
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथ पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम् । पुण्यपापयोग्यभावस्वभावाख्यापनमेतत् । इह हि दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः । विचित्रचारित्रमोहनीयविपाक-प्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ । तस्यैव मन्दोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः । एवमिमेयस्य भावे भवन्ति, तस्यावश्यं भवति शुभोऽशुभो वा परिणामः । तत्र यत्रप्रशस्तरागश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः परिणामः, यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राऽशुभ इति ॥१२९॥ यह, पुण्य-पाप के योग्य भाव के स्वभाव का (स्वरूप का) कथन है। यहाँ,
१प्रसाद= प्रसन्नता, विशुद्धता, उज्ज्वलता । |
जयसेनाचार्य :
मोह या राग या द्वेष और चित्त-प्रसाद / मन की प्रसन्नता जिस जीव के भाव में, मन में पाई जाती है, उसके शुभ या अशुभ परिणाम होता है । यहाँ विशेष कहते हैं --
इसप्रकार शुभ-अशुभ परिणाम-कथन-रूप एक सूत्र द्वारा प्रथम स्थल पूर्ण हुआ । |