अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथ चारित्रस्वरूपं विभावयति - स्वरूपे चरणं चारित्रं, स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थ: । तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्म: । शुद्धचैतन्य-प्रकाशनमित्यर्थ: । तदेव च यथावस्थितात्मगुणत्वात्साम्यम् । साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयो-दयापादितसमस्तमोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणाम: ॥७॥ अब चारित्र का स्वरूप व्यक्त करते हैं :- स्वरूप में चरण करना (रमना) सो चारित्र है । स्वसमय में प्रवृत्ति करना (अपने स्वभाव में प्रवृत्ति करना) ऐसा इसका अर्थ है । यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है । शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना यह इसका अर्थ है । वही यथावस्थित आत्म गुण होने से (विषमता-रहित सुस्थित आत्मा का गुण होने से) साम्य है । और साम्य, दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र-मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार ऐसा जीव का परिणाम है ॥७॥ |
जयसेनाचार्य : संस्कृत
अथ निश्चयचारित्रस्य पर्यायनामानिकथयामीत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिंद निरूपयति, एवमग्रेऽपि विवक्षितसूत्रार्थं मनसि धृत्वाथवास्य सूत्रस्याग्रे सूत्रमिदमुचितं भवत्येवं निश्चित्य सूत्रमिदं प्रतिपादयतीति पातनिकालक्षणं यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् -- चारित्तं चारित्रं कर्तृ खलु धम्मो खलु स्फुटं धर्मो भवति । धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो धर्मो यः स तु शम इति निर्दिष्टः । समो यस्तु शमः सः मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु मोहक्षोभविहीनः परिणामः । कस्य । आत्मनः । हु स्फुटमिति । तथाहि -- शुद्धचित्स्वरूपे चरणं चारित्रं,तदेव चारित्रं मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपे भावसंसारे पतन्तं प्राणिनमुद्धृत्य निर्विकारशुद्धचैतन्ये धरतीति धर्मः । स एव धर्मः स्वात्मभावनोत्थसुखामृतशीतजलेन कामक्रोधादिरूपाग्निजनितस्य संसारदुःख-दाहस्योपशमकत्वात् शम इति । ततश्च शुद्धात्मश्रद्धानरूपसम्यक्त्वस्य विनाशको दर्शनमोहाभिधानो मोहइत्युच्यते । निर्विकारनिश्चलचित्तवृत्तिरूपचारित्रस्य विनाशकश्चारित्रमोहाभिधानः क्षोभ इत्युच्यते । तयोर्विध्वंसकत्वात्स एव शमो मोहक्षोभविहीनः शुद्धात्मपरिणामो भण्यत इत्यभिप्रायः ॥७॥ [चारित्तं] चारित्र-रूप कर्ता (इस गाथामें चारित्र 'कर्ता कारक' के स्थान पर है) [खलु धम्मो] स्पष्ट रूप से धर्म है । [धम्मो जो तो समो त्ति णिद्दिट्ठो] जो धर्म है वह शम कहा गया है । [समो] और जो शम है वह [मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु] मोह-क्षोभ से रहित परिणाम है । मोह-क्षोभ से रहित वह शम किसका परिणाम है? वह आत्मा का परिणाम है । [हु] स्पष्टरूप से । वह इसप्रकार - शुद्ध चैतन्य स्वरूप मे चरण-प्रवृत्ति-लीनता चारित्र है, वही चारित्र, मिथ्यात्व-रागादि परिणमन रूप भाव संसार में डूबे हुये प्राणियों को निकालकर निर्विकार शुद्ध चैतन्य स्वरूप में धरता है, अत: धर्म है । वही धर्म स्वात्मा के आश्रय से उत्पन्न होने वाले सुखमयी अमृतरूप शीतल जल के द्वारा काम-क्रोधादि-रूप अग्नि से उत्पन्न सांसारिक दुखों-रूप जलन को शान्त करनेवाला होने से शम है; और इसलिये शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन को नष्ट करनेवाला होने से दर्शनमोहनीय नामक (कर्म) मोह कहलाता है, तथा वीतराग स्थिर परिणमन-रूप चारित्र को नष्ट करनेवाला होने से चारित्र-मोहनीय नामक (कर्म) क्षोभ कहलाता है; मोह और क्षोभ- इन दोनों को पूर्णत: नष्ट करने वाला होने से वही शम, मोह-क्षोभ रहित शुद्धात्मा का परिणाम कहलाता है - यह अभिप्राय है ॥७॥ |