
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
बद्धजीवस्य षडगतयः कर्मनिमित्ताः । मुक्तस्याप्यूर्ध्वगतिरेका स्वाभाविकीत्यत्रोक्तम् ॥७२॥ - इति जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम् । बद्ध जीव को कर्म-निमित्तक षड्विध गमन (अर्थात् कर्म जिसमें निमित्त-भूत हैं ऐसा छह दिशाओं में गमन) होता है; मुक्त जीव को भी स्वाभाविक ऐसा एक ऊर्ध्व-गमन होता है -- ऐसा यहाँ कहा है ॥७२॥ इस प्रकार जीव-द्रव्यास्तिकाय का व्याख्यान समाप्त हुआ । अब पुद्गल-द्रव्यास्तिकाय का व्याख्यान है । |
जयसेनाचार्य :
[पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं सव्वदोमुक्को] समस्त रागादि विभाव से रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण ध्यान के बल से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश बंध-मय विभाव-रूप से सर्वत: मुक्त भी [उड्ढं गच्छदि] स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादि गुणों से युक्त होते हुए एक समय लक्षण वाली अविग्रह गति से ऊपर जाते हैं । [सेसा] शेष संसारी जीव [विदिसावज्जं गदिं जंति] मरण के बाद विदिशाओं को छोडकर पूर्वोक्त छह अपक्रम लक्षण अनुश्रेणी नामक गति से जाते हैं । यहाँ गाथा-सूत्र में 'सदाशिव, सांख्य, मांडलिक, बुद्ध, नैयायिक और वैशेषिक, ईश्वर, मस्करि पूरण के मतों का खंडन करने के लिए ये आठ किए गए हैं ।' -- इसप्रकार गाथा में कहे गए आठ मतांतरों के निषेध के लिए- 'आठ प्रकार के कर्मों से रहित, शीतिभूत (सुखमय), निरंजन, नित्य, आठ गुणमय, कृतकृत्य, लोकाग्र निवासी और सिद्ध हैं।' -- इसप्रकार दूसरी गाथा में कहे गए लक्षण वाले सिद्धों का स्वरूप कहा गया है, ऐसा अभिप्राय है ॥७९॥ इसप्रकार जीवास्तिकाय के सम्बन्ध में नौ अधिकारों के चूलिका व्याख्यान रूप से तीन गाथायें जानना चाहिए । इस प्रकार पूर्वोक्त प्रकार से
अब, इसके बाद चिदानन्द एक स्वभावी शुद्ध-जीवास्तिकाय से भिन्न हेयरूप पुद्गलास्तिकाय अधिकार में दश गाथायें हैं । वह इसप्रकार --
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