
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
दर्शनोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत् । यक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनमिति नामाभिधानम् । आत्मा ह्यनन्तसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्धदर्शनसामान्यात्मा । स खल्वनादिदर्शनावरणकर्मावच्छन्नप्रदेश: सन्, यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम्, यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुर्वर्जितेतरचक्षुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तद᳭वधिदर्शनम्, यत्सकलावरणात्यंतक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् ॥४१॥ यह, दर्शनोपयोग के भेदों के नाम और स्वरूप का कथन है ।
(अब उनके स्वरूप का कथन किया जाता है :- ) आत्मा वास्तव में अनंत, सर्व आत्म-प्रदेशों में व्यापक, विशुद्ध दर्शन-सामान्य-स्वरूप है । वह (आत्मा) वास्तव में अनादि दर्शनावरण-कर्म से आच्छादित प्रदेशोंवाला वर्तता हुआ,
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जयसेनाचार्य :
अब दर्शनोपयोग के भेदों का नाम और स्वरूप प्रतिपादित करते हैं-- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन -- ये दर्शनोपयोग के भेदों के नाम हैं ।
इसप्रकार दर्शनोपयोग के व्याख्यान की मुख्यता से गाथा पूर्ण हुई । |