
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्र मुक्तावस्थस्यात्मनो निरुपाधिस्वरूपमुक्तम् । आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा साकल्येन यस्मिन्नेव क्ष्णे मुच्यते तस्मिन्नेवोर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकांतमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थित: केवलज्ञानदर्शनाभ्यां स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनेतमतीन्द्रियं सुखमनुभवति । मुक्तस्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं जीवत्वं, चिद᳭रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षणउपयोग:, निर्वर्तितसमस्ताधिकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं, समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्त्र्यलक्षणसुखोपलम्भरूपं भोक्तृत्वं, अतीतानंतरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं, उपाधिसंबन्धविविक्तमात्यन्तिकममूर्तत्वम् । कर्म संयुक्तत्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव । द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कंधा, भावकर्माणि तु चिद्विर्ता: । विवर्तते हि चिच्छफितरनादिज्ञानावरणादिकर्मसंपर्ककूणितप्रचारा परिच्छेद्यस्य विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा । यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसंपर्क: प्रणश्यति तदा परिच्देद्यस्य विश्वस्य सर्वदेशेषु युगपद्वयापृता कथंचित्कौटस्थ्यमवाप्य विषयांतरमनाप्नुवंती न विवर्तते । स खल्वेष निश्चित: सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भ: । अयमेव द्रव्यकर्मनिबंधनभूतानां भावकर्मणां कर्तृत्वोच्छेद: । अयमेव च विकारपूर्वकानुभवाभावादौपाधिकसुखदु:खपरिणामानां भोक्तृत्वोच्छेद: । इदमेव चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानंतचैतन्यस्यात्मन: स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षणसुख्स्य भोक्तृत्वमिति ॥२७॥ यहाँ मुक्तावस्था वाले आत्मा का निरुपाधि स्वरूप कहा है । आत्मा (कर्म-रज के) पर-द्रव्यपने के कारण कर्म-रज से सम्पूर्ण-रूप से जिस क्षण छूटता है (मुक्त होता है), उसी क्षण (अपने) उर्ध्व-गमन-स्वभाव के कारण लोक के अंत को पाकर आगे गति-हेतु का अभाव होने से (वहाँ) स्थिर रहता हुआ, केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन (निज) स्वरूप-भूत होने के कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अनिन्द्रिय सुख का अनुभव करता है । उस मुक्त आत्मा को,
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जयसेनाचार्य :
अब मोक्ष साधकत्व सम्बन्धी प्रभुता गुण के माध्यम से सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए, मुक्त अवस्था को प्राप्त आत्मा के केवल-ज्ञानादि रूप निरुपाधि-स्वरूप को दिखाते हैं-- [कम्ममलविप्पमुक्को] द्रव्यकर्म, भावकर्म से विप्रमुक्त होते हुए। [उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता] ऊर्ध्व-गति स्वभाव होने से लोक के अंत को प्राप्त कर, आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वहाँ लोकाग्र में ही स्थित रहते हुए [सो सव्वणाणदरसी] सभी विषय सम्बन्धी ज्ञान-दर्शन, वह सब ज्ञान दर्शन; वे दोनों जिनके विद्यमान हैं, वे सर्व-ज्ञानदर्शी हैं। ऐसे होते हुए वे क्या करते हैं? [लहइ सुहमणिंदियमणंतं] प्राप्त करते हैं / अनुभव करते हैं । किसका अनुभव करते हैं ? सुख का अनुभव करते हैं । वह सुख कैसा है ? अतीन्द्रिय है । और भी वह कैसा है ? अनन्त है । विशेष यह है कि पहले गाथा (२८वीं में) कहे गए जीव तत्त्व आदि नौ अधिकारों में से कर्म-संयुक्तता को छोडकर शुद्ध जीवत्व, शुद्ध-चेतना, शुद्धोपयोग आदि आठ अधिकारों को, आगम के अविरोध पूर्वक यथासम्भव मुक्तावस्था में भी लगा लेना चाहिए -- यह सूत्र का अभिप्राय है ॥२८॥ |