
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वनिरासव्याख्योपसंहारोऽयम् । धर्माधर्मावेव गतिस्थितिकारणे नाकाशमिति ॥९४॥ यह, आकाश को गति-स्थिति-हेतुत्व होने के खंडन सम्बन्धी कथन का उपसंहार है । धर्म और अधर्म ही गति और स्थिति के कारण हैं, आकाश नहीं ॥९४॥ |
जयसेनाचार्य :
इसलिए गमन-स्थिति के कारण धर्म-अधर्म हैं, आकाश नहीं, ऐसा जिनवरों ने कहा है । किनके सम्बन्धित्व से / किनसे कहा है ? भव्यों से कहा है । क्या करते हुए भव्यों से कहा है ? समवसरण में लोक-स्वभाव को सुनते हुए भव्यों से कहा है -- ऐसा भावार्थ है ॥१०२॥ इस प्रकार गति-स्थिति में कारण धर्म-अधर्म हैं, आकाश नहीं; इस कथन-रूप से दूसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं । |