भव्य जीवों के हितार्थ, तत्त्व को (वस्तुस्वरूप को) प्रगट करने वाली प्रवचनसार की यह टीका रची जा रही है । अब, यहां (भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित) गाथासूत्रों का अवतरण किया जाता है।
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जयसेनाचार्य :
इस प्रवचनसार की व्याख्या में मध्यम-रुचि-धारी शिष्य को समझाने के लिये मुख्य तथा गौण रूप से अन्तरंग-तत्त्व (निज आत्मा) बाह्य-तत्त्व (अन्य पदार्थ) को वर्णन करने के लिये सर्वप्रथम एक सौ एक गाथा मे ज्ञानाधिकार को कहेंगे । इसके बाद एक सौ तेरह गाथाओं में दर्शन का अधिकार कहेंगे । अनन्तर सत्तानवे गाथाओं में चारित्र का अधिकार कहेंगे । इस तरह समुदाय से तीन सौ ग्यारह गाथाओं मे ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप तीन महा-अधिकार हैं । अथवा टीका के अभिप्राय से सम्यग्ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र अधिकार चूलिका सहित तीन अधिकार हैं । इन तीन अधिकारों मे पहले ही ज्ञान नाम के महा अधिकार में
यहाँ पहली पातनिका के अभिप्राय: से
अनन्तर शिवकुमार नामक कोई निकट भव्य, जो स्वसंवेदन से उतन्न होने वाले परमानन्दमयी एक लक्षण के धारी सुखरूपी अमृत से विपरीत चतुर्गति रूप संसार के दुःखों से भयभीत है, जिसे परमभेद विज्ञान के प्रकाश का माहात्म्य प्रकट हो गया है जिसने समस्त दुर्नय रूपी एकान्त के दुराग्रह को दूर कर दिया तथा सर्व शत्रु-मित्र आदि का पक्षपात छोड़कर व अत्यन्त मध्यस्थ होकर धर्म-अर्थ-काम पुरुषार्थों की अपेक्षा अत्यन्त सार और आत्महितकारी अविनाशी व पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले मोक्ष- लक्ष्मीरूपी पुरुषार्थ को अंगीकार करते हुए श्री वर्धमान स्वामी तीर्थंकर परमदेव प्रमुख भगवान् पंच-परमेष्ठियों को द्रव्य और भाव नमस्कार कर परम चारित्र का आश्रय ग्रहण करता हूँ, ऐसी प्रतिज्ञा करता है । ऐसे निकट भव्य शिवकुमार को सम्बोधन करने के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य इस ग्रन्थ की रचना करते हैं । |