अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथ पंचास्तिकायानां विशेषसंज्ञा सामान्यविशेषास्तित्वं कायत्वं चोक्तम् । तत्र जीवा: पुद्गला: धर्माधर्मौ आकाशमिति तेषां विशेषसंज्ञा अन्वर्था: प्रत्येया: । सामान्यविशेषास्तित्वं च तेषामुत्पादव्यध्रौव्यमय्यां सामान्यविशेषसत्तायां नियतत्वाद्ववस्थितत्वादवसेयम् । अस्तित्वे नियतानामपि न तेषामन्यमयत्वम्, यतस्ते सर्वदैवानन्यमया आत्मनिर्वृत्ता: । अनन्यमयत्वेऽपि तेषामस्तित्वनियतत्वं, नयप्रयोगात् । द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ—द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किंतु तदुभयायत्ता । तत: पर्यायार्थादेशादस्तित्वे स्वत: कथंचिद्भिन्नऽपि व्यस्थित: द्रव्यार्थदेशात्स्वयमेव सन्त: सतोऽनन्यमया भवन्तीति । कायत्वमपि तेषामणुमहत्त्वात् । अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्ताऽमूर्ताश्च निर्विभागांशास्तै: महान्तोऽणुमहान्त: प्रदेशप्रचयात्मका: । इति सिद्धं तेषां कायत्वम् । अणुभ्यां महान्त इति व्युत्पत्त्या द्वणुकपुद्गलस्कन्धानामपि तथाविधत्वम् । अणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्तिरूपाभ्यामिति परमाणूनामेकप्रदेशात्मकत्वेऽपि तत्सिद्धि: । व्यक्त्यपेक्षया शक्त्यपेक्षया च प्रदेशप्रचयात्मकस्य हमत्त्वस्याभावात्कालाणूनामस्तित्वनियतत्वेऽप्यकायत्वमनेनैव साधितम् । अंत एव तेषामस्तिकायप्रकरणे सतामप्यनुपादानमिति ॥४॥ यहाँ (इस गाथा में) पाँच अस्तिकायों की विशेष-संज्ञा, सामान्य-विशेष अस्तित्व तथा कायत्य कहा है । वहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश -- यह उनकी विशेष-संज्ञाएं *अन्वर्थ जानना । वे उत्पाद-व्यय-धौव्य-मयी सामान्य-विशेष सत्ता में नियत - व्यवस्थित (निहित विद्यमान) होने से उनके सामान्य-विशेष अस्तित्व भी है ऐसा निश्चित करना चाहिये । वे अस्तित्व में नियत होने पर भी (जिस प्रकार बर्तन में रहने वाला घी बर्तन से अनन्य है उसीप्रकार) अस्तित्व से अनन्य नहीं है; क्योंकि ये सदैव अपने से निष्पन्न (अर्थात अपने से सत्) होने के कारण (अस्तित्व से) अनन्य-मय है (जिस प्रकार अग्नि उष्णता से अनन्य-मय है उसी प्रकार) । 'अस्तित्व से अनन्य-मय' होने पर भी उनका 'अस्तित्व में नियतपना' नय-प्रयोग से है । भगवान ने दो नय कहे हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । वहाँ कथन एक नय के आधीन नहीं होता किन्तु उन दोनो नयों के आधीन होता है । इसलिये ये पर्यायार्थिक कथन से जो अपने से कथंचित् भिन्न भी है ऐसे अस्तित्व में व्यवस्थित (निहित, स्थित) हैं और द्रव्यार्थिक कथन से स्वयमेव सत् (विद्यमान) होने के कारण अस्तित्व से अनन्य-मय है । उनके कायपना भी है क्योंकि वे अणुमहान हैं । यहाँ अणु अर्थात् प्रदेश -- मूर्त और अमूर्त निर्विभाग (छोटे से छोटे) अंश; 'उनके (बहु प्रदेशों) द्वारा महान हो' वह अणुमहान; अर्थात् प्रदेश-प्रचयात्मक (प्रदेशों के समूह-मय) हो वह अणुमहान है । इस प्रकार उन्हें (उपर्युक्त पाँच द्रव्यों को) कायत्य सिद्ध हुआ । (ऊपर जो अणुमहान की व्युत्पत्ति की उसमें अणुओं के अर्थात् प्रदेशों के लिये बहुवचन का उपयोग किया है और संस्कृत भाषा के नियमानुसार बहुवचन में द्विवचन का समावेश नहीं होता इसलिये अब व्युत्पत्ति में किन्चित् भाषा का परिवर्तन करके द्वि-अणुक स्पर्धकों को भी अणुमहान बतालाकर उनका कायत्व सिद्ध किया जाता है) 'दो अणुओं (दो प्रदेशों) द्वारा महान हो' वह अणुमहान - ऐसी व्युत्पत्ति से द्वि-अणुक पुद्गल-स्कन्धों को भी (अणु-महानपना होने से) कायत्व है । (अब, परमाणुओं को अणु-महानपना किस प्रकार है यह बतलाकर परमाणुओं को भी कायत्व सिद्ध किया जाता है;) व्यक्ति और शक्ति-रूप से 'अणु तथा महान' होने से (अर्थात् परमाणु व्यक्ति रूप से एक प्रदेशी तथा शक्ति रूप से अनेक प्रदेशी होने के कारण) परमाणुओं को भी, उनके एक प्रदेशात्मक-पना होने पर भी (अणु-महानपना सिद्ध होने से) कायत्य सिद्ध होता है । कालाणुओं को व्यक्ति-अपेक्षा से तथा शक्ति-अपेक्षा से प्रदेश-प्रचयात्मक महानपने का अभाव होने से, यद्यपि वे अस्तित्व में नियत है तथापि, उनके अकायत्व है -- ऐसा इसी से (इस कथन से ही) सिद्ध हुआ । इसलिये, यद्यपि वे सत् (विद्यमान) हैं तथापि, उन्हें अस्तिकाय के प्रकरण में नहीं लिया है ॥४॥ *अन्वर्थ=अर्थ का अनुसरण करती हुई; अर्थानुसार । (पाँच अस्तिकायों के नाम उनके अर्थानुसार हैं) |
जयसेनाचार्य :
अब पाँच अस्तिकायों के विशेष नाम, सामान्य-विशेष अस्तित्व और कायत्व का प्रतिपादन करते हैं -- [जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मं तहेव आयासं] जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पाँच अस्तिकायों के विशेष नाम अन्वर्थपरक (सार्थक) जानना चाहिए। [अस्थित्तम्हि य णियदा] वे अस्तित्व में, सामान्य-विशेष सत्ता में नियत हैं, स्थित हैं । तब फिर वे कुंडे में वेर के समान सत्ता से भिन्न होंगे? (ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं) ऐसा नहीं है, [अणण्णमइया] वे अनन्यमय, अपृथग्भूत हैं; जैसे घड़े में रूपादि, शरीर में हाथ आदि, स्तम्भ में सार । इस प्रकार का व्याख्यान होने से आधार-आधेयभाव होने पर भी उनका अस्तित्व अबिनाभूत, अभिन्न कहा गया है । इसीप्रकार अणु महान का विश्लेषण उन्होंने अणुओं से महान, दो अणुओं से महान तथा अणु और महान, अणु महान -- इसप्रकार तीन रूपों में किया है । अब कायत्व कहते हैं -- [अणुमहंता] अणु द्वारा ज्ञात होने से यहाँ अणु शब्द से प्रदेश लेना चाहिए, अणु अर्थात् प्रदेशों से महान; द्वयणुक, स्कन्ध की अपेक्षा दो अणुओं से महान है । इसप्रकार कायत्व कहा गया। एकप्रदेशी अणु के कायत्व कैसे है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं - स्कन्धों की कारण-भूत स्निग्ध-रूक्षत्व शक्ति का सद्भाव होने के कारण उपचार से उसे कायत्व है । कालाणुओं के बंध कारण-भूत स्निग्ध-रूक्षत्व शक्ति का अभाव होने के कारण उपचार से भी कायत्व नहीं हैं । प्रश्न – उनमें इस शक्ति का भी अभाव किस कारण है ? उत्तर – अर्मूर्तत्त्व होने के कारण उनमें उस शक्ति का अभाव हैं। पाँच अस्तिकायों के विशेष नाम अस्तित्व और कायत्व कहे गये । यहाँ गाथा-सूत्र में अनन्त ज्ञानादि रूप शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय है -- यह भावार्थ है ॥४॥ |