अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथायमेव वीतरागसरागचारित्रयोरिष्टानिष्टफलत्वेनोपादेयहेयत्वं विवेचयति - संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्ष: । तत एव च सरागाद्देवासुरमनुजराज-विभवक्लेशरूपो बन्ध: । अतो मुमुक्षुणेष्टफलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयमनिष्टफलत्वात्सराग-चारित्रं हेयम् ॥६॥ अब वे ही (कुन्दकुन्दाचार्यदेव) वीतरागचारित्र इष्ट-फल वाला है इसलिये उसकी उपादेयता और सरागचारित्र अनिष्ट फलवाला है इसलिये उसकी हेयता का विवेचन करते हैं : - दर्शन-ज्ञान प्रधान चारित्र से, यदि वह (चारित्र) वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है; और उससे ही, यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभव--क्लेश रूप बन्ध की प्राप्ति होती है । इसलिये मुमुक्षुओं को इष्ट फल-वाला होने से वीतराग चारित्र ग्रहण करने योग्य (उपादेय) है, और अनिष्ट फलवाला होने से सराग-चारित्र त्यागने योग्य (हेय) है ॥६॥ |
जयसेनाचार्य : संस्कृत
अथोपादेयभूतस्यातीन्द्रियसुखस्य कारणत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयम् ।अतीन्द्रियसुखापेक्षया हेयस्येन्द्रियसुखस्य कारणत्वात्सरागचारित्रं हेयमित्युपदिशति -- संपज्जदि सम्पद्यते । किम् । णिव्वाणं निर्वाणम् । कथम् । सह । कैः । देवासुरमणुयरायविहवेहिं देवासुरमनुष्यराजविभवैः । कस्य । जीवस्स जीवस्य । कस्मात् । चरित्तादो चारित्रात् । कथंभूतात् । दंसणणाणप्पहाणादो सम्यग्दर्शन-ज्ञानप्रधानादिति । तद्यथा -- आत्माधीनज्ञानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्ये यन्निश्चलनिर्विकारानुभूतिरूपम-वस्थानं तल्लक्षणनिश्चयचारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते । किम् । पराधीनेन्द्रियजनितज्ञानसुखविलक्षणं,स्वाधीनातीन्द्रियरूपपरमज्ञानसुखलक्षणं निर्वाणम् । सरागचारित्रात्पुनर्देवासुरमनुष्यराजविभूतिजनकोमुख्यवृत्त्या विशिष्टपुण्यबन्धो भवति, परम्परया निर्वाणं चेति । असुरेषु मध्ये सम्यग्दृष्टिः कथमुत्पद्यतेइति चेत् – निदानबन्धेन सम्यक्त्वविराधनां कृत्वा तत्रोत्पद्यत इति ज्ञातव्यम् । अत्र निश्चयेनवीतरागचारित्रमुपादेयं सरागं हेयमिति भावार्थः ॥६॥ [संपज्जदि] प्राप्ति होती है । किसकी प्राप्ति होती है? [णिव्व्वणं] मोक्ष की प्राप्ति होती है । कैसे मोक्ष की प्राप्ति होती है? इनके साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है । किनके साथ उसकी प्राप्ति होती है? [देवासुरमणुयरायविहवेहिं] देवेन्द्र, असुरेन्द्र एवं नरेन्द्र सम्बन्धी वैभवों के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है । उसकी प्राप्ति किसे होती है? [जीवस्स] जीव को उसकी प्राप्ति होती है । जीव को उसकी प्राप्ति किससे होती है? [चरित्तादो] चारित्र से उसकी प्राप्ति होती है । कैसे चारित्र से होती है? [दंसणणाणप्पहाणादो] सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रधान चारित्र से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है । वह इसप्रकार - स्वाधीन ज्ञान-सुख स्वभावी शुद्धात्म-द्रव्य में चंचलता रहित निर्विकार अनुभूतिरूप स्थिरता लक्षण वाले निश्चय चारित्र से जीव के उत्पन्न होता है । क्या उत्पन्न होता है? पराधीन इन्द्रिय जनित ज्ञान-सुख से भिन्न लक्षण वाला स्वाधीन अतीन्द्रिय-रूप उत्कृष्ट ज्ञान-सुख सम्पन्न मोक्ष उत्पन्न होता है । सराग-चारित्र से मुख्यतया देवेन्द्र, असुरेन्द्र एवं नरेन्द्र सम्बन्धी वैभव को उत्पन्न करने वाला विशिष्ट पुण्य बंध होता है, एवं परम्परा से मोक्ष प्राप्त होता है । असुरों में सम्यग्दृष्टि कैसे उत्पन्न होता है? यदि ऐसी शंका हो, तो निदान बंध से सम्यक्त्व की विराधना करके वहाँ उत्पन्न होता है- ऐसा जानना चाहिये । यहाँ निश्चय से वीतराग-चारित्र उपादेय और सराग-चारित्र हेय है- यह गाथा का भाव है । |