
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथ आस्रवपदार्थव्याख्यानम् । पुण्यास्रवस्वरूपाख्यानमेतत् । प्रशस्तरागोऽनुकम्पापरिणतिः चित्तस्याकलुषत्वञ्चेति त्रयः शुभा भावाःद्रव्यपुण्यास्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपुण्यास्रवः । तन्निमित्तः शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यास्रव इति ॥१३३॥ यह, पुण्यास्रव के स्वरूप का कथन है । प्रशस्त राग, अनुकम्पा-परिणति और चित्त की अकलुषता - यह तीन शुभ भाव द्रव्य-पुण्यास्रव को निमित्त-मात्र-रूप से कारण-भूत हैं, इसलिये 'द्रव्य-पुण्यास्रव' के प्रसंग का १अनुसरण करके (अनुलक्ष करके) वे शुभ भाव भाव-पुण्यास्रव हैं और वे (शुभ भाव) जिसका निमित्त हैं ऐसे जो योग द्वारा प्रविष्ट होने वाले पुद्गलों के शुभ-कर्म-परिणाम (शुभ-कर्म-रूप परिणाम) वे द्रव्य-पुण्यास्रव हैं ॥१३३॥ १साता-वेदनीयादि पुद्गल-परिणाम-रूप द्रव्य-पुण्यास्रव का जो प्रसंग बनता है उसमें जीव के प्रशस्त रागादि शुभ-भाव निमित्त कारण हैं इसलिये 'द्रव्य-पुण्यास्रव' प्रसंग के पीछे-पीछे उसके निमित्त-भूत शुभ-भावों को भी 'भाव-पुण्यास्रव' ऐसा नाम है । |
जयसेनाचार्य :
[रागो जस्स पसत्थो] राग जिसके प्रशस्त है, वीतराग परमात्म-द्रव्य से विलक्षण पंच-परमेष्ठी के प्रति निर्भर गुणानुराग रूप प्रशस्त धर्मानुराग, [अणुकंपा संसिदो य परिणामो] और अनुकम्पा से सहित परिणाम, दया सहित मन-वचन-काय के व्यापार-रूप शुभ परिणाम हैं, [चित्तम्हि णत्थि कलुसो] चित्त में कलुषता नहीं है, मन में क्रोधादि कलुष परिणाम नहीं है, [पुण्णं जीवस्स आसवदि] जिसके ये पूर्वोक्त तीन शुभ परिणाम हैं, उस जीव के द्रव्य-पुण्य-आस्रव का कारण-भूत भाव-पुण्य-आस्रव होता है, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥१४३॥ इस प्रकार शुभास्रव में पहली गाथा पूर्ण हुई । |