+ सत्ता का स्वरूप -
सत्ता सव्वपदत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया ।
भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥8॥
सत्ता सर्वपदार्था सविश्‍वरूपा अनंतपर्याया ।
भङ्गोत्‍पादध्रौव्‍यात्मिका सप्रतिपक्षा भवत्‍येका ॥८॥
सत्ता जनम-लय-ध्रौव्यमय अर एक सप्रतिपक्ष है
सर्वार्थ थित सविश्वरूप-रु अनन्त पर्ययवंत है ॥८॥
अन्वयार्थ : सत्ता सर्व पदार्थों में स्थित, सविश्वरूप, अनन्त पर्यायमय, भंग-उत्पाद-ध्रौव्य स्वरूप, सप्रतिपक्ष और एक है ।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्रास्तित्‍वस्‍वरूपमुक्तम् । अस्तित्‍वं हि सत्ता नाम सतो भाव: सत्त्वम् । न सर्वथा नित्‍यतया सर्वथा क्षणिकतया या विद्यमानमात्रं वस्‍तु । सर्वथा नित्‍यस्‍य वस्‍तुनस्‍तत्त्वत: क्रमभुवां भावानामभावात्‍कुतो विकारवत्त्वम् । सर्वथा क्षणिकस्‍य च तत्त्वत: प्रत्‍यभिज्ञानाभावात् कुत एकसंतानत्वम् । तत: प्रत्‍यभिज्ञानहेतुभूतेन केनचित्‍स्‍वरूपेण ध्रौव्‍यमालम्‍ब्‍यमानं काभ्‍यांचित्‍क्रमप्रवृत्ताभ्‍यां रूवरूपाभ्‍यां प्रलीयमानमुपजायमानं चैककालमेव परमार्थतस्त्रितयीमवस्‍थां बिभ्राणं वस्‍तु सदवबोध्‍यम् । अंत एव सत्तापुत्‍पादव्‍ययध्रौव्‍यात्मिकाऽवबोद्धव्‍या, भावभाववतो: कथंचिदेकस्‍वरूपत्‍वात् । सा च त्रिलक्षणस्‍य समस्‍तस्‍यापि वस्‍तुविस्‍तारस्‍य सादृश्‍यसूचकन्‍वादेका । सर्वपदार्थस्थिता च त्रिलक्षणस्‍य सदित्‍यभिधानस्‍य सदिति प्रत्‍ययस्‍य च सर्वपदार्थेषु तन्‍मूलस्‍यैवोपलम्‍भात् सविश्‍वरूपा च विश्‍वस्‍य समस्‍तवस्‍तुविस्‍तारस्‍यापि रूपैस्त्रिलक्षणै: स्‍वभावै: सह वर्तमानत्‍वात्, अनन्‍तपर्याया चानन्‍ताभिर्द्रव्‍यपर्यायव्‍यक्तिभिस्त्रिलक्षणाभि: परिगम्‍यमानत्‍वात् । एवंभूतापि सा न खलु निरंकुशा किन्‍तु सप्रतिपक्षा । प्रतिपक्षो ह्यसत्ता सत्ताया:, अत्रिलक्षणत्‍वं त्रिलक्षणाया:, अनेकत्‍वमेकस्‍या:, एकपदार्थस्थितत्‍वं सर्वपदार्थस्थिताया:, एकरूपत्‍वं सविश्‍वरूपाया:, एकपर्यायत्‍वमनन्‍तपर्यायाया इति । द्विविधा हि सत्ता—म‍हासत्तावान्‍तरसत्ता च । तत्र सर्वपदार्थसार्थव्‍यापिनी सादृश्‍यास्तित्‍वसूचिका महासत्ता प्रोक्तैव । अन्‍या तु व्रतिनियतवस्‍तुवर्तिनी स्‍वरूपास्तित्‍वसूचिकाऽवान्‍तरसत्ता । तत्र महासत्ताऽवान्‍तरसत्तारूपेणाऽसत्ताऽवान्‍तरसत्ता च महासत्तारूपेणाऽसत्तेत्‍यसत्ता सत्ताया: । येन स्‍वरूपेणोत्‍पादस्‍तत्तथोत्‍पादैकलक्षणमेव, येन स्‍वरूपेणोच्‍छेदस्‍तत्तथोच्‍छेदेकलक्षणमेव, येन स्‍वरूपेण ध्रौव्‍यं तत्तथा ध्रौव्‍यैकलक्षणमेव, तत उत्‍पद्यमानोच्छिद्यमानावतिष्‍ठमानानां वस्‍तुन: स्‍वरूपाणां प्रत्‍येकं त्रैलक्षण्‍याभावादत्रिलक्षणत्‍वं त्रिलक्षणाया: । एकस्‍य वस्‍तुन: स्‍वरूपसत्ता नान्‍यस्‍य वस्‍तुन: एकरूपसत्ता भवतीत्‍यनेकत्‍वमेकस्‍या: । प्रतिनियतपदार्थस्थिताभिरेव सत्ताभि: पदार्थानां प्रतिनियमो भवतीत्‍येकपदार्थस्थितत्‍वं सर्वपदार्थस्थिताया: । प्रतिनियतैकरूपाभिरेव सत्ताभि: प्रतिनियतैकरूपत्‍वं वस्‍तूनां भवतीत्‍येकरूपत्‍वं सविश्‍वरूपाया: । प्रतिपर्यायनियताभिरेव सत्ताभि: प्रतिनियतैकपर्यायाणामानन्‍त्‍यं भवतीत्‍येकपर्यायत्‍वमनन्‍तपर्याया: । इति सर्वमनवद्यं सामान्‍यविशेषप्ररूपणप्रवणनयद्वयायत्तत्‍वात्तद्देशनाया: ॥८॥


यहाँ अस्तित्व का स्वरूप कहा है ।

अस्तित्व अर्थात सत्ता नामक सत् का भाव अर्थात सत्त्व ।

  • विद्यमान-मात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्य-रूप होती है और न सर्वथा क्षणिक-रूप होती है । सर्वथा नित्य वस्तु को वास्तव में क्रमभावी भावों का अभाव होने से विकार (परिवर्तन, परिणाम) कहाँ से होगा ? और सर्वथा क्षणिक वस्तु में प्रत्यभिज्ञान का अभाव होने से एक-प्रवाहपना कहाँ से रहेगा ? इसलिए प्रत्यभिज्ञान के हेतुभूत किसी स्वरूप से ध्रुव रहती हुई और किन्ही दो क्रमवर्ती स्वरूपों से नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न होती हुई -- इसप्रकार परमार्थत: एक ही काल में तिगुनी (तीन अंशवाली) अवस्था को धारण करती हुई वस्तु सत् जानना । इसलिए सत्ता भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक (त्रिलक्षण) जानना; क्योंकि *भाव और भाव-वान का कथंचित एक स्वरूप होता है ।
  • और वह (सत्ता) एक है, क्योंकि वह त्रिलक्षण-वाले समस्त वस्तु-विस्तार का सादृश्य सूचित करती है ।
  • और वह (सत्ता) सर्व-पदार्थ-स्थित है; क्योंकि उसके कारण ही (सत्ता के कारण ही) सर्व पदार्थों में त्रिलक्षण की (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की), 'सत' ऐसे कथन की तथा 'सत' एसी प्रतीति की उपलब्धि होती है ।
  • और वह (सत्ता) सविश्वरूप है, क्योंकि वह विश्व के रूपों सहित (समस्त वस्तु-विस्तार के त्रिलक्षण वाले स्वभावों सहित) वर्तती है ।
  • और वह (सत्ता) अनन्त-पर्यायमय है क्योंकि वह त्रिलक्षण वाली अनन्त द्रव्य-पर्याय-रूप व्यक्तियों से व्याप्त है ।
(इसप्रकार सामान्य-विशेषात्मक सत्ता का उसके सामान्य पक्ष की अपेक्षा से अर्थात महासत्ता-रूप पक्ष की अपेक्षा से वर्णन हुआ)

ऐसी होने पर भी वह वास्तव में निरंकुश नहीं है किन्तु सप्रतिपक्ष है ।
  1. सत्ता को असत्ता प्रतिपक्ष है;
  2. त्रिलक्षणा को अत्रिलक्षणपना प्रतिपक्ष है;
  3. एक को अनेकपना प्रतिपक्ष है;
  4. सर्व-पदार्थ-स्थित को एक-पदार्थ-स्थित प्रतिपक्ष है;
  5. सविश्व-रूप को एक-रूप-पना प्रतिपक्ष है;
  6. अनन्त-पर्याय-मय को एक-पर्याय-मयपना प्रतिपक्ष है;


(उपर्युक्त सप्रतिपक्षपना स्पष्ट समझाया जाता है)

सत्ता द्विविध है :महासत्ता और अवान्तर-सत्ता । उसमें सर्व पदार्थ-समूह में व्याप्त होने वाली, सादृश्य-अस्तित्व को सूचित करने वाली महासत्ता (सामान्य-सत्ता) तो कही जा चुकी है । दूसरी, प्रतिनिश्चित (एक-एक निश्चित) वस्तु में रहने-वाली, स्वरूप-अस्तित्व को सूचित करने-वाली अवान्तर-सत्ता (विशेष-सत्ता) है ।
  1. वहाँ महा-सत्ता अवांतर-सत्ता रूप से असत्ता है इसलिए सत्ता को असत्ता है (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महासत्ता-रूप होने से 'सत्ता' है वही अवांतर-सत्ता-रूप भी होने से 'असत्ता' भी है)
  2. जिस स्वरूप से उत्पाद है उसका (उस स्वरूप का) उस-प्रकार से उत्पाद एक ही लक्षण है, जिस स्वरूप से व्यय है उसका (उस स्वरूप का) उस-प्रकार से व्यय एक ही लक्षण है और जिस स्वरूप से ध्रौव्य है उसका (उस स्वरूप का) उस-प्रकार से ध्रौव्य एक ही लक्षण है इसलिए वस्तु के उत्पन्न होनेवाले, नष्ट होनेवाले और ध्रुव रहने वाले स्वरूपों से त्रिलक्षण का अभाव होने से त्रिलक्षणा (सत्ता) को अत्रिलक्षणपना है । (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'त्रिलक्षणा' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्ता-रूप भी होने से 'अत्रिलक्षणा' भी है)
  3. एक वस्तु की स्वरूप-सत्ता अन्य वस्तु की स्वरूप-सत्ता नहीं है इसलिए एक (सत्ता) को अनेकापना है । (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'एक' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्तारूप भी होने से 'अनेक' भी है)
  4. प्रतिनिश्चित (व्यक्तिगत निश्चित) पदार्थ में स्थित सत्ताओं द्वारा ही पदार्थों का प्रतिनिश्चितपना (भिन्न-भिन्न निश्चित व्यक्तित्व) होता है इसलिए सर्व-पदार्थ-स्थित (सत्ता) को एक-पदार्थ-स्थितपना है । (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'सर्व-पदार्थ-स्थित' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्तारूप भी होने से 'एक-पदार्थ-स्थित' भी है)
  5. प्रतिनिश्चित (एक-एक रूप-वाली) सत्ताओं द्वारा ही वस्तुओं का प्रतिनिश्चित एक-एकरूप होता है इसलिए सविश्वरूप (सत्ता) को एक-रूपपना है (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'सविश्वरूप' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्ता-रूप भी होने से 'एक-रूप' भी है)
  6. प्रत्येक पर्याय में स्थित (व्यक्तिगत भिन्न भिन्न) सत्ताओं द्वाराही प्रतिनिश्चित एक-एक पर्यायों का अनंत-पना होता है इसलिए अनन्त-पर्यायमय (सता) को एक-पर्यायमयपना भी है (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'अनन्त-पर्याय-मय' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्ता-रूप भी होने से 'एक-पर्याय-मय' भी है)


इसप्रकार सब निर्वद्य है (अर्थात ऊपर कहा हुआ सर्व स्वरूप निर्दोष है, निर्बाध है, किंचित विरोध-वाला नहीं है) क्योंकि उसका (सता स्वरूप का) कथन सामान्य और विशेष के प्रारूपण की ओर ढलते हुए दो नयों के अधीन है ॥८॥

*सत्ता भाव है और वस्तु भाव-वान है
जयसेनाचार्य :

वह इसप्रकार- अब अस्तित्व के स्वरूप का निरूपण करते हैं; अथवा द्रव्य सत्तामूलक सत्ता से सत्तामय है; अत: सर्वप्रथम सत्ता का स्वरूप कहकर, बाद में द्रव्य का व्याख्यान करता हूँ ऐसा अभिप्राय मन में धारणकर भगवान (आचार्य-कुन्दकुन्द-देव) इस सूत्र (गाथा) का प्रतिपादन करते हैं --

[हवदि] है। कर्ता कौन है? [सत्ता] सत्ता है। वह कैसी है? [सव्वपदत्था] सर्वपदार्थमय है। और वह कैसी है ? [सविस्सरूवा] सविश्वरूप / अनेकरूप है । वह और किस विशेषतावाली है? [अणंतपज्जाया] अनंत पर्याययुक्त है। वह और कैसी है? [भंगुप्पादधुवत्ता] भंग / व्यय, उत्पाद, ध्रौव्यात्मक है। वह और किस विशेषतावाली है? [एक्का] महा-सत्तारूप से एक है । इन पाँच विशेषणों से विशिष्ट सत्ता क्या निरंकुश, नि:प्रतिपक्ष है? ऐसा नहीं है, वह [सप्पडिवक्खा] सप्रतिपक्ष ही है -- ऐसा वार्तिक है ।

वह इसप्रकार -- स्व-द्रव्यादि चतुष्टय-रूप से सत्ता की, पर-द्रव्यादि चतुष्टय-रूप से असत्ता प्रतिपक्ष है। सभी पदार्थों में स्थित सत्ता की, एक पदार्थ में स्थित सत्ता प्रतिपक्ष है । मिट्टी का घड़ा, सुवर्ण का घड़ा, ताम्र का घड़ा इत्यादि रूप से सविश्वरूप / नानारूप सत्ता की, एक घटरूप सत्ता प्रतिपक्ष है; अथवा विवक्षित एक घड़े में वर्ण, आकार आदि रूप से विश्वरूप की, विवक्षित एक गंधादि रूप सत्ता प्रतिपक्ष है। तीनों कालों की अपेक्षा अनन्त पर्याय-युक्त सत्ता की, विवक्षित एक पर्याय-रूप सत्ता प्रतिपक्ष है ।

उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप से त्रिलक्षणा सत्ता की, विवक्षित एक उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप सत्ता प्रतिपक्ष है । एक महासत्ता की, अवान्तर-सत्ता प्रतिपक्ष है । इसप्रकार शुद्ध संग्रह-नय की विवक्षा में एक महा-सत्ता, अशुद्ध संग्रह-नय की विवक्षा में, व्यवहार-नय की विवक्षा में सर्व-पदार्थ-मयी, सविश्वरूप आदि अवान्तर-सत्ता है । यह सभी सप्रतिपक्ष व्याख्यान नैगम-नय की अपेक्षा जानना चाहिए । इसप्रकार नैगम, संग्रह, व्यवहार -- इन तीन नयों से सत्ता का व्याख्यान घटित करना चाहिए; अथवा शुद्ध संग्रहनय से एक महासत्ता है, व्यवहारनय से सर्वपदार्थ स्थित आदि अवान्तर-सत्ता है । -- इसप्रकार दो नयों से व्याख्यान करना चाहिए। यहाँ शुद्ध जीवास्तिकाय नामक शुद्ध जीव-द्रव्य की जो सत्ता है वह ही उपादेय है -- यह भावार्थ है ॥८॥

इस प्रकार प्रथम स्थल में सत्ता लक्षण की मुख्यता परक व्याख्यान द्वारा गाथा पूर्ण हुई ।