ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[अणुगुरुदेहपमाणो] निश्चयनय से अपने देह से भिन्न तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों की राशि से अभिन्न, ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के अभाव से तथा देह की ममता के मूलभूत आहार, भय, मैथुन, परिग्रह रूप संज्ञा आदि; समस्त राग आदि विभावों में आसक्ति के होने से जीव ने जो शरीर नामकर्म उपार्जन किया उसका उदय होने पर अपने छोटे तथा बड़े देह के बराबर होता है । प्रश्न - शरीर प्रमाण वाला कौन है? उत्तर - [चेदा] चेतन अर्थात् जीव है । प्रश्न - किस कारण से? उत्तर - [उवसंहारप्पसप्पदो] संकोच तथा विस्तार स्वभाव से । यानि-शरीर नामकर्म से उत्पन्न हुआ विस्तार तथा संकोच रूप जीव के धर्म हैं; उनसे यह जीव अपने देह के प्रमाण होता है । प्रश्न - यहाँ दृष्टान्त क्या है? उत्तर - जैसे दीपक किसी बड़े पात्र से ढक दिया जाता है तो दीपक उस पात्र के भीतर सबको प्रकाशित करता है और यदि छोटे पात्र में रख दिया जाता है तो उस पात्र के भीतर प्रकाशित करता है । प्रश्न - फिर अन्य किस कारण से यह जीव देहप्रमाण है? उत्तर - [असमुहदो] समुद्घात के न होने से । वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली नामक सात समुद्घातों के न होने से जीव शरीर के बराबर होता है । (समुद्घात की दशा में तो जीव देह से बाहर भी रहता है किन्तु समुद्घात के बिना देहप्रमाण ही रहता है)। सात समुद्घातों का लक्षण इस प्रकार कहा है- १. वेदना, २. कषाय, ३. विक्रिया, ४. मारणान्तिक,५. तैजस, ६. आहारक और ७. केवली-ये सात समुद्घात हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है -- अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेश देह से बाहर निकलकर उत्तर देह के प्रति जाते हैं उसको समुद्घात कहते हैं ।
और भी अणुमात्र शरीर आत्मा है, यहाँ अणु शब्द से उत्सेधघनांगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण जो लब्धि-अपर्याप्तक सूक्ष्म-निगोद शरीर है, उस शरीर का ग्रहण करना चाहिए किन्तु पुद्गल परमाणु का ग्रहण न करना चाहिए एवं गुरु शरीर शब्द से एक हजार योजन प्रमाण जो महामत्स्य का शरीर है, उसको ग्रहण करना चाहिए और मध्यम अवगाहना से मध्यम शरीरों का ग्रहण है । तात्पर्य यह है-जीव देह के साथ ममत्व के निमित्त से देह को ग्रहण कर संसार में भ्रमण करता है, इसलिए देह आदि के ममत्व को छोड़कर निर्मोह अपने शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिए । इस प्रकार जीव स्वदेह-मात्र है इस व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ॥१०॥ अब तीन गाथाओं द्वारा नयविभाग पूर्वक संसारी जीव का स्वरूप और उसके अन्त में शुद्ध जीव का स्वरूप कहते हैं -- [अणुगुरुदेहपमाणो] निश्चयनय से अपने देह से भिन्न तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों की राशि से अभिन्न, ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के अभाव से तथा देह की ममता के मूलभूत आहार, भय, मैथुन, परिग्रह रूप संज्ञा आदि; समस्त राग आदि विभावों में आसक्ति के होने से जीव ने जो शरीर नामकर्म उपार्जन किया उसका उदय होने पर अपने छोटे तथा बड़े देह के बराबर होता है । प्रश्न – शरीर प्रमाण वाला कौन है? उत्तर – [चेदा] चेतन अर्थात् जीव है । प्रश्न – किस कारण से? उत्तर – [उवसंहारप्पसप्पदो] संकोच तथा विस्तार स्वभाव से । यानि-शरीर नामकर्म से उत्पन्न हुआ विस्तार तथा संकोच रूप जीव के धर्म हैं; उनसे यह जीव अपने देह के प्रमाण होता है । प्रश्न – यहाँ दृष्टान्त क्या है? उत्तर – जैसे दीपक किसी बड़े पात्र से ढक दिया जाता है तो दीपक उस पात्र के भीतर सबको प्रकाशित करता है और यदि छोटे पात्र में रख दिया जाता है तो उस पात्र के भीतर प्रकाशित करता है । प्रश्न – फिर अन्य किस कारण से यह जीव देहप्रमाण है? उत्तर – [असमुहदो] समुद्घात के न होने से । वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली नामक सात समुद्घातों के न होने से जीव शरीर के बराबर होता है । (समुद्घात की दशा में तो जीव देह से बाहर भी रहता है किन्तु समुद्घात के बिना देहप्रमाण ही रहता है)। सात समुद्घातों का लक्षण इस प्रकार कहा है- १. वेदना, २. कषाय, ३. विक्रिया, ४. मारणान्तिक,५. तैजस, ६. आहारक और ७. केवली-ये सात समुद्घात हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है -- अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेश देह से बाहर निकलकर उत्तर देह के प्रति जाते हैं उसको समुद्घात कहते हैं ।
और भी अणुमात्र शरीर आत्मा है, यहाँ अणु शब्द से उत्सेधघनांगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण जो लब्धि-अपर्याप्तक सूक्ष्म-निगोद शरीर है, उस शरीर का ग्रहण करना चाहिए किन्तु पुद्गल परमाणु का ग्रहण न करना चाहिए एवं गुरु शरीर शब्द से एक हजार योजन प्रमाण जो महामत्स्य का शरीर है, उसको ग्रहण करना चाहिए और मध्यम अवगाहना से मध्यम शरीरों का ग्रहण है । तात्पर्य यह है-जीव देह के साथ ममत्व के निमित्त से देह को ग्रहण कर संसार में भ्रमण करता है, इसलिए देह आदि के ममत्व को छोड़कर निर्मोह अपने शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिए । इस प्रकार जीव स्वदेह-मात्र है इस व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ॥१०॥ अब तीन गाथाओं द्वारा नयविभाग पूर्वक संसारी जीव का स्वरूप और उसके अन्त में शुद्ध जीव का स्वरूप कहते हैं -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
वेदना-कषाय-विक्रिया आदि के निमित्त से मूल शरीर को बिना छोड़े आत्मा के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। इसके अतिरिक्त यह जीव हमेशा अपने शरीर प्रमाण ही रहता है । प्रश्न – जीव छोटे-बड़े शरीर के बराबर प्रमाण को धारण करने वाला कैसे है? उत्तर – जीव में संकोच-विस्तार गुण स्वभाव से पाया जाता है। इसलिए व्यवहारनय की अपेक्षा से वह अपने द्वारा कर्मोदय से प्राप्त शरीर के आकार प्रमाण को धारण करता है। प्रश्न – इस बात को किस उदाहरण से समझा जा सकता है? उत्तर – जिस प्रकार एक दीपक को यदि छोटे कमरे में रखा जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा और यदि वही दीपक किसी बड़े कमरे में रख दिया जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा। ठीक उसी प्रकार एक जीव जब चींटी के रूप में जन्म लेता है तो वह उसके शरीर में समा जाता है और जब वही जीव हाथी के रूप में जन्म लेता है तो उसके शरीर में समा जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जीव छोटे शरीर में पहुँचने पर उसके बराबर और बड़े शरीर में पहुँचने पर उस बड़े शरीर के बराबर हो जाता है। इसी दृष्टि से जीव को व्यवहारनय से अणुगुरु-देह प्रमाण वाला बतलाया है। समुद्घात में ऐसा नहीं होता है। प्रश्न – समुद्घात के समय ऐसा क्यों नहीं होता? उत्तर – इसका कारण यह है कि समुद्घात के समय जीव शरीर के बाहर फैल जाता है। प्रश्न – जीव असंख्यातप्रदेशी किस नय की अपेक्षा से है? उत्तर – जीव निश्चयनय की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी होता है। प्रश्न – समुद्घात किसे कहते हैं? उत्तर – मूल शरीर से संबंध छोड़े बिना आत्मप्रदेशों का तैजस व कार्मण शरीर के साथ बाहर फैल जाना समुद्घात कहलाता है। प्रश्न – समुद्घात कितने प्रकार का होता है? उत्तर – समुद्घात सात प्रकार का होता है-१-वेदना समुद्घात, २-कषायसमुद्घात, ३-विक्रिया-समुद्घात, ४-मारणांतिक समुद्घात, ५-तैजस समुद्घात, ६-आहारक समुद्घात और ७-केवली समुद्घात। प्रश्न – वेदना समुद्घात किसे कहते हैं ? उत्तर – तीव्र वेदना (पीड़ा) के अनुभव से मूल शरीर का त्याग न करके आत्मा के प्रदेशों का शरीर से बाहर जाना, वेदना समुद्घात है। प्रश्न – कषाय समुद्घात किसे कहते हैं ? उत्तर – तीव्र क्रोधादिक कषायों के उदय से मूल अर्थात् धारण किये हुए शरीर को न छोड़कर जो आत्मा के प्रदेश दूसरे को मारने के लिए शरीर के बाहर जाते हैं, उसको कषाय समुद्घात कहते हैं। प्रश्न – विक्रिया समुद्घात किसे कहते हैं ? उत्तर – किसी प्रकार की विक्रिया (कामादिजनित विकार) उत्पन्न करने या कराने के अर्थ मूलशरीर को न त्यागकर जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है, उसको विक्रिया समुद्घात कहते हैं, अथवा देवों के मूल शरीर को न छोड़कर अन्यत्र गमनागमन होता है, वह वैक्रियिक समुद्घात है। प्रश्न – मारणान्तिक समुद्घात किसे कहते हैं ? उत्तर – मरणान्त समय में मूल शरीर को न त्याग करके, जहाँ कहीं इस आत्मा ने आयु बांधा है (अग्रिम जन्मस्थान) का स्पर्श करने के लिए जो प्रदेशों का शरीर से बाह्य गमन करना मारणान्तिक समुद्धात है। प्रश्न – तैजस समुद्घात किसे कहते हैं ? उत्तर – संसार को रोग या दुर्भिक्ष आदि से दु:खी देखकर संयमी महामुनि के दया उत्पन्न होने पर उनकी तपस्या के प्रभाव से मूल शरीर को न छोड़कर उनके दाहिने कंधे से पुरुष के आकार का सफेद पुतला निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर उस रोगादि को दूर कर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जाता है, वह शुभ तैजस समुद्घात कहलाता है। अनिष्टकारक कारण देखकर संयमी महामुनि के मन में क्रोध होने पर उनके बाँये कंधे से पुरुषाकार और सिंदूर के रंग का पुतला निकलकर जिस पर क्रोध हो उसे बांई प्रदक्षिणा से भस्म कर उस मुनि को भी भस्म कर देता है, वह अशुभ तैजस समुद्घात है। प्रश्न – आहारक समुद्घात किसे कहते हैं ? उत्तर – छठवें गुणस्थान के किसी ऋद्धिधारी मुनि के तत्व में शंका होने पर तपोबल से मूल शरीर को न छोड़कर मस्तक से एक हाथ बराबर पुरुषाकार, सफेद स्फटिक के समान पुतला निकलकर केवली, श्रुतकेवली के चरण मूल में जाकर अपनी श्का दूर कर अन्तर्मुहूर्त में अपने स्थान में प्रवेश करता है, उसे आहारक समुद्घात कहते हैं। प्रश्न – केवली समुद्घात किसे कहते हैं ? उत्तर – केवलज्ञान के होने पर मूल शरीर को न छोड़कर दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रिया द्वारा केवली की आत्मा के प्रदेशों का फैलना, केवली समुद्घात है। |