ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[दव्वपरिवट्टरूवो जो] जो द्रव्य परिवर्तन रूप है [सो कालो हवेइ ववहारो] वह व्यवहार रूप काल होता है । और वह कैसा है? [परिणामादीलक्खो] परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व से जाना जाता है; इसलिए परिणामादि से लक्ष्य है । अब निश्चयकाल को कहते हैं -- [वट्टणलक्खो य परमट्ठो] जो वर्तनालक्षण वाला है वह परमार्थ (निश्चय) काल है । विशेष -- जीव तथा पुद्गल का परिवर्तनरूप जो नूतन तथा जीर्ण पर्याय है, उस पर्याय की जो समय, घड़ी आदि रूप स्थिति है; वह स्थिति है स्वरूप जिसका, वह द्रव्यपर्याय रूप व्यवहारकाल है । ऐसा ही संस्कृत-प्राभृत में भी कहा है-जो स्थिति है, वह कालसंज्ञक है । सारांश यह है -- द्रव्य की पर्याय से सम्बन्ध रखने वाली जो यह समय, घड़ी आदि रूप स्थिति है; वह स्थिति ही व्यवहारकाल है; वह पर्याय व्यवहारकाल नहीं है । और क्योंकि पर्यायसम्बन्धिनी स्थिति व्यवहारकाल' है इसी कारण जीव व पुद्गल के परिणाम रूप पर्याय से तथा देशान्तर में आने-जाने रूप अथवा गाय दुहनी व रसोई करना आदि हलन-चलन रूप क्रिया से तथा दूर या समीप देश में चलन रूप कालकृत परत्व तथा अपरत्व से यह काल जाना जाता है, इसीलिए वह व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व लक्षण वाला कहा जाता है । अब द्रव्य रूप निश्चयकाल का कथन करते हैं-अपने-अपने उपादान रूप कारण से स्वयं परिणमन करते हुए पदार्थों को, जैसे कुम्भकार के चाक के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है, अथवा शीतकाल में छात्रों को पढ़ने के लिए अग्नि सहकारी है, उसी प्रकार जो पदार्थों के परिणमन में सहकारिता है, उसको वर्तना कहते हैं । वह वर्तना ही है लक्षण जिसका, वह वर्तना लक्षण वाला कालाण द्रव्य रूप निश्चयकाल है । इस तरह व्यवहारकाल तथा निश्चयकाल का स्वरूप जानना चाहिए । यहाँ कोई कहता है कि समय रूप ही निश्चयकाल है; उस समय से भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्य रूप निश्चयकाल नहीं है, क्योंकि वह देखने में नहीं आता । इसका उत्तर देते हैं कि समय तो काल की ही पर्याय है । यदि यह पूछो कि समयकाल की पर्याय कैसे है? तो उत्तर यह है, पर्याय का लक्षण उत्पन्न व नाश होना है । 'समय' भी उत्पन्न व नष्ट होता है, इसलिए पर्याय है । पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती; उस समयरूप पर्याय काल (व्यवहारकाल) का उपादानकारणभूत द्रव्य भी कालरूप ही होना चाहिए क्योंकि जैसे ईंधन, अग्नि आदि सहकारी कारण से उत्पन्न भात (पके चावल) का उपादान कारण चावल ही होता है; अथवा कुम्भकार, चाक, चीवर आदि बहिरंग निमित्त कारणों से उत्पन्न जो मिट्टी की घट पर्याय है उसका उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड ही है; अथवा नर, नारक आदि जो जीव की पर्याय हैं उनका उपादान कारण जीव है; इसी तरह समय, घड़ी आदि काल का भी उपादानकारण काल ही होना चाहिए । यह नियम भी इसलिए है कि अपने उपादानकारण के समान ही कार्य होता है, ऐसा वचन है । कदाचित् ऐसा कहो कि समय, घड़ी आदि काल पर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किन्तु समय रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में मंदगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप कालपर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन अर्थात् पलक का गिरना उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घड़ी रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्रीरूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिम्ब उपादान कारण है । ऐसा नहीं है, जिस तरह चावलरूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद, काला आदि वर्ण; अच्छी या बुरी गन्ध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि रस; इत्यादि विशेष गुण दिखाई पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गल परमाणु, नेत्र-पलक विघटन, जलकटोरा, पुरुषव्यापार आदि तथा सूर्य का बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय हैं, उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि जो कालपर्याय हैं उनके भी काला आदि गुण मिलने चाहिए; परन्तु समय, घड़ी आदि में ये गुण नहीं दिखाई पड़ते, क्योंकि उपादान कारण के समान कार्य होता है, ऐसा वचन है । बहुत कहने से क्या लाभ! जो आदि तथा अन्त से रहित अमूर्त है, नित्य है, समय आदि का उपादान कारणभूत है तो भी समय आदि भेदों से रहित है और कालाणु द्रव्यरूप है, वह निश्चयकाल है और जो आदि तथा अन्त से सहित है; समय, घड़ी, पहर आदि व्यवहार के विकल्पों से युक्त है, वह उसी द्रव्यकाल का पर्याय रूप व्यवहारकाल है । सारांश यह है कि यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनन्त सुख का भाजन होता है, तो भी विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव का धारक जो निज परमात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और सम्पूर्ण बाह्य द्रव्यों की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण वाला तपश्चरणरूप जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप चार प्रकार की निश्चय आराधना है, वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जाननी चाहिए; उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए वह कालद्रव्य हेय है ॥२१॥ अब निश्चयकाल के रहने का क्षेत्र तथा काल-द्रव्य की संख्या का प्रतिपादन करते हैं -- [दव्वपरिवट्टरूवो जो] जो द्रव्य परिवर्तन रूप है [सो कालो हवेइ ववहारो] वह व्यवहार रूप काल होता है । और वह कैसा है? [परिणामादीलक्खो] परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व से जाना जाता है; इसलिए परिणामादि से लक्ष्य है । अब निश्चयकाल को कहते हैं -- [वट्टणलक्खो य परमट्ठो] जो वर्तनालक्षण वाला है वह परमार्थ (निश्चय) काल है । विशेष -- जीव तथा पुद्गल का परिवर्तनरूप जो नूतन तथा जीर्ण पर्याय है, उस पर्याय की जो समय, घड़ी आदि रूप स्थिति है; वह स्थिति है स्वरूप जिसका, वह द्रव्यपर्याय रूप व्यवहारकाल है । ऐसा ही संस्कृत-प्राभृत में भी कहा है-जो स्थिति है, वह कालसंज्ञक है । सारांश यह है -- द्रव्य की पर्याय से सम्बन्ध रखने वाली जो यह समय, घड़ी आदि रूप स्थिति है; वह स्थिति ही व्यवहारकाल है; वह पर्याय व्यवहारकाल नहीं है । और क्योंकि पर्यायसम्बन्धिनी स्थिति व्यवहारकाल' है इसी कारण जीव व पुद्गल के परिणाम रूप पर्याय से तथा देशान्तर में आने-जाने रूप अथवा गाय दुहनी व रसोई करना आदि हलन-चलन रूप क्रिया से तथा दूर या समीप देश में चलन रूप कालकृत परत्व तथा अपरत्व से यह काल जाना जाता है, इसीलिए वह व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व लक्षण वाला कहा जाता है । अब द्रव्य रूप निश्चयकाल का कथन करते हैं- अपने-अपने उपादान रूप कारण से स्वयं परिणमन करते हुए पदार्थों को, जैसे कुम्भकार के चाक के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है, अथवा शीतकाल में छात्रों को पढ़ने के लिए अग्नि सहकारी है, उसी प्रकार जो पदार्थों के परिणमन में सहकारिता है, उसको वर्तना कहते हैं । वह वर्तना ही है लक्षण जिसका, वह वर्तना लक्षण वाला कालाणु द्रव्य रूप निश्चयकाल है । इस तरह व्यवहारकाल तथा निश्चयकाल का स्वरूप जानना चाहिए । यहाँ कोई कहता है कि समय रूप ही निश्चयकाल है; उस समय से भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्य रूप निश्चयकाल नहीं है, क्योंकि वह देखने में नहीं आता । इसका उत्तर देते हैं कि समय तो काल की ही पर्याय है । यदि यह पूछो कि समय काल की पर्याय कैसे है? तो उत्तर यह है, पर्याय का लक्षण उत्पन्न व नाश होना है । 'समय' भी उत्पन्न व नष्ट होता है, इसलिए पर्याय है । पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती; उस समयरूप पर्याय काल (व्यवहारकाल) का उपादानकारणभूत द्रव्य भी कालरूप ही होना चाहिए क्योंकि जैसे ईंधन, अग्नि आदि सहकारी कारण से उत्पन्न भात (पके चावल) का उपादान कारण चावल ही होता है; अथवा कुम्भकार, चाक, चीवर आदि बहिरंग निमित्त कारणों से उत्पन्न जो मिट्टी की घट पर्याय है उसका उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड ही है; अथवा नर, नारक आदि जो जीव की पर्याय हैं उनका उपादान कारण जीव है; इसी तरह समय, घड़ी आदि काल का भी उपादानकारण काल ही होना चाहिए । यह नियम भी इसलिए है कि अपने उपादानकारण के समान ही कार्य होता है, ऐसा वचन है । कदाचित् ऐसा कहो कि समय, घड़ी आदि काल पर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किन्तु समय रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में मंदगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप कालपर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन अर्थात् पलक का गिरना उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घड़ी रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्रीरूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिम्ब उपादान कारण है । ऐसा नहीं है, जिस तरह चावलरूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद, काला आदि वर्ण; अच्छी या बुरी गन्ध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि रस; इत्यादि विशेष गुण दिखाई पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गल परमाणु, नेत्र-पलक विघटन, जलकटोरा, पुरुषव्यापार आदि तथा सूर्य का बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय हैं, उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि जो कालपर्याय हैं उनके भी काला आदि गुण मिलने चाहिए; परन्तु समय, घड़ी आदि में ये गुण नहीं दिखाई पड़ते, क्योंकि उपादान कारण के समान कार्य होता है, ऐसा वचन है । बहुत कहने से क्या लाभ! जो आदि तथा अन्त से रहित अमूर्त है, नित्य है, समय आदि का उपादान कारणभूत है तो भी समय आदि भेदों से रहित है और कालाणु द्रव्यरूप है, वह निश्चयकाल है और जो आदि तथा अन्त से सहित है; समय, घड़ी, पहर आदि व्यवहार के विकल्पों से युक्त है, वह उसी द्रव्यकाल का पर्याय रूप व्यवहारकाल है । सारांश यह है कि यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनन्त सुख का भाजन होता है, तो भी विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव का धारक जो निज परमात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और सम्पूर्ण बाह्य द्रव्यों की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण वाला तपश्चरणरूप जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप चार प्रकार की निश्चय आराधना है, वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जाननी चाहिए; उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए वह कालद्रव्य हेय है ॥२१॥ अब निश्चयकाल के रहने का क्षेत्र तथा काल-द्रव्य की संख्या का प्रतिपादन करते हैं -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
जीव-पुद्गल आदि के परिवर्तन में अर्थात् नवीन या जीर्ण अवस्थाओं के होने में काल द्रव्य सहायक होता है। इनमें से घड़ी, घण्टा, दिन-रात आदि व्यवहार है। वर्तनारूप-सूक्ष्म परिणमनरूप निश्चयकाल है। प्रश्न – परिणाम किसे कहते हैं? उत्तर – समस्त द्रव्यों के स्थूल परिवर्तन को परिणाम-परिणमन कहते हैं। प्रश्न – काल-द्रव्य अन्य द्रव्यों के परिणमन में कौन सा निमित्त है? उत्तर – उदासीन निमित्त है। प्रश्न – वर्तना किसे कहते हैं? उत्तर – समस्त द्रव्यों में सूक्ष्म-परिवर्तन को वर्तना कहते हैं। जैसे-कपड़ा, मकान, वस्त्रादि में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, मनुष्य, स्त्री-पुरुष आदि के वर्षों की गणना यह काल द्रव्य का ही परिवर्तन समझना चाहिए। प्रश्न – क्रिया किसे कहते हैं ? उत्तर – देशान्तर में संचलनरूप या परिस्पन्दन (हलन-चलन) आदि को क्रिया कहते हैं। प्रश्न – परत्वापरत्व किसे कहते हैं ? उत्तर – कालकृत छोटे-बड़े के व्यवहार को परत्वापरत्व कहते हैं-जैसे यह इससे दो महीना छोटा है और यह इससे दो महीना बड़ा है आदि व्यवहार परत्वापरत्व है। प्रश्न – निश्चयकाल किसे कहते हैं ? उत्तर – वर्तना को ही निश्चयकाल कहते हैं। प्रश्न – व्यवहारकाल किसे कहते हैं ? उत्तर – क्रिया परिणाम, परत्वापरत्व आदि को व्यवहार काल कहते हैं तथा समय, आवलि, घटिका आदि व्यवहार भी व्यवहारकाल है। प्रश्न – काल के अस्तित्व को क्यों स्वीकार किया जाता है ? उत्तर – काल के अभाव में किसी को ज्येष्ठ, किसी को कनिष्ठ, नया, पुराना किस आधार पर कह सकते हैं, अत: लोकव्यवहार में काल को स्वीकार करना आवश्यक है। सारा विश्व, कालसत्ता पर ही क्षण-क्षण में परिवर्तित होता रहता है। वस्तुएँ देखते-देखते नवीन से पुरातन और जीर्ण-शीर्ण हो जाती हैं। सुगन्ध, दुर्गन्ध में परिवर्तित हो जाती है, यह काल का ही प्रभाव है। |