
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
आकाशस्यावकाशैकहेतोर्गतिस्थितिहेतुत्वशङ्कायां दोषोपन्यासोऽयम् । यदि खल्वाकाशमवगाहिनामवगाहहेतुरिव गतिस्थितिमतां गतिस्थितिहेतुरपि स्यात्, तदा सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणता भगवंतः सिद्धा बहिरङ्गान्तरङ्गसाधनसामग्ा्रयांसत्यामपि कुतस्तत्राकाशे तिष्ठन्ति इति ॥९१॥ जो मात्र अवकाश का ही हेतु है ऐसा जो आकाश उसमें गति-स्थिति-हेतुत्व (भी) होने की शंका की जाय तो दोष आता है उसका कथन है । यदि आकाश, जिस प्रकार १अवगाह-वालों को अवगाह हेतु है उसी प्रकार, गति-स्थिति-वालों को गति-स्थिति-हेतु भी हो, तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्व-गति से परिणत सिद्ध-भगवन्त, बहिरंग-अंतरंग साधन रूप सामग्री होने पर भी क्यों (किस कारण) उसमें, आकाश में, स्थिर हों ? ॥९१॥ १अवगाह= लीन होना, मज्जित होना, अवकाश पाना । |
जयसेनाचार्य :
[आयासं] आकाश-रूप कर्ता, [देदि जदि] यदि देता है तो । क्या देता है ? [अवगासं] अवकाश / अवगाह / स्थान देता है । स्थान कैसे या किनके साथ देता है ? [गमणठिदिकारणेहिं] गमन-स्थिति में कारण होने के साथ देता है । यदि वह ऐसा करता है तो क्या दोष आएगा ? [उड्ढं गदिप्पधाणा] निर्विकार विशिष्ट चैतन्य-प्रकाश-मात्र कारण-समय-सार की भावना के बल से नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव गति का विनाश कर, पश्चात् स्वाभाविक ऊर्ध्व-गति स्वभाव-वान होते हुए । इस रूप वे कौन हैं ? [सिद्धा] स्वभाव की उपलब्धि, सिद्धि रूप सिद्ध भगवान हैं । [चिट्ठन्ति किह] इस रूप वे कैसे ठहरते ? कहाँ ठहरते ? [तत्थ] वहाँ लोकाग्र में ही वे कैसे ठहरते ? इस सूत्र में (यह बताया जा रहा है कि) लोक से बहिर्भाग में भी आकाश है, वे वहाँ क्यों नहीं जाते हैं ? -- यह भावार्थ है (इससे सिद्ध हुआ कि गति-स्थिति के कारण धर्म-अधर्म द्रव्य हैं, आकाश द्रव्य नहीं है) ॥९९॥ |