
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत् । अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्ति :, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा, गुरूणामाचार्यादीनां रसिकत्वेनानुगमनम् — एषः प्रशस्तो रागः प्रशस्तविषयत्वात् ।अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्ति प्रधानस्याज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलब्धा-स्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति ॥१३४॥ यह, प्रशस्त राग के स्वरूप का कथन है । १अर्हन्त-सिद्ध-साधुओं के प्रति भक्ति, धर्म में, व्यवहार-चारित्र के २अनुष्ठान में, ३भावना-प्रधान चेष्टा और गुरुओं का-आचार्यादिका, रसिक-भाव से ४अनुगमन, यह 'प्रशस्त राग' है क्योंकि उसका विषय प्रशस्त है । यह (प्रशस्त राग) वास्तव में, जो स्थूल-लक्ष्यवाला होने से केवल भक्ति प्रधान है ऐसे अज्ञानी को होता है, उच्च भूमिका में (ऊपर के गुणस्थानों में) स्थिति प्राप्त न की हो तब, ५अस्थान का राग रोकने के हेतु अथवा तीव्र राग-ज्वर हटाने के हेतु, कदाचित ज्ञानी को भी होता है ॥१३४॥ १अर्हन्त-सिद्ध-साधुओं में अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पाँचों का समावेश हो जाता है क्योंकि 'साधुओं' में आचार्य, उपाध्याय और साधु तीन का समावेश होता है। २अनुष्ठान= आचरण, आचरना, अमल में लाना। ३भावनाप्रधान चेष्टा= भावप्रधान प्रवृत्ति, शुभभावप्रधान व्यापार। ४अनुगमन= अनुसरण, आज्ञांकितपना, अनुकूल वर्तन । ५अस्थान का= अयोग्य स्थान का, अयोग्य विषय की ओर का, अयोग्य पदार्थो का अवलम्बन लेने वाला। |
जयसेनाचार्य :
अरहंत, सिद्ध, साधु में भक्ति, धम्मम्हि जा च खलु चेट्ठा धर्म में, शुभ-राग-रूप चारित्र में जो वास्तविक चेष्टा है, [अणुगमणंपि] अनुगमन, अनुव्रजन, अनुकूल-वृत्ति -- ऐसा अर्थ है । किनके प्रति अनुकूल वृत्ति ? [गुरुणं] गुरूओं के प्रति अनुकूल वृत्ति, [पसत्थरागो त्ति वुच्चन्ति] ये सभी पूर्वोक्त शुभ भाव-रूप परिणाम प्रशस्त राग हैं -- ऐसा कहते हैं । वह इसप्रकार --
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