
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्र पण्णं द्रव्याणां परस्परमत्यन्तसंकरेऽपि प्रतिनियतस्वरूपादप्रच्यवनमुक्तम् । अंत एव तेषां परिणामवत्त्वेऽपि प्राग्नित्यत्वमुक्तम् । अंत एव च न तेषामेकत्वापत्तिनं च जीवकर्मणोर्व्यवहारनयादेशादेकत्वेऽपि परस्परस्वरूपोपादानमिति ॥७॥ यहाँ छह द्रव्यों को परस्पर अत्यन्त *संकर होने पर भी वे प्रतिनियत (अपने अपने निश्चित) स्वरूप से च्युत नहीं होते -- ऐसा कहा है । इसलिए (अपने अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते इसलिए), परिणाम वाले होने पर भी वे नित्य हैं -- ऐसा पहले (छठवीं गाथा) में कहा था, और इसलिए वे एकत्व को प्राप्त नहीं होते, और यदद्यपि जीव तथा कर्म को व्यवहार-नय के कथन से एकत्व (कहा जाता) है तथापि वे (जीव तथा कर्म) एक दुसरे के स्वरूप को ग्रहण नहीं करते ॥७॥ *संकर=मिलन, मिलाप, अन्योन्य-अवगाहरूप, मिश्रीतपना | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जयसेनाचार्य :
अब छहों द्रव्यों के परस्पर अत्यन्त संकर होने पर भी अपने-अपने स्वरूप से अच्यवन का / नहीं छूटने का उपदेश देते हैं -- [अण्णोण्णं पविसंता] परस्पर सम्बन्ध के लिए अन्य क्षेत्र से अन्य क्षेत्र के प्रति आते हुए को [देंता ओगासमण्णमण्णस्स] परस्पर अवकाश-दान देते हुए [मेलंतावि य णिच्चं] अवकाश-दान के बाद परस्पर मिलाप से अपने अवस्थान-काल पर्यन्त युगपत्-प्राप्तिरूप संकर, परस्पर विषय-गमनरूप व्यतिकर-इन दोनों के बिना नित्य / हमेशा रहते हुए भी [सगसब्भावं ण विजहंति] अपने स्वरूप को नहीं छोडते हैं; अथवा सक्रियवान जीव-पुद्गल की अपेक्षा परस्पर प्रवेश करते हुए; सक्रिय-निष्क्रिय द्रव्यों के मिलाप की अपेक्षा आए हुए को अवकाश देते हुए; धर्म, अधर्म, आकाश, कालरूप निष्क्रिय द्रव्यों की अपेक्षा हमेशा मिलाप पूर्वक रहते हुए भी अपने स्वभाव को नहीं छोडते हैं । इस प्रकार छह द्रव्यों में से ख्याति, पूजा, लाभ, दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, कृष्ण, नील, कापोतरूप अशुभ लेश्या आदि समस्त पर-द्रव्यों के आलम्बन से उत्पन्न संकल्प-विकल्परूपी कल्लोलमाला से रहित वीतराग निर्विकल्प समाधि से समुत्पन्न परमानन्द-रूप सुख रसास्वादमय परम समरसीभाव स्वभाव-रूप स्व-संवेदन-ज्ञान द्वारा जानने योग्य, प्राप्त होने योग्य, स्वावलम्ब, आधार, भरितावस्थ (परिपूर्ण) शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से या निश्चयनय से अपने देह में विद्यमान शुद्ध जीवास्तिकाय नामक जीवद्रव्य ही उपादेय है -- ऐसा भावार्थ है; और जो राग, द्वेष, मोह सहित अन्य एकान्तवादिओं के वायु-धारणादि सर्व शून्य ध्यान व्याख्यान अथवा आकाशध्यान हैं; वे सभी निरर्थक हैं। संकल्प-विकल्प का भेद कहते हैं -- चेतन-अचेतन-मिश्र बाह्य द्रव्य में 'यह मेरा है' -ऐसा परिणाम संकल्प है; अंतरंग में 'मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ' इत्यादि प्रकार का हर्ष-विषाद-रूप परिणाम विकल्प है -- इसप्रकार संकल्प-विकल्प का लक्षण जानना चाहिए । वीतराग निर्विकल्प समाधि का वीतराग विशेषण व्यर्थ है, ऐसा कहने पर (उसका) निराकरण करते हैं -- विषय-कषाय निमित्तक आर्त-रौद्ररूप अशुभ-ध्यान के निषेधार्थ होने से, हेतु-हेतुमद्भाव का व्याख्यान होने से, कर्मधारय समास होने से, भावना-ग्रन्थ में पुनरुक्ति दोष का अभाव होने से, स्वरूप का विशेषण होने से अथवा दृ़ढ करने के लिए होने से निर्विकल्प समाधि का भी वीतराग विशेषण दिया जाता है । वीतराग निर्विकल्प समाधि के व्याख्यान-काल में इसप्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । वीतराग, सर्वज्ञ, निर्दोष, परमात्मा इत्यादि शब्दों में भी इसीप्रकार से पूर्वपक्ष प्रस्तुत कर यथा-संभव परिहार करना चाहिए। जिसकारण वीतराग हैं, उसीकारण निर्विकल्प समाधि है इसप्रकार हेतु-हेतुमद्भाव शब्द का अर्थ है ॥७॥ इसप्रकार संकर-व्यतिकर दोष के निराकरण द्वारा गाथा पूर्ण हुई । इसप्रकार दो स्वतंत्र गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ । इसप्रकार प्रथम महाधिकार में सात गाथाओं द्वारा तीन स्थल से समय शब्दार्थ पीठिका नामक प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ। अब [सत्तासव्वपदत्था...] इस गाथा से प्रारंभकर पाठक्रम से चौदह गाथाओं द्वारा जीव-पुद्गल आदि द्रव्यों की विवक्षा से रहित होने के कारण सामान्य द्रव्य पीठिका (नामक दूसरा अन्तराधिकार ) कहते हैं। वहाँ चौदह गाथाओं में से
अब द्वितीय सप्तक में से
इसप्रकार चौदह गाथाओं वाले नौ अन्तर-स्थलों द्वारा द्रव्य-पीठिका की समुदाय पातनिका है ।
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