
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
स्थितिपक्षोपन्यासोऽयम् । यतो गत्वा भगवन्तः सिद्धाः लोकोपर्यवतिष्ठन्ते, ततो गतिस्थितिहेतुत्वमाकाशेनास्तीति निश्चेतव्यम् । लोकालोकावच्छेदकौ धर्माधर्मावेव गतिस्थितिहेतू मन्तव्याविति ॥९२॥ (गतिपक्ष सम्बन्धी कथन करने के पश्चात) यह, स्थिति-पक्ष सम्बन्धी कथन है । जिससे सिद्ध-भगवन्त गमन करके लोक के ऊपर स्थिर होते हैं (अर्थात लोक के ऊपर गति-पूर्वक स्थिति करते हैं), उससे गति-स्थिति-हेतुत्व आकाश में नहीं है ऐसा निश्चय करना, लोक और अलोक का विभाग करने वाले धर्म तथा अधर्म को ही गति तथा स्थिति के हेतु मानना ॥९२॥ |
जयसेनाचार्य :
जिस कारण जिनवरों ने सिद्धों का ऊपर स्थान कहा है, उस कारण आकाश में गमन-स्थिति (हेतुता) नहीं है, ऐसा जानो । वह इसप्रकार -- जिस कारण पूर्व गाथा में लोकाग्र में अवस्थान कहा गया है । वहाँ अवस्थान किनका कहा गया है ? *अंजनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, दिग्विजयसिद्ध, खड्ग (तलवार) सिद्ध इत्यादि लौकिक सिद्धियों से विलक्षण, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में अन्तर्भूत निर्नाम, निर्गोत्र, अमूर्तत्व आदि अनन्तगुण लक्षण सिद्धों का वहाँ अवस्थान कहा गया है; इससे ही ज्ञात होता है कि आकाश में गति-स्थिति की कारणता नहीं है, अपितु धर्म-अधर्म ही गति-स्थिति के कारण हैं, ऐसा अभिप्राय है ॥१००॥ *
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