+ काल द्रव्य की संख्या -
लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का
रयणाणं रासीमिव, ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥22॥
जानलो इस लोक को जो एक-एक प्रदेश पर ।
रत्नराशिवत् जड़े वे असंख्य कालाणु दरब ॥२२॥
अन्वयार्थ : [इक्किक्के लोयायासपदेसे] एक-एक लोकाकाश के प्रदेशों पर [रयणाणं रासी इव] रत्नों की राशि के समान [इक्किक्का ] एक-एक [कालाणू] कालद्रव्यरूप अणु [ठिया] स्थित है [ते] वे कालाणु [हु] निश्चय से [असंख-दव्वाणि] असंख्यात द्रव्यरूप हैं ।
Meaning : Real time (nishchaya kāla) is of the extent of space-points of the universe, pervading the entire universe. Each particle or unit of Real time is distinct and occupies one unit of space; these innumerable particles of Real time, thus, exist in the entire universe (lokākāsha), like heaps of jewels.

  ब्रह्मदेव सूरि    आर्यिका ज्ञानमती 

ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हुइक्किक्का] एक-एक लोकाकाश के प्रदेश पर जो एक-एक संख्यायुक्त स्पष्ट रूप से स्थित हैं । किसके समान हैं? [रयणाणं रासी इव] परस्पर में तादात्म्य संबन्ध के अभाव के कारण रत्नों की राशि के समान भिन्न-भिन्न स्थित हैं । ते कालाणू वे कालाणु हैं । कितनी संख्या के धारक हैं? [असंखदव्वाणि] लोकाकाश कई प्रदेशों की संख्या के बराबर असंख्यात द्रव्य हैं ।
विशेष - जैसे जिस क्षण में अंगुली रूप द्रव्य के टेढ़ी रूप पर्याय की उत्पत्ति होती है उसी क्षण में उसके सीधे आकार रूप पर्याय का नाश होता है और अंगुली रूप से वह अंगुली दोनों दशाओं में ध्रौव्य है । इस तरह उत्पत्ति, नाश तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणों से युक्त द्रव्य के स्वरूप की सिद्धि है । तथा जैसे केवलज्ञान आदि की प्रकटता रूप कार्य समयसार का (परम-आत्मा का) उत्पाद होता है उसी समय निर्विकल्प ध्यानरूप जो कारण समयसार है, उसका नाश होता है और उन दोनों का आधारभूत जो परमात्म द्रव्य है उस रूप से ध्रौव्य है; इस तरह से भी द्रव्य की सिद्धि है । उसी तरह कालाणु के भी, जो मन्दगति में परिणत पुद्गल परमाणु द्वारा प्रकट किये हुए और कालाणुरूप उपादान कारण से उत्पन्न हुए जो यह वर्तमान समय का उत्पाद है; वही बीते हुए समय की अपेक्षा विनाश है और उन वर्तमान तथा अतीत दोनों समय का आधारभूत कालद्रव्यत्व से ध्रौव्य है । इस तरह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप काल द्रव्य की सिद्धि है ।
शंका - 'लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के अभाव से अलोकाकाश में परिणमन कैसे हो सकता है?'
उत्तर - आकाश अखण्ड द्रव्य है इसलिए जैसे चाक के एक कोने में डंडे की प्रेरणा से कुम्हार का सारा चाक घूमने लगता है; अथवा जैसे स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाश में स्थित जो कालाणु द्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है तो भी सर्व अखण्ड आकाश में परिणमन होता है; इसी प्रकार काल द्रव्य शेष सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है ।
शंका - जैसे काल द्रव्य, जीव पुद्गल आदि द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है वैसे ही काल द्रव्य के परिणमन में सहकारी कारण कौन है?
उत्तर - जिस तरह आकाश द्रव्य शेष सब द्रव्यों का आधार है और अपना आधार भी आप ही है; इसी तरह काल द्रव्य भी अन्य सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है और अपने परिणमन में भी सहकारी कारण है ।
शंका - जैसे कालद्रव्य अपना उपादान कारण है और अपने परिणमन का सहकारी कारण है; वैसे ही जीव आदि सब द्रव्य भी अपने उपादान कारण और अपने-अपने परिणमन के सहकारी कारण रहें । उन द्रव्यों के परिणमन में कालद्रव्य से क्या प्रयोजन है?
समाधान - ऐसा नहीं है क्योंकि यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारण की आवश्यकता न हो तो सब द्रव्यों के साधारण गति, स्थिति, अवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य हैं, उनकी भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी ।
और भी, काल का कार्य तो केवल घड़ी, दिन आदि प्रत्यक्ष से दिखाई पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदि का कार्य तो केवल आगम [शास्त्र] के कथन से ही माना जाता है । उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता । इसलिए जैसे कालद्रव्य का अभाव मानते हो उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्यों का भी अभाव प्राप्त होता है और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे । केवल दो ही द्रव्यों के मानने पर आगम से विरोध आता है । सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी होना, यह केवल कालद्रव्य का ही गुण है । जैसे नाक से रस का आस्वाद नहीं हो सकता; ऐसे ही अन्य द्रव्य का गुण भी अन्य-द्रव्य के द्वारा नहीं किया जाता, क्योंकि ऐसा मानने से द्रव्यसंकर दोष का प्रसंग आवेगा (अन्य द्रव्य का लक्षण अन्य-द्रव्य में चला जायेगा)
अब कोई कहता है -- 'जितने काल में आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है, उतने काल का नाम समय है'; ऐसा शास्त्र में कहा है तो एक समय में परमाणु के चौदह रज्जु गमन करने पर, जितने आकाश के प्रदेश हैं उतने ही समय होने चाहिए? शंका का निराकरण करते हैं - आगम में जो परमाणु का एक समय में एक आकाश के प्रदेश से साथ वाले दूसरे प्रदेश पर गमन करना कहा है; सो तो मन्दगति की अपेक्षा से है तथा परमाणु का एक समय में जो चौदह रज्जु का गमन कहा है वह शीघ्र गमन की अपेक्षा से है । इसलिए शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है । इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे जो देवदत्त धीमी चाल से सौ योजन सौ दिन में जाता है, वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गति के द्वारा सौ योजन एक दिन में भी जाता है, तो क्या उस देवदत्त को शीघ्रगति से सौ योजन गमन करने में सौ दिन हो गये? किन्तु एक ही दिन लगेगा । इसी तरह शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है तथा स्वयं विषयों के अनुभव से रहित भी यह जीव अन्य के द्वारा अनुभव किये हुए, देखे हुए, सुने हुए विषय को मन में स्मरण करके विषयों की इच्छा करता है उसको अपध्यान कहते हैं । उस विषय-अभिलाषा आदि समस्त विकल्पों से रहित और आत्म-अनुभव से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्दरूप सुख के रस आस्वाद सहित वीतराग चारित्र होता है और जो उस वीतराग चारित्र से अविनाभूत है वह निश्चय सम्यक्त्व तथा वीतराग सम्यक्त्व है । वह निश्चय सम्यक्त्व ही तीनों कालों में मुक्ति का कारण है । काल तो उस निश्चय सम्यक्त्व के अभाव में वीतराग चारित्र का सहकारी कारण भी नहीं होता; इस कारण कालद्रव्य हेय है । ऐसा कहा भी है
बहुत कहने से क्या; जो श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं व होंगे; वह सब सम्यक्त्व का माहात्म्य है । यहाँ तात्पर्य यह है कि कालद्रव्य तथा अन्य द्रव्यों के विषय में परम-आगम के अविरोध से ही विचारना चाहिए; “वीतराग सर्वज्ञ का वचन प्रमाण है' ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि विवाद में राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं और उन राग-द्वेषों से संसार की वृद्धि होती है ॥२२॥
इस प्रकार कालद्रव्य के व्याख्यान की मुख्यता से पाँचवें स्थल में दो गाथाएँ हुईं । इस प्रकार आठ गाथाओं के समुदाय रूप पाँचवें स्थल से पुद्गलादि पाँच प्रकार के अजीव द्रव्य के कथन द्वारा दूसरा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ।
अब इसके पश्चात् पाँच गाथाओं में पंचास्तिकाय का व्याख्यान करते हैं और उनमें भी प्रथम गाथा के पूर्वार्ध में छहों द्रव्यों के व्याख्यान का उपसंहार और उत्तरार्ध से पंचास्तिकाय के व्याख्यान का आरम्भ करते हैं --


[लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हुइक्किक्का] एक-एक लोकाकाश के प्रदेश पर जो एक-एक संख्यायुक्त स्पष्ट रूप से स्थित हैं । किसके समान हैं? [रयणाणं रासी इव] परस्पर में तादात्म्य सम्बन्ध के अभाव के कारण रत्नों की राशि के समान भिन्न-भिन्न स्थित हैं । [ते कालाणू] वे कालाणु हैं । कितनी संख्या के धारक हैं? [असंखदव्वाणि] लोकाकाश कई प्रदेशों की संख्या के बराबर असंख्यात द्रव्य हैं ।

विशेष - जैसे जिस क्षण में अंगुली रूप द्रव्य के टेढ़ी रूप पर्याय की उत्पत्ति होती है उसी क्षण में उसके सीधे आकार रूप पर्याय का नाश होता है और अंगुली रूप से वह अंगुली दोनों दशाओं में ध्रौव्य है । इस तरह उत्पत्ति, नाश तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणों से युक्त द्रव्य के स्वरूप की सिद्धि है । तथा जैसे केवलज्ञान आदि की प्रकटता रूप कार्य समयसार का (परम-आत्मा का) उत्पाद होता है उसी समय निर्विकल्प ध्यानरूप जो कारण समयसार है, उसका नाश होता है और उन दोनों का आधारभूत जो परमात्म द्रव्य है उस रूप से ध्रौव्य है; इस तरह से भी द्रव्य की सिद्धि है । उसी तरह कालाणु के भी, जो मन्दगति में परिणत पुद्गल परमाणु द्वारा प्रकट किये हुए और कालाणुरूप उपादान कारण से उत्पन्न हुए जो यह वर्तमान समय का उत्पाद है; वही बीते हुए समय की अपेक्षा विनाश है और उन वर्तमान तथा अतीत दोनों समय का आधारभूत कालद्रव्यत्व से ध्रौव्य है । इस तरह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप काल द्रव्य की सिद्धि है ।

शंका – 'लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के अभाव से अलोकाकाश में परिणमन कैसे हो सकता है?'

उत्तर –
आकाश अखण्ड द्रव्य है इसलिए जैसे चाक के एक कोने में डंडे की प्रेरणा से कुम्हार का सारा चाक घूमने लगता है; अथवा जैसे स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाश में स्थित जो कालाणु द्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है तो भी सर्व अखण्ड आकाश में परिणमन होता है; इसी प्रकार काल द्रव्य शेष सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है ।

शंका – जैसे काल द्रव्य, जीव पुद्गल आदि द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है वैसे ही काल द्रव्य के परिणमन में सहकारी कारण कौन है?

उत्तर –
जिस तरह आकाश द्रव्य शेष सब द्रव्यों का आधार है और अपना आधार भी आप ही है; इसी तरह काल द्रव्य भी अन्य सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है और अपने परिणमन में भी सहकारी कारण है ।

शंका – जैसे कालद्रव्य अपना उपादान कारण है और अपने परिणमन का सहकारी कारण है; वैसे ही जीव आदि सब द्रव्य भी अपने उपादान कारण और अपने-अपने परिणमन के सहकारी कारण रहें । उन द्रव्यों के परिणमन में कालद्रव्य से क्या प्रयोजन है?

समाधान –
ऐसा नहीं है क्योंकि यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारण की आवश्यकता न हो तो सब द्रव्यों के साधारण गति, स्थिति, अवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य हैं, उनकी भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी ।

और भी, काल का कार्य तो केवल घड़ी, दिन आदि प्रत्यक्ष से दिखाई पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदि का कार्य तो केवल आगम [शास्त्र] के कथन से ही माना जाता है । उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता । इसलिए जैसे कालद्रव्य का अभाव मानते हो उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्यों का भी अभाव प्राप्त होता है और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे । केवल दो ही द्रव्यों के मानने पर आगम से विरोध आता है । सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी होना, यह केवल कालद्रव्य का ही गुण है । जैसे नाक से रस का आस्वाद नहीं हो सकता; ऐसे ही अन्य द्रव्य का गुण भी अन्य-द्रव्य के द्वारा नहीं किया जाता, क्योंकि ऐसा मानने से द्रव्यसंकर दोष का प्रसंग आवेगा (अन्य द्रव्य का लक्षण अन्य-द्रव्य में चला जायेगा)

अब कोई कहता है -- 'जितने काल में आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है, उतने काल का नाम समय है'; ऐसा शास्त्र में कहा है तो एक समय में परमाणु के चौदह रज्जु गमन करने पर, जितने आकाश के प्रदेश हैं उतने ही समय होने चाहिए? शंका का निराकरण करते हैं - आगम में जो परमाणु का एक समय में एक आकाश के प्रदेश से साथ वाले दूसरे प्रदेश पर गमन करना कहा है; सो तो मन्दगति की अपेक्षा से है तथा परमाणु का एक समय में जो चौदह रज्जु का गमन कहा है वह शीघ्र गमन की अपेक्षा से है । इसलिए शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है । इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे जो देवदत्त धीमी चाल से सौ योजन सौ दिन में जाता है, वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गति के द्वारा सौ योजन एक दिन में भी जाता है, तो क्या उस देवदत्त को शीघ्रगति से सौ योजन गमन करने में सौ दिन हो गये? किन्तु एक ही दिन लगेगा । इसी तरह शीघ्रगति से चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणु को एक ही समय लगता है तथा स्वयं विषयों के अनुभव से रहित भी यह जीव अन्य के द्वारा अनुभव किये हुए, देखे हुए, सुने हुए विषय को मन में स्मरण करके विषयों की इच्छा करता है उसको अपध्यान कहते हैं । उस विषय-अभिलाषा आदि समस्त विकल्पों से रहित और आत्म-अनुभव से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्दरूप सुख के रस आस्वाद सहित वीतराग चारित्र होता है और जो उस वीतराग चारित्र से अविनाभूत है वह निश्चय सम्यक्त्व तथा वीतराग सम्यक्त्व है । वह निश्चय सम्यक्त्व ही तीनों कालों में मुक्ति का कारण है । काल तो उस निश्चय सम्यक्त्व के अभाव में वीतराग चारित्र का सहकारी कारण भी नहीं होता; इस कारण कालद्रव्य हेय है । ऐसा कहा भी है

बहुत कहने से क्या; जो श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं व होंगे; वह सब सम्यक्त्व का माहात्म्य है । यहाँ तात्पर्य यह है कि कालद्रव्य तथा अन्य द्रव्यों के विषय में परम-आगम के अविरोध से ही विचारना चाहिए; “वीतराग सर्वज्ञ का वचन प्रमाण है' ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि विवाद में राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं और उन राग-द्वेषों से संसार की वृद्धि होती है ॥२२॥

इस प्रकार कालद्रव्य के व्याख्यान की मुख्यता से पाँचवें स्थल में दो गाथाएँ हुईं । इस प्रकार आठ गाथाओं के समुदाय रूप पाँचवें स्थल से पुद्गलादि पाँच प्रकार के अजीव द्रव्य के कथन द्वारा दूसरा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ।

अब इसके पश्चात् पाँच गाथाओं में पंचास्तिकाय का व्याख्यान करते हैं और उनमें भी प्रथम गाथा के पूर्वार्ध में छहों द्रव्यों के व्याख्यान का उपसंहार और उत्तरार्ध से पंचास्तिकाय के व्याख्यान का आरम्भ करते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :

प्रश्न – कालाणु असंख्यात हैं, इसका प्रमाण क्या है?

उत्तर –
लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात होते हैं अत: उन पर स्थित कालाणु भी असंख्यात होते हैं।

प्रश्न – लोकाकाश में काल द्रव्य कैसे स्थित रहते हैं?

उत्तर –
लोकाकाश असंख्यप्रदेशी है। एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु रत्नराशि के समान स्थित रहते हैं।

प्रश्न – काल द्रव्य बहुप्रदेशी है या नहीं ?

उत्तर –
प्रत्येक कालाणु स्वतंत्र द्रव्य है-एक समय दूसरे समय के साथ मिलता नहीं, अत: कालाणु बहुप्रदेशी नहीं है।

प्रश्न – समय किसे कहते हैं ?

उत्तर –
आकाश के एक प्रदेश से एक पुद्गल परमाणु मंद गति से दूसरे आकाश प्रदेश पर और तीव्र गति से चौदह राजू प्रमाण गमन करता है, उतने काल को समय कहते हैं।