+ जीवास्तिकाय का व्याख्यान -
जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता । (26)
भोत्ता सदेहमत्तो ण हि मुत्तो कम्‍मसंजुत्तो ॥27॥
जीव इति भवति चेतायितोपयोगविशेषित: प्रभु: कर्त्ता ।
भोक्ता च देहमात्रो न हि मूर्त: कर्मसंयुक्त: ॥२६॥
आत्मा है जीव-देह प्रमाण चित्-उपयोगमय ।
अमूर्त कर्त्ता-भोक्ता प्रभु कर्म से संयुक्त है ॥२६॥
अन्वयार्थ : [जीवः] (संसारस्थित) जीव [चेतयिता] चेतयिता [चेतनेवाला] है, [उपयोगविशेषितः] उपयोगलक्षित है, [प्रभुः] प्रभु है, [कर्ता] कर्ता है, [भोक्ता] भोक्ता है, [देहमात्रः] देहप्रमाण है, [न हि मूर्तः] अमूर्त है [च] और [कर्मसंयुक्तः] कर्मसंयुक्त [इति भवति] ऐसा होता है ।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्र संसारावस्‍थस्‍यात्‍मन: सोपाधि निरुपाधि च स्‍वरूपमुक्तम् । आत्‍मा हि निश्चयेन भावप्राणधारणाज्‍जीव:, व्‍यवहारेण द्रव्‍यप्राणधारणाज्‍जीव: । निश्‍चयेन चिदात्‍मकत्‍वात्, व्‍यवहारेण चिच्‍छक्तियुक्तत्‍वाच्‍चेतयिता । निश्‍चयेनापृथग्‍भूतेन, व्‍यवहारेण पृथग्‍भूतेन चैतन्‍यपरिणामलक्षणेनोपयोगेनोपलक्षितत्‍वादुपयोगविशेषित: । निश्‍चयेन भावकर्मणां, व्‍यवहारेण द्रव्‍यकर्मणामास्रवणबंधनसंवरणनिर्जरणमोक्षणेषु स्‍वयमीशत्‍वात् प्रभु: । निश्‍चयेन पौद्गलिककर्मनिमित्तात्‍मपरिणामानां, व्‍यवहारेणात्‍मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कर्तृत्‍वात्‍कर्ता । निश्‍चयेन शुभाशुभकर्मनिमित्तसुखदु:खपरिणामानां, व्‍यवहारेण शुभाशुभकर्मसंपादितेष्‍टानिष्‍ठविषयाणां भोक्‍तृत्‍वाद्भोक्ता । निश्‍चयेन लोकमात्रोऽपि विशिष्‍टावगाहपरिणामशक्तियुक्तत्‍वान्‍नामकर्मनिर्वृत्तमणु महच्च शरीरमधितिष्‍ठन् व्‍यवहारेण देहमात्र: । व्‍यवहारेण कर्मभि: सहैकत्‍वपरिणामान्‍मूर्तोऽपि निश्‍चयेन निरूपस्‍वभावत्‍वान्‍न हि मूर्त: । निश्‍चयेन पुद्गलपरिणामानुरूपचैतन्‍यपरिणामात्‍मभि:, व्‍यवहारेण चैतन्‍यपरिणामानुरूपपुद्गलपरिणामात्‍मभि: कर्मभि: संयुक्‍तत्‍वात्‍कर्मसंयुक्त इति ॥२६॥


यहाँ (इस गाथा में) संसार-दशा वाले आत्मा का सोपाधि और निरुपाधि स्वरूप कहा है ।

आत्मा
  1. निश्चय से भाव-प्राण को धारण करता है इसलिए जीव है, व्यवहार से (असदभुत व्यवहार-नय से) द्रव्य-प्राण को धारण करता है इसलिए 'जीव' है;
  2. निश्चय से चित-स्वरूप होने के कारण चेतायिता (चेतने-वाला) है, व्यवहार से (सद्भुत व्यवहार-नय से) चित-शक्ति-युक्त होने से 'चेतायिता' है;
  3. निश्चय से अपृथग्भूत ऐसे चैतन्य-परिणाम-स्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होने से उपयोग-लक्षित है, व्यवहार से (सद्भुत व्यवहार-नय से) पृथग्भूत ऐसे चैतन्य-परिणाम-स्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होने से 'उपयोग-लक्षित' है;
  4. निश्चय से भाव-कर्मों के आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करने में स्वयं ईश (समर्थ) होने से पभु है, व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) द्रव्य-कर्मों के आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करने में स्वयं ईश होने से 'पभु' है;
  5. निश्चय से पौदगलिक-कर्म जिनका निमित्त है ऐसे आत्म-परिणामों का कर्तत्व होने से कर्ता है, व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) आत्म-परिणाम जिनका निमित्त है ऐसे पौदगलिक कर्मों का कर्तत्व होने से 'कर्ता' है;
  6. निश्चय से शुभाशुभ कर्म जिनका निमित्त है ऐसे सुख-दुःख-परिणामों का भोक्तृत्व होने से भोक्ता है, व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) शुभाशुभ कर्मों से संपादित (प्राप्त) इश्टानिष्ट विषयों का भोक्तृत्व होने से 'भोक्ता' है;
  7. निश्चय से लोक-प्रमाण होने पर भी, विशिष्ट अवगाह-परिणाम की शक्ति-वाला होने से नाम-कर्म से रचित छोटे-बड़े शरीर में रहता हुआ व्यवहार से (सद्भुत व्यवहार-नय से) 'देह-प्रमाण' है;
  8. व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) कर्मों के साथ एकत्व-परिणाम के कारण मूर्त होने पर भी, निश्चय से अरुपी-स्वभाव-वाला होने के कारण अमूर्त है;
  9. निश्चय से पुद्गल-परिणाम को अनुरूप चैतन्य-परिणामात्मक कर्मों के साथ संयुक्त होने से कर्म-संयुक्त है, व्यवहार से (असद्भुत व्यवहार-नय से) चैतन्य-परिणाम को अनुरूप पुद्गल-परिणामात्मक कर्मों के साथ संयुक्त होने से 'कर्म-संयुक्त' है ॥२६॥


सोपाधि = उपाधि सहित; जिसमें पर की अपेक्षा आती हो ऐसा ।
निश्चय से चित-शक्ति को आत्मा के साथ अभेद है और व्यवहार से भेद है; इसलिए निश्चय से आत्मा चित-शक्ति-स्वरूप है और व्यवहार से चित-शक्ति-वान है ।
जयसेनाचार्य :

[जीवोत्ति] आत्मा
  1. [हवदि] शुद्ध निश्चय से सत्ता, चैतन्य, बोधादि शुद्ध प्राणों से जीता है तथा अशुद्ध निश्चय से क्षायोपशमिक, औदयिक भाव प्राणों से जीता है; उसीप्रकार अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से यथासंभव द्रव्य प्राणों से जीता है, जिएगा और पहले जीता था वह जीव है ।
  2. [चेदा] शुद्ध निश्चय से शुद्ध ज्ञानचेतना से उसीप्रकार अशुद्धनिश्चय से कर्म, कर्म फल रूप अशुद्ध चेतना से युक्त होने के कारण चेतयिता है।
  3. [उपयोग विसेसिदो] निश्चय से केवलज्ञान-दर्शनरूप शुद्धोपयोग से और उसीप्रकार अशुद्ध निश्चय से कर्म, कर्मफल रूप अशुद्ध चेतना से मति-ज्ञानादि क्षायोपशमिक अशुद्ध उपयोग से युक्त होने के कारण उपयोग विशेषित है ।
  4. [पहू] निश्चय से मोक्ष, मोक्ष के कारणरूप शुद्ध परिणाम से परिणमन की सामर्थ्य होने से और उसीप्रकार अशुद्ध-नय से संसार, संसार के कारण रूप अशुद्ध परिणाम से परिणमन की सामर्थ्य होने से प्रभू है ।
  5. [कत्ता] शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध भावरूप परिणामों का और उसीप्रकार अशुद्ध निश्चय से भावकर्म रूप रागादि भावों का तथा अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से द्रव्यकर्म, नोकर्म आदि का कर्तृत्व होने से कर्ता है ।
  6. [भोक्ता] शुद्ध निश्चय से शुद्धात्मा के आश्रय से उत्पन्न वीतराग परमानन्दरूप सुख का, उसीप्रकार अशुद्ध निश्चय से इन्द्रियजनित सुख-दु:खों का, वैसे ही अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से सुख-दु:ख के साधक इष्ट-अनिष्ट भोजन-पान आदि बहिरंग विषयों का भोक्तृत्व होने से भोक्ता है ।
  7. [सदेहमत्तो] निश्चय से लोकाकाश प्रमाण असंख्येय प्रदेश प्रमित होने पर भी व्यवहार से शरीर नाम-कर्मोदय से उत्पन्न छोटे-बड़े शरीर प्रमाण होने से स्वदेहमात्र है।
  8. [ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो] मूर्तिरहित है और असद्भूत व्यवहार से अनादि कर्म बंध सहित होने के कारण कर्म-संयुक्त है ।


इसप्रकार शब्दार्थ, नयार्थ कहा । अब मतार्थ कहते हैं । जीवत्व के व्याख्यान में 'वत्स (पुत्र), अक्षर, भव (जन्म), सादृश्य, स्वर्ग, नरक, पितर, चूल्हे पर चड़ाई गई हाँडी और मृतक इन नौ दृष्टान्तों से (जीव को ) जानो' ।

(यहाँ जो आत्मा को नित्य तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते हैं, ऐसे चार्वाक मतानुसारी शिष्य को समझाने के लिए नौ उदाहरण देकर समझाया है --
  • [बालक - ] जन्मते ही बालक माता का स्तनपान करने लगता है । यह कार्य पूर्व संस्कार के बिना होना अशक्य है । इससे आत्मा के पुनर्जन्म की सिद्धि होती है ।
  • [अक्षर - ] मनुष्य अक्षरों का उच्चारण अपने प्रयोजन के अनुसार ज्ञान पूर्वक करता है । पंचभूतों से बने जीव में यह ज्ञान-रूप कार्य होना संभव नहीं है ।
  • [भव -] जब तक आत्मा को नित्य नहीं माना जाएगा, तब तक देह को धारण कर नया जन्म लेना सिद्ध नहीं होगा ।
  • [सादृश्यता -] आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएँ सभी जीवों में सामान-रूप से पाई जाती हैं । इन्द्रियों के द्वारा कार्य करना भी सामान-रूप ही है । बिना जीव की नित्यता माने इस सादृश्यता का होना नहीं बन सकता है ।
  • [स्वर्ग और नरक -] यदि आत्मा को नित्य नहीं मानते तो पुण्य के फल से स्वर्ग में और पाप के फल से नरक में कौन जाएगा ?
  • [पितर -] यदि आत्मा को नित्य नहीं मानते तो भूत, प्रेत, व्यंतर आदि की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी ।
  • [चुल्हा -] यदि पंच-भूतों से जीव बनता है तो चूल्हे पर रखी हांडी में भी जीव उत्पन्न हो जाना चाहिए क्योंकि उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँचों तत्त्व हैं, किन्तु उसमें ज्ञान और इच्छा होते दिखाई नहीं देते ।
  • [मृतक -] मुर्दे में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्व हैं, किन्तु उसमें ज्ञान और इच्छा नहीं होते हैं । इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान और इच्छा करने वाला नित्य जीव है ।)


इसप्रकार दोहक सूत्र में कहे गये नौ दृष्टान्तों द्वारा चार्वाक मतानुसारी शिष्य की अपेक्षा जीव की सिद्धि के लिए (जीव का) और उसके लिए ही अनादि चेतना गुण का व्याख्यान किया है; अथवा सामान्य चेतना का व्याख्यान सभी मतों के प्रति साधारण जानना चाहिए और अभिन्न ज्ञान-दर्शन उपयोग का व्याख्यान नैयायिक मतानुसारी शिष्य को समझाने के लिए किया है ।

मोक्ष के उपदेशक और मोक्ष के साधक प्रभुत्व का व्याख्यान, वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत वचन प्रमाण है, तथा - 'रत्न, दीप, सूर्य, चन्द्रमा, घी, सुवर्ण, चाँदी, स्फटिकमणि, अग्नि-नौ दृष्टान्तों से जानो' ॥योगसार, दोहा ५७॥

(भट्ट और चार्वाक मतानुसारी शिष्य को समझाने के लिए ९ उदाहरण देकर सर्वज्ञ की सिद्धि निम्न प्रकार से की है --
  • [रत्न की प्रभा -] यह कभी कम दिखती है, कभी अधिक तेज दिखती है । इसी प्रकार जगत के जीवों में से किसी में कम ज्ञान और किसी में अधिक ज्ञान दिखलाई देता है । अत: किसी जीव में ज्ञान की पूर्णता भी हो सकती है । जिसमें ज्ञान की पूर्णता होती है वही सर्वज्ञ है ।)
  • इसप्रकार दोहक सूत्र में कहे नौ दृष्टान्तों द्वारा भट्ट-चार्वाक मताश्रित शिष्य की अपेक्षा सर्वज्ञ-सिद्धि के लिए किया है ।
  • शुद्धाशुद्ध परिणामों के कर्तृत्व का व्याख्यान नित्य अकर्तृत्व का एकान्त मानने वाले सांख्य मतानुयायी शिष्य के संबोधन-हेतु है ।
  • भोक्तृत्व व्याख्यान, 'कर्ता कर्मफल को नहीं भोगता' -- ऐसी मान्यता वाले बौद्ध मतानुसारी शिष्य के प्रति सम्बोधन-हेतु है ।
  • स्व-देह प्रमाण का व्याख्यान नैयायिक, मीमांसक, कपिल मतानुसारी शिष्य के संदेह को नष्ट करते हेतु है ।
  • अमूर्तत्व का व्याख्यान भट्ट-चार्वाक मतानुसारी शिष्य के सम्बोधनार्थ है; तथा
  • द्रव्य-भाव कर्म-संयुक्तत्व का व्याख्यान सदामुक्त के निराकरणार्थ है।
--इसप्रकार मतार्थ जानना चाहिए। चेतना आदि धर्मों का जीवत्व से सम्बन्ध होने के कारण आगमार्थ का व्याख्यान तो परमागम में प्रसिद्ध ही है ।

कर्मोपाधि जनित मिथ्यात्व-रागादि रूप समस्त विभाव परिणामों को छोडकर निरूपाधि केवल-ज्ञानादि गुणयुक्त शुद्ध जीवास्तिकाय ही निश्चयनय की अपेक्षा उपादेयरूप से भावनीय है -- ऐसा भावार्थ है ।

इसप्रकार व्याख्यान के समय यथा-सम्भव सर्वत्र शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ, भावार्थ जानना चाहिए ।

पहले (२७वीं गाथा-टीका) जीवास्तिकाय की समुदाय पातनिका में चार्वाक आदि मतों का व्याख्यान किया था, यहाँ पुन: किसलिए किया है? शिष्य द्वारा ऐसा पूर्वपक्ष (प्रश्न ) किए जाने पर परिहार करते हैं वहाँ तो वीतराग-सर्वज्ञ रूप से सिद्ध होने पर (वीतराग-सर्वज्ञ हो जाने पर ही) व्याख्यान प्रमाणता को प्राप्त होता है, इसप्रकार व्याख्यान का क्रम बताने के लिए, प्रभुता अधिकार की मुख्यता से नौ अधिकार सूचित किए थे । वैसा ही कहा भी है 'वक्ता की प्रमाणता से वचन की प्रमाणता होती है ।' और यहाँ 'धर्मी होने पर ही धर्मों का विचार किया जाता है ।' -- ऐसा वचन होने से चेतन गुणादि विशेषण रूप धर्मों के आधार-भूत विशेष्य लक्षणमय जीवरूप धर्मी के सिद्ध होने पर, उनके चेतन गुण आदि विशेषण रूप धर्मों का व्याख्यान घटित होता है ऐसा बताने के लिए जीवसिद्धि के माध्यम से मतान्तरों के निराकरण सहित नौ अधिकारों का उपदेश दिया गया है -- इसप्रकार दोष नहीं है ॥२७॥

इसप्रकार अधिकार गाथा पूर्ण हुई ।