
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
एकस्यात्मनोऽनेकज्ञानात्मकत्वसमर्थनमेतत् । न तावज्ज्ञानी ज्ञानात्पृथग्भवति, द्वयोरप्येकास्तिनिर्वृत्तत्वेनैकद्रव्यत्वात्, द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनैकक्षेत्रत्वात्, द्वयोरप्येकसमयनिर्वृत्तत्वेनैककालत्वात्, द्वयोरप्येकस्वभावत्वेनैकभावत्वात् । न चैवमुच्यमानेप्येकस्मिन्नात्मन्याभिनिबोधिकादीन्यनेकानि ज्ञानानि विरुध्यंते, द्रव्यस्य विश्वरूपत्वात् । द्रव्यं हि सहक्रमप्रवृत्तानंतगुणपर्यायाधारतयानंतरूपत्वादेकमपि विश्वरूपमभिधीयत इति ॥४२॥ एक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक होने का समर्थन है । प्रथम तो ज्ञानी (आत्मा) ज्ञान से पृथक नहीं है; क्योंकि
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जयसेनाचार्य :
अब आत्मा के ज्ञानादिगुणों के साथ संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होने पर भी निश्चय से प्रदेशों की अभिन्नता और मति आदि अनेक ज्ञानता को तीन गाथाओं द्वारा व्यवस्थापित करते हैं-- [ण वियप्पदि] विकल्पित नहीं होता, भेद से पृथक् नहीं किया जा सकता । वह कौन पृथक् नहीं किया जा सकता ? [णाणी] ज्ञानी पृथक् नहीं किया जा सकता । किससे नहीं किया जा सकता ? [णाणादो] ज्ञानगुण से पृथक नहीं किया जा सकता । प्रश्न – तब तो फिर ज्ञान भी एक होगा ? उत्तर – ऐसा नहीं है । [णाणाणि होंति णेगाणि] मति आदि ज्ञान अनेक हैं, जिस कारण ज्ञान अनेक होते हैं; [तम्हा दु विस्सरूवं भणियं] उस कारण अनेक ज्ञानगुण की अपेक्षा विश्वरूप, अनेक रूप कहा गया है । कौन कहा गया है ? [दवियत्ति] जीवद्रव्य कहा गया है । किनके द्वारा कहा गया है ? [णाणीहिं] हेयोपादेय विचारक ज्ञानियों द्वारा कहा गया है । वह इसप्रकार --
अथवा शुद्धजीव की अपेक्षा
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