
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
धर्माधर्मलोकाकाशानामवगाहवशादेकत्वेऽपि वस्तुत्वेनान्यत्वमत्रोक्तम् । धर्माधर्मलोकाकाशानि हि समानपरिमाणत्वात्सहावस्थानमात्रेणैवैकत्वभाञ्जि । वस्तुतस्तुव्यवहारेण गतिस्थित्यवगाहहेतुत्वरूपेण निश्चयेन विभक्त प्रदेशत्वरूपेण विशेषेण पृथगुपलभ्यमानेनान्यत्वभाञ्ज्येव भवन्तीति ॥९५॥ - इति आकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम् । यहाँ, धर्म, अधर्म और लोकाकाश का अवगाह की अपेक्षा से एकत्व होने पर भी वस्तु-रूप से अन्यत्व कहा गया है । धर्म, अधर्म और लोकाकाश समान परिमाण-वाले होने के कारण साथ रहने मात्र से ही (मात्र एक-क्षेत्रावगाह की अपेक्षा से ही) एकत्व-वाले हैं, वस्तुतः तो (१) व्यवहार से गति-हेतुत्व, स्थिति-हेतुत्व और अवगाह-हेतुत्व-रूप (पृथक-उपलब्ध विशेष द्वारा) तथा (२) निश्चय से १विभक्त-प्रदेशत्वरूप पृथक-उपलब्ध २विशेष द्वारा, वे अन्यत्व-वाले ही हैं ॥९५॥ १विभक्त = भिन्न (धर्म, अधर्म और आकाश को भिन्न-प्रदेश-पना है।) २विशेष = खासियत, विशिष्टता, विशेषता। (व्यवहार से तथा निश्चय से धर्म, अधर्म और आकाश के विशेष पृथक उपलब्ध हैं अर्थात भिन्न भिन्न दिखाई देते हैं।) |
जयसेनाचार्य :
[धम्माधम्मागासा] धर्म, अधर्म, लोकाकाश द्रव्य हैं । वे किस विशेषतावाले हैं ? [अपुधब्भूदा समाणपरिमाणा] व्यवहारनय से अपृथग्भूत और समान परिमाणवाले हैं । और किस रूप वाले हैं ? [पुधगुवलद्धविसेसा ] निश्चय की अपेक्षा पृथक् रूप से उपलब्ध विशेषवान हैं । ऐसे होते हुए क्या करते हैं ? [करेंति] करते हैं, [एयत्तमण्णत्तं] व्यवहार से एकत्व और निश्चय से अन्यत्व करते हैं । वह इसप्रकार -- जैसे यह जीव, पुद्गलादि पाँच द्रव्यों और शेष जीवान्तरों के साथ एक क्षेत्रावगाही होने के कारण व्यवहार से एकत्व करता है; परन्तु निश्चय से समस्त वस्तु-गत अनन्त धर्मों को एकसाथ प्रकाशित करनेवाले परम चैतन्य विलास लक्षण ज्ञान-गुण द्वारा भिन्नत्व करता है; उसीप्रकार धर्म, अधर्म, लोकाकाश द्रव्य एक क्षेत्रावगाह के कारण अभिन्न होने से और समान परिमाणी होने से उपचरित असद्भूत व्यवहार की अपेक्षा परस्पर एकत्व करते हैं; तथा निश्चय-नय की अपेक्षा गति, स्थिति, अवगाह रूप अपने-अपने लक्षणों द्वारा नानात्व / भिन्नत्व करते हैं, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१०३॥ इस प्रकार 'पंचास्तिकाय षड्द्रव्य प्रतिपादक प्रथम महाधिकार' में सात गाथा पर्यंत तीन स्थल द्वारा 'आकाशास्तिकाय व्याख्यान रूप सातवाँ अन्तराधिकार' पूर्ण हुआ । तत्पश्चात् (आठवें अन्तराधिकार में) आठ गाथा पर्यन्त पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य का चूलिका व्याख्यान करते हैं वहाँ आठ गाथाओं में से
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