
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्र संसारावस्थस्यात्मन: सोपाधि निरुपाधि च स्वरूपमुक्तम् । आत्मा हि निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीव:, व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाज्जीव: । निश्चयेन चिदात्मकत्वात्, व्यवहारेण चिच्छक्तियुक्तत्वाच्चेतयिता । निश्चयेनापृथग्भूतेन, व्यवहारेण पृथग्भूतेन चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेनोपलक्षितत्वादुपयोगविशेषित: । निश्चयेन भावकर्मणां, व्यवहारेण द्रव्यकर्मणामास्रवणबंधनसंवरणनिर्जरणमोक्षणेषु स्वयमीशत्वात् प्रभु: । निश्चयेन पौद्गलिककर्मनिमित्तात्मपरिणामानां, व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कर्तृत्वात्कर्ता । निश्चयेन शुभाशुभकर्मनिमित्तसुखदु:खपरिणामानां, व्यवहारेण शुभाशुभकर्मसंपादितेष्टानिष्ठविषयाणां भोक्तृत्वाद्भोक्ता । निश्चयेन लोकमात्रोऽपि विशिष्टावगाहपरिणामशक्तियुक्तत्वान्नामकर्मनिर्वृत्तमणु महच्च शरीरमधितिष्ठन् व्यवहारेण देहमात्र: । व्यवहारेण कर्मभि: सहैकत्वपरिणामान्मूर्तोऽपि निश्चयेन निरूपस्वभावत्वान्न हि मूर्त: । निश्चयेन पुद्गलपरिणामानुरूपचैतन्यपरिणामात्मभि:, व्यवहारेण चैतन्यपरिणामानुरूपपुद्गलपरिणामात्मभि: कर्मभि: संयुक्तत्वात्कर्मसंयुक्त इति ॥२६॥ यहाँ (इस गाथा में) संसार-दशा वाले आत्मा का सोपाधि और निरुपाधि स्वरूप कहा है । आत्मा
१सोपाधि = उपाधि सहित; जिसमें पर की अपेक्षा आती हो ऐसा । २निश्चय से चित-शक्ति को आत्मा के साथ अभेद है और व्यवहार से भेद है; इसलिए निश्चय से आत्मा चित-शक्ति-स्वरूप है और व्यवहार से चित-शक्ति-वान है । |
जयसेनाचार्य :
[जीवोत्ति] आत्मा
इसप्रकार शब्दार्थ, नयार्थ कहा । अब मतार्थ कहते हैं । जीवत्व के व्याख्यान में 'वत्स (पुत्र), अक्षर, भव (जन्म), सादृश्य, स्वर्ग, नरक, पितर, चूल्हे पर चड़ाई गई हाँडी और मृतक इन नौ दृष्टान्तों से (जीव को ) जानो' । (यहाँ जो आत्मा को नित्य तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते हैं, ऐसे चार्वाक मतानुसारी शिष्य को समझाने के लिए नौ उदाहरण देकर समझाया है --
इसप्रकार दोहक सूत्र में कहे गये नौ दृष्टान्तों द्वारा चार्वाक मतानुसारी शिष्य की अपेक्षा जीव की सिद्धि के लिए (जीव का) और उसके लिए ही अनादि चेतना गुण का व्याख्यान किया है; अथवा सामान्य चेतना का व्याख्यान सभी मतों के प्रति साधारण जानना चाहिए और अभिन्न ज्ञान-दर्शन उपयोग का व्याख्यान नैयायिक मतानुसारी शिष्य को समझाने के लिए किया है । मोक्ष के उपदेशक और मोक्ष के साधक प्रभुत्व का व्याख्यान, वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत वचन प्रमाण है, तथा - 'रत्न, दीप, सूर्य, चन्द्रमा, घी, सुवर्ण, चाँदी, स्फटिकमणि, अग्नि-नौ दृष्टान्तों से जानो' ॥योगसार, दोहा ५७॥ (भट्ट और चार्वाक मतानुसारी शिष्य को समझाने के लिए ९ उदाहरण देकर सर्वज्ञ की सिद्धि निम्न प्रकार से की है --
कर्मोपाधि जनित मिथ्यात्व-रागादि रूप समस्त विभाव परिणामों को छोडकर निरूपाधि केवल-ज्ञानादि गुणयुक्त शुद्ध जीवास्तिकाय ही निश्चयनय की अपेक्षा उपादेयरूप से भावनीय है -- ऐसा भावार्थ है । इसप्रकार व्याख्यान के समय यथा-सम्भव सर्वत्र शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ, भावार्थ जानना चाहिए । पहले (२७वीं गाथा-टीका) जीवास्तिकाय की समुदाय पातनिका में चार्वाक आदि मतों का व्याख्यान किया था, यहाँ पुन: किसलिए किया है? शिष्य द्वारा ऐसा पूर्वपक्ष (प्रश्न ) किए जाने पर परिहार करते हैं वहाँ तो वीतराग-सर्वज्ञ रूप से सिद्ध होने पर (वीतराग-सर्वज्ञ हो जाने पर ही) व्याख्यान प्रमाणता को प्राप्त होता है, इसप्रकार व्याख्यान का क्रम बताने के लिए, प्रभुता अधिकार की मुख्यता से नौ अधिकार सूचित किए थे । वैसा ही कहा भी है 'वक्ता की प्रमाणता से वचन की प्रमाणता होती है ।' और यहाँ 'धर्मी होने पर ही धर्मों का विचार किया जाता है ।' -- ऐसा वचन होने से चेतन गुणादि विशेषण रूप धर्मों के आधार-भूत विशेष्य लक्षणमय जीवरूप धर्मी के सिद्ध होने पर, उनके चेतन गुण आदि विशेषण रूप धर्मों का व्याख्यान घटित होता है ऐसा बताने के लिए जीवसिद्धि के माध्यम से मतान्तरों के निराकरण सहित नौ अधिकारों का उपदेश दिया गया है -- इसप्रकार दोष नहीं है ॥२७॥ इसप्रकार अधिकार गाथा पूर्ण हुई । |