जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरिसी य । (28)
पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं सगममुत्तं ॥29॥
जात: स्‍वयं स चेतयिता सर्वज्ञ: सर्वलोकदर्शी च ।
प्राप्‍नोति सुखमनंतमव्‍याबाधं स्‍वकममूर्तम् ॥२८॥
आतम स्वयं सर्वज्ञ-सर्वदर्शित्व की प्राप्ति करे ।
अर स्वयं अव्याबाध एवं अतीन्द्रिय सुख अनुभवे ॥२८॥
अन्वयार्थ : वह चेतयिता स्वयं सर्वज्ञ और सर्व-लोक-दर्शी होता हुआ, अपने अतीन्द्रिय, अव्याबाध, अमूर्त सुख को प्राप्त करता है ।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
इदं सिद्धस्‍य निरुपाधिज्ञानदर्शनसुखसमर्थनम् । आत्‍मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्‍वभाव: संसारावस्‍थायामनादिकर्मक्‍लेशकोचितात्‍मशक्ति: परद्रव्‍यसंपर्केण क्रमेण किंचित् किंचिज्‍जानाति पश्‍यति, परप्रत्‍ययं मूर्तसंबद्धं सव्‍याबाधं सांतं सुखमनुभवति च । यदा त्‍वस्‍य कर्मक्‍लेशा: सामस्‍त्‍येन प्रणश्‍यन्ति, तदाऽनर्गलासंकुचितात्‍मशक्तिसहाय: स्‍वयमेव युगपत्‍समग्रं जानाति पश्‍यति, स्‍वप्रत्‍ययममूर्तसम्‍बद्धमव्‍याबाधमनंतं सुखमनुभवति च । तत: सिद्धस्‍य समस्‍तं स्‍वयमेव जानत: पश्‍यत:, सुखमनुभवतश्‍च स्‍वं, न परेण प्रयोजनमिति ॥२८॥


यह, सिद्ध के निरुपाधि ज्ञान, दर्शन और सुख का समर्थन है ।

वास्तव में, ज्ञान, दर्शन और सुख जिसका स्वभाव है ऐसा आत्मा संसार-दशा में, अनादि कर्म-क्लेश द्वारा आत्म-शक्ति संकुचित की गई होने से, पर-द्रव्य के संपर्क द्वारा (इन्द्रियादि के सम्बन्ध द्वारा) क्रमश: कुछ-कुछ जानता है और देखता है तथा पराश्रित, मूर्त (इन्द्रियादि) के साथ सम्बन्ध-वाला, सव्याबाध (बाधा-सहित) और सान्त सुख का अनुभव करता है;

किन्तु जब उसके कर्म-क्लेश समस्त-रूप से विनाश को प्राप्त होते हैं तब, आत्म-शक्ति अनर्गल (निरंकुश) और असंकुचित होने से, वह असहाय-रूप से (किसी की सहायता बिना) स्वयमेव युगपद् सब (सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव) जानता है और देखता है तथा स्वाश्रित, मूर्त (इन्द्रियादि) के साथ सम्बन्ध रहित, अव्याबाध और अनंत सुख का अनुभव करता है ।

इसलिए सब स्वयमेव जानने और देखनेवाले तथा स्वकीय सुख का अनुभवन करनेवाले सिद्ध को (कुछ भी) प्रयोजन नहीं है ॥२८॥
जयसेनाचार्य :

अब, जो पूर्वोक्त निरुपाधि ज्ञान-दर्शन-सुख स्वरूप है, उसका ही जादोसयं.. इसप्रकार के वचन द्वारा पुन: समर्थन करते हैं--

[जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य] वास्तव में तो आत्मा निश्चय-नय से केवल-ज्ञान-दर्शन-सुख स्वभाव-मय है। ऐसा होने पर भी संसार अवस्था में कर्म से आवृत (घिरा) हुआ, क्रम-करण-व्यवधान से उत्पन्न क्षायोपशमिक ज्ञान द्वारा कुछ-कुछ जानता है; उसप्रकार के दर्शन से कुछ-कुछ देखता है / सामान्य अवलोकन करता है; तथा इन्द्रिय-जनित, बाधासहित, पराधीन, मूर्त सुख का अनुभव करता है । वही चेतयिता आत्मा निश्चयनय से स्वयं ही कालादि लब्धि के वश से सर्वज्ञ होता है, सर्वदर्शी होता है । ऐसा होता हुआ वह क्या करता है ? [पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं सगममुत्तं] प्राप्त करता है। क्या प्राप्त करता है? सुख प्राप्त करता है। यहाँ सुख शब्द अध्याहार है (पूर्व गाथा से लिया गया है) । वह सुख कैसा है ? इन्द्रिय-रहित है । वह और किस विशेषता वाला है? स्वयं / आत्मा से उत्पन्न है । और किस रूप है ? मूर्त इन्द्रियों से निरपेक्ष होने के कारण अमूर्त है । यहाँ 'स्वयं से उत्पन्न है' -- इस वचन द्वारा पूर्वोक्त निरुपाधित्व का ही समर्थन किया है । उसी प्रकार निश्चय-नय से स्वयं ही सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हुए -- इससे भी पूर्वोक्त सर्वज्ञत्व और सर्व-दर्शित्व का ही समर्थन किया गया है ।

यहाँ कोई भट्ट-चार्वाक मतानुसारी कहता है -- गधे के सींग के समान, उपलब्ध न होने के कारण सर्वज्ञ नहीं हैं ?

उसके प्रति उत्तर देते हैं -- सर्वज्ञ कहाँ नहीं हैं ? इस देश और इस काल में नहीं हैं कि तीन लोक और तीन काल में नहीं हैं ? यदि इस देश-काल में नहीं हैं ऐसा कहते हो तो हमें स्वीकृत ही है; और यदि तीन लोक में नहीं हैं (ऐसा कहते हो तो) आपने वह कैसे जाना ? यदि आपने तीन लोक और तीन काल को सर्वज्ञ रहित जान लिया तो आप ही सर्वज्ञ हैं । ऐसा जानने से हम सर्वज्ञ कैसे हो गए ? यदि आपका ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं जो तीन लोक को जानता है, वह ही सर्वज्ञ है; (अत: आप ही सर्वज्ञ हो गए) और यदि सर्वज्ञ से रहित तीन लोक, तीन काल, आपके द्वारा ज्ञात नहीं हुआ तब फिर तीन लोक, तीन काल में भी सर्वज्ञ नहीं हैं ऐसा निषेध आप कैसे करते हैं ? एतदर्थ यहाँ कोई उदाहरण देते हैं -- जैसे कोई देवदत्त घट रहित भूतल / जमीन को आँखों से देखकर, बाद में कहता है कि भूतल पर घट नहीं है ऐसा उचित ही है । कोई दूसरा अंधा यदि इसी-प्रकार कुछ बोले कि इस भूतल पर घट नहीं है; तो यह तो उचित नहीं है; उसीप्रकार जो तीन-लोक, तीन-काल को सर्वज्ञ से रहित प्रत्यक्ष जानता है, वह ही सर्वज्ञ का निषेध करने में समर्थ है; अन्धे के समान कोई दूसरा नहीं है । जो तीन-लोक, तीन-काल को जानता है वह सर्वज्ञ का निषेध किसी भी रूप में नहीं करता । वह निषेध क्यों नहीं करता है ? तीन-लोक, तीन-काल के परिज्ञान से सहित हो जाने के कारण स्वयं ही सर्वज्ञ हो जाने से, वह उसका निषेध नहीं करता है । दूसरी बात यह है कि 'अनुपलब्ध होने से' यह (जो) हेतु का वचन है, वह भी अयुक्त / अनुचित है । वह अनुचित कैसे है ? क्या आपको सर्वज्ञ की अनुपलब्धि है अथवा तीन-लोक, तीन-कालवर्ती पुरुषों को अनुपलब्धि है । यदि आपको अनुपलब्धि है; तो इतने मात्र से सर्वज्ञ का अभाव नहीं हो जाता । इतने मात्र से कैसे नहीं हो जाता ? परमाणु आदि सूक्ष्म-पदार्थ और दूसरे की मनोगत-वृत्तियों को यदि आप नहीं जानते हैं, तो क्या वे नहीं हैं ?

यदि तीन-लोक, तीन-कालवर्ती पुरुषों को सर्वज्ञ की अनुपलब्धि होने से वह नहीं हैं ऐसा कहते हैं तो वह आपको कैसे ज्ञात हुआ ? इसपर विचार पहले ही कर लिया गया है । इसप्रकार अनुपलब्धि-रूप हेतु दूषित है; तथा जो आपने 'खरविषाणु के समान' -- ऐसा दृष्टान्त वचन कहा, वह भी उचित नहीं है ।

प्रश्न – वह उचित कैसे नहीं है?

उत्तर –
खर (गधा) के शिर पर विषाण (सींग) नहीं हैं; परन्तु सर्वत्र विषाण नहीं हैं ऐसा तो नहीं है । गाय आदि के सिर पर प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं; उसीप्रकार सर्वज्ञ भी विवक्षित देश-काल में नहीं हैं, परन्तु सर्वत्र नहीं हैं, ऐसा तो नहीं है, इसप्रकार संक्षेप से हेतु-दूषण और दृष्टान्त-दूषण जानना चाहिए ।

अब यदि आपका यह कहना हो कि सर्वज्ञ के अभाव में तो आपने दूषण दे दिए, तब फिर सर्वज्ञ के सद्भाव में प्रमाण क्या है ? वहाँ प्रमाण कहते हैं -- अपने अनुभव-गम्य सुख-दु:खादि के समान पूर्वोक्त प्रकार से बाधक प्रमाण का अभाव होने के कारण सर्वज्ञ हैं; अथवा दूसरा अनुमान-प्रमाण कहते हैं; वह इसप्रकार -- सूक्ष्म, अव्यवहित, देशांतरित, कालांतरित, स्वभावांतरित पदार्थ किसी पुरुष विशेष-रूप धर्मी के प्रत्यक्ष हैं । यहाँ 'प्रत्यक्ष हैं' -- यह साध्य या धर्म है । ये किस कारण प्रत्यक्ष हैं ? अनुमान के विषय होने से ये प्रत्यक्ष हैं । जो-जो अनुमान का विषय होता है; वह-वह किसी को प्रत्यक्ष भी दिखाई देता है । जैसे अग्नि आदि अनुमान के विषय हैं, इसकारण ये किसी के प्रत्यक्ष भी होते हैं । -- इसप्रकार संक्षेप से सर्वज्ञ के सद्भाव में प्रमाण जानना चाहिए । विस्तार से असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अकिंचित्कर हेत्वाभासों का निषेध और सही हेतु के समर्थन से अन्यत्र (प्रमेय- कमल-मार्तण्ड आदि ग्रन्थों में) सर्वज्ञ-सिद्धि के प्रकरण में कहा ही है; यहाँ यह अध्यात्म ग्रन्थ होने से उसे नहीं कहा है ।

यह ही वीतराग-सर्वज्ञ स्वरूप समस्त रागादि विभावों के त्याग पूर्वक निरन्तर उपादेय रूप से भावनीय है -- ऐसा भावार्थ है ॥३०॥

इस प्रकार प्रभुत्व व्याख्यान की मुख्यता से दो गाथायें पूर्ण हुईं ।