+ अस्तित्व और कायत्व किसप्रकार ? -
जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविएहिं ।
ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तेलोक्कं ॥5॥
येषामस्ति स्‍वभाव: गुणै: सह पर्ययैर्विविधै: ।
ते भवन्‍त्‍यस्तिकाया: निष्‍पन्‍नं यैस्‍त्रैलोक्‍यम् ॥५॥
अनन्यपन धारण करें जो विविध गुणपर्याय से
उन अस्तिकायों से अरे त्रैलोक यह निष्पन्न है ॥५॥
अन्वयार्थ : जिनका विविध गुणों और पर्यायों के साथ अस्तिस्वभाव है, वे अस्तिकाय हैं। उनसे तीन लोक निष्पन्न है।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अत्र पंचास्तिकायामस्तित्‍वसंभवप्रकार: कायत्‍वसंभवप्रकारश्‍चोक्त: । अस्ति ह्यस्तिकायानां गुणै: पर्यायैश्‍च विविधै: सह स्‍वभावो आत्‍मभावोऽनन्‍यत्‍वम् । वस्‍तुनो विशेषा हि व्‍यतिरेकिण: पर्याया गुणास्‍तु त एवान्‍वयिन: । तत एकेन पर्यायेण प्रलीयमानस्‍यान्‍येनोपजायमानस्‍यान्‍वयिना गुणेन ध्रौव्‍यं बिभ्रणस्‍यैकस्‍यापि वस्‍तुन: समुच्‍छेदोत्‍पादध्रौव्‍यलक्षणमस्तित्‍वमुपपद्यत एव । गुणपर्यायै: सह सर्वथान्‍यत्‍वे त्‍वन्‍यो विनश्‍यत्‍यन्‍य: प्रादुर्भवत्‍यन्‍यो ध्रुवत्‍वमालम्‍बत इति सर्वं विप्‍लवते । तत: साध्‍वस्तित्‍वसंभवप्रकारकथनम् ।
कायत्‍वसंभवप्रकारस्‍त्‍वयमुपदिश्‍यते । अवयविनो हि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशपदार्थास्‍तेषामवयवा अपि प्रदेशाख्‍या: परस्‍परव्‍यतिरेकित्‍वात्‍पर्याया: उच्‍यन्‍ते । तेषां तै: सहानन्‍यत्‍वे कायत्‍वसिद्धिरुपपत्तिमती । निरवयवस्‍यापि परमाणो: सावयवत्‍वशक्तिसद्भावात् कायत्‍वसिद्धिरनपवादा । न चैतदाशङ्कयम् पद्गलादन्‍येषाममूर्तत्‍वादविभाज्‍यानां सावयवत्‍वकल्‍पनमन्‍याप्‍यम् । दृश्‍यत एवाविभाज्‍येऽपि विहायसीदं घटाकाशमिदमघटाकाशमिति विभागकल्‍पनम् । यदि तत्र विभागो न कल्‍पेत तदा यदेव घटाकाशं तदेवाघटाकाशं स्‍यात् । न च तदिष्‍टम् । तत: कालाणुभ्‍योऽन्‍यत्र सर्वेषां कायत्‍वाख्‍ं सावयवत्‍वमवसेयम् ।
त्रैलोक्‍यरूपेण निष्‍पन्नत्‍वमपि तेषामस्तिकायत्‍वसाधनपरमुपन्‍यस्‍तम् । तथा च—त्रयाणामूर्ध्‍वाधोमध्‍यलोकानामुत्‍पादव्‍ययध्रौव्‍यवन्‍तस्‍तद्विशेषात्‍मका भावा भवन्‍तेस्‍तेषां मूलपदार्थानां गुणपर्याययोगपूर्वकर्मस्तित्‍वं साधयन्ति । अनुमीयते च धर्माधर्माकाशानां प्रत्‍येकमूर्ध्‍वाधाममध्‍यलोकविभागरूपेण परिणमनात्‍कायत्‍वाख्‍यं सावयवत्‍वम् । जीवानामपि प्रत्‍येकमूर्ध्‍वामध्‍यलोकविभागरूपेण परिणमनाल्लोकपूरणावस्‍थाव्‍यवस्थितव्‍यक्तेस्‍सदा सन्निहितशक्तेस्‍तदनुमीयत एव । पुद्गलानामप्‍यमूर्ध्‍वाधोमध्‍यलोकविभागरूपपरिणतमहास्‍कन्‍धत्‍वप्राप्तिव्‍यक्तिशक्तियोगित्‍वात्तथाविधा सावयवत्‍वसिद्धिरस्‍त्‍येवेति ॥५॥



यहाँ, पाँच अस्तिकायों को अस्तित्व किस प्रकार है और कायत्व किस प्रकार है वह कहा है ।

वास्तव में अस्तिकायों को विविध गुणों और पर्यायों के साथ स्वपना (अपनापन / अनन्यपना) है । वस्तु के व्यतिरेकी विशेष पर्यायें हैं और अन्वयी विशेष गुण हैं । इसलिये एक पर्याय से प्रलय को प्राप्त होनेवाली, अन्य पर्याय से उत्पन्न होनेवाली और अन्वयी गुण से ध्रुव रहनेवाली एक ही वस्तु को व्यय-उत्पाद-धौव्यलक्षण अस्तित्व घटित होता ही है । और यदि गुणों तथा पर्यायों के साथ (वस्तु को) सर्वथा अन्यत्व हो तब तो अन्य कोई विनाश को प्राप्त होगा, अन्य कोई प्रादुर्भाव को (उत्पाद को) प्राप्त होगा और अन्य कोई ध्रुव रहेगा -- इसप्रकार सब विप्लव प्राप्त हो जायेगा । इसलिये (पाँच अस्तिकायों को) अस्तित्व किस प्रकार है तत्सम्बन्धी यह (उपर्युक्त) कथन सत्य-योग्य-न्याययुक्त है ।

अब, (उन्हें) कायत्व किस प्रकार है उसका उपदेश किया जाता है :- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और आकाश यह पदार्थ अवयवी हैं । प्रदेश नाम के उनके जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होने से पर्यायें कहलाती हैं । उनके साथ उन (पाँच) पदार्थों का अनन्यपना होने से कायत्व-सिद्धि घटित होती है । परमाणु (व्यक्ति-अपेक्षा से) निरवयव होनेपर भी उनको सावयवपने की शक्ति का सद्भाव होने से कायत्व-सिद्धि निरपवाद है । वहाँ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है कि पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पदार्थ अमूर्तपने के कारण अविभाज्य होने से उनके सावयवपने की कल्पना न्याय विरुद्ध (अनुचित) है । आकाश अविभाज्य होनेपर भी उसमें 'यह घटाकाश है, यह अघटाकाश (पटाकाश) है' ऐसी विभाग-कल्पना दृष्टिगोचर होती ही है । यदि वहाँ (कथंचित्‌) विभाग की कल्पना न की जाये तो जो घटाकाश है वही (सर्वथा) अघटाकाश हो जायेगा; और वह तो इष्ट (मान्य / साध्य) नहीं है । इसलिये कालाणुओं के अतिरिक्त अन्य सर्व में कायत्व नाम का सावयवपना निश्चित करना चाहिये ।

उनकी जो तीन लोकरुप निष्पन्नता (रचना) कही वह भी उनका अस्ति-कायपना सिद्ध करने के साधन रूप से कही है । वह इस प्रकार है --

  • ऊर्ध्व-अधो-मध्य तीन लोक के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाले भाव, कि जो तीन लोक के विशेष-स्वरूप हैं, भवते हुए (परिणामित होते हुए) अपने मूल-पदार्थों का गुण-पर्याय युक्त अस्तित्व सिद्ध करते हैं । (तीन लोक के भाव सदैव कथन्चित सदृश रहते हैं और कथंचित बदलते रहते हैं वे ऐसा सिद्ध करते हैं की तीन-लोक के मूल-पदार्थ कथंचित सदृश रहते है और कथंचित परिवर्तित होते रहते हैं अर्थात उन मूल पदार्थों का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाला अथवा गुण-पर्याय वाला अस्तित्व है)

  • पुनश्च,
    • धर्म, अधर्म और आकाश यह प्रत्येक पदार्थ ऊर्ध्व-अधो-मध्य ऐसे लोक के (तीन) विभागरूप से परिणमित होने से उनके कायत्व नाम का सावयव-पना है ऐसा अनुमान किया जा सकता है ।
    • प्रत्येक जीव के भी ऊर्ध्व-अधो-मध्य ऐसे तीन लोक के विभाग-रूप से परिणमित लोकपूरण अवस्था-रूप व्यक्ति की शक्ति का सदैव सद्भाव होने से जीवों को भी कायत्व नाम का सावयव-पना है ऐसा अनुमान किया ही जा सकता है ।
    • पुद्गल भी ऊर्ध्व-अधो-मध्य ऐसे लोक के (तीन) विभागरूप से परिणत महास्कंधपने की प्राप्ति की व्यक्तिवाले अथवा शक्तिवाले होने से उन्हें भी वैसी (कायत्व नाम की) सावयव-पाने की सिद्धि है ही ॥५॥


व्यतिरेक : भेद; एक का दुसरेरूप नहीं होना; 'यह वह नहीं है' ऐसे ज्ञान के निमित्तभूत भिन्नरूपता ।
अन्वय : एकरूपता; सदृशता; 'यह वही है' ऐसे ज्ञान के कारणभूत एकरूपता ।
अस्तित्व का लक्षण अथवा स्वरूप व्यय-उत्पाद-ध्रौव्य है ।
विप्लव : अंधाधन्धी: उथलपुथल: गड़बड़ी: विरोध।
अवयवी : अवयववाला; अंशवाला; अंशी; जिनके अवयव (एक से अधिक प्रदेश हों ऐसे)
पर्याय का लक्षण परस्पर व्यतिरेक है। वह लक्षण प्रदेशों में भी व्याप्त है, क्योंकि एक प्रदेश दूसरे प्रदेशरूप न होने से प्रदेशों में परस्पर व्यतिरेक है; इसलिये प्रदेश भी पर्याय कहलाती है।
निरवयव : अवयव रहित; अंश रहित ; निरंश; एक से अधिक प्रदेश रहित।
निरपवाद : अपवाद रहित। (पाँच अस्तिकायों को कायपना होने में एक भी अपवाद नहीं है, क्‍योंकि उपचार से परमाणु को भी शक्ति-अपेक्षा से अवयव / प्रदेश हैं।)
अविभाज्य : जिनके विभाग न किये जा सकें ऐसे।
जयसेनाचार्य :

अब पूर्वोक्त अस्तित्व और कायत्व किसप्रकार से सम्भव इसका प्रकृष्ट रूप में ज्ञान कराते हैं --

[जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविएहिं ते होंति अत्थि] जिन पंचास्तिकायों के अस्तित्व है, वह कौन है ? स्वभाव, सत्ता, अस्तित्व, तन्मयत्व, स्वरूप है। यह किनके साथ है? यह गुण-पर्यायों के साथ है। वे कैसे हैं? विभिन्न /अनेक प्रकार के हैं, इसके द्वारा पाँचों का अस्तित्व कहा गया । वार्तिक में भी वैसा ही कहा है । गुण अन्वयी और पर्यायें व्यतिरेकी होती हैं, अथवा गुण सहभू/सहभावी/सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं । वे द्रव्य से संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि भेद की अपेक्षा भिन्न हैं तथा प्रदेश रूप या सत्ता रूप से अभिन्न हैं । वे और कैसे हैं ? विचित्र/अनेक प्रकार के हैं । किस रूप में अनेक प्रकार के हैं? अपने स्वभाव-विभाव रूप से या अर्थ-व्यंजन पर्याय रूप से अनेक प्रकार के हैं ।

जीव सम्बंधी ये सब कहते हैं -- केवल-ज्ञानादि स्वभाव-गुण, मति-ज्ञानादि विभाव-गुण हैं; सिद्धरूप स्वभाव-पर्याय हैं, नर-नारकादि रूप विभाव-पर्यायें हैं । ये ही पुद्गल सम्बंधी कहते हैं -- शुद्ध परमाणु के वर्णादि स्वभाव-गुण हैं, द्वयणुकादि स्कन्धों के वर्णादि विभाव-गुण हैं; शुद्ध परमाणु रूप से अवस्थान स्वभाव द्रव्य-पर्याय है, वर्णादि से अन्य वर्णादि रूप परिणमन स्वभाव गुण पर्याय है। द्वयणुकादि स्कंध रूप से परिणमन विभाव द्रव्य-पर्यायें हैं, उन द्वयणुकादि स्कन्धों में ही अन्य वर्णादि रूप परिणमन विभाव गुण-पर्यायें हैं । ये जीव-पुद्गल के विशेष गुण कहे। अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्यगुण सभी द्रव्यों में साधारण हैं। धर्मादि के विशेष गुण-पर्याय आगे यथा-स्थान कहे गए है । इस-प्रकार के गुण-पर्यायों के साथ जिन पाँच अस्तिकायों का अस्तित्व है, वे 'अस्ति' हैं ।

अब कायत्व कहते हैं -- [काय] काय के समान काय, बहुप्रदेशों का प्रचय (समूह) होने के कारण शरीर के समान। उन पंचास्तिकायों से क्या किया गया है? [णिप्पण्णं जेहिं] उन पंचास्तिकायों से निष्पन्न उत्पन्न है । उनसे क्या निष्पन्न है ? [तेलोक्कं] तीन लोक निष्पन्न है ।

गाथा के इस चतुर्थ पाद के द्वारा ही अस्तित्व और कायत्व कहे गये हैं। इसके द्वारा वे कैसें कहे गए हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो (तो कहते हैं) -तीन लोक में जो कोई उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवान पदार्थ हैं; वे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप अस्तित्व कहलाते हैं। वे अस्तित्व कैसे कहलाते हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो (तो कहते हैं)- `उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त सत है'-ऐसा वचन होने से (तत्त्वार्थसूत्र, पंचमअध्याय, सूत्र) ऊर्ध्व-अधो-मध्य भाग रूप से तीन लोक के आकार परिणत जीव, पुद्गल आदि के सावयवता, सांशकता, सप्रदेशता होने से कालद्रव्य को छोडकर (शेष सभी के ) कायत्व है। इसप्रकार मात्र पूर्वोक्त प्रकार से ही नहीं; इसप्रकार से भी अस्तित्व-कायत्व जानना चाहिए। उनमें से शुद्ध जीवास्तिकाय की जो अनन्त ज्ञानादि गुण रूप सत्ता और सिद्ध पर्याय रूप सत्ता है तथा शुद्ध असंख्यात प्रदेश रूप कायत्व है वह ही उपादेय है -- यह भावार्थ है ॥५॥

इसप्रकार दूसरे स्थल में पंचास्तिकाय का संक्षेप व्याख्यान परक तीन गाथाओं पर्यन्त प्रकरण पूर्ण हुआ ।