+ प्रदेश का लक्षण और उसकी योग्यता -
जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु वट्ठद्धं
तं खु पदेसं जाणे, सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ॥27॥
एक अणु जितनी जगह घेरे प्रदेश कहें उसे ।
किन्तु एक प्रदेश में ही अनेक परमाणु रहें ॥२७॥
अन्वयार्थ : [जावदियं आयासं] जितना आकाश [अविभागी-पुग्गलाणुवठ्ठद्धं] पुद्गल के अविभाजित परमाणु से व्याप्त/रोका गया है [तं] उसको [खु] निश्चय से [सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं] सर्व परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ [पदेसं] प्रदेश [जाणे] जानना चाहिए ।
Meaning : A space-point (pradesha) is the space in akasa occupied by an indivisible elementary particle (paramānu) of matter (pudgala). A space-point is able to accommodate all other infinitesimal particles (paramānu).

  ब्रह्मदेव सूरि    आर्यिका ज्ञानमती 

ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउद्बुद्धं तं खुपदेसं जाणे] हे शिष्य! जितना आकाश अविभागी पुद्गल परमाणु से घिरा है उसको स्पष्ट रूप से प्रदेश जानो । वह प्रदेश [सव्वाणुट्टाणदाणरिहं] सब परमाणु और सूक्ष्म स्कन्धों को स्थान देने में समर्थ है, क्योंकि ऐसी अवगाहन शक्ति आकाश में है । इसी कारण असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव तथा उन जीवों से भी अनन्तगुणे पुद्गल समा जाते हैं । इसी प्रकार जीव और पुद्गल के विषय में भी अवकाश देने की सामर्थ्य आगम में कही है ।
एक निगोद शरीर में द्रव्य-प्रमाण से भूतकाल के सब सिद्धों से भी अनन्तगुणे जीव देखे गये हैं ॥१॥
यह लोक सब तरफ से विविध तथा अनन्तानन्त सूक्ष्म और बादर पुद्गलों द्वारा अतिसघन भरा हुआ है ॥२॥

यदि किसी का ऐसा मत हो कि 'मूर्तिमान् पुद्गलों के तो अणु तथा स्कन्ध आदि विभाग हों, इसमें तो कुछ विरोध नहीं; किन्तु अखण्ड, अमूर्तिक आकाश की विभाग कल्पना कैसे हो सकती है?' यह शंका ठीक नहीं; क्योंकि राग आदि उपाधियों से रहित, निज-आत्म-अनुभव की प्रत्यक्ष भावना से उत्पन्न सुखरूप अमृतरस के आस्वादन से तृप्त ऐसे दो मुनियों के रहने का स्थान एक है अथवा अनेक? यदि दोनों का निवास क्षेत्र एक ही है तब तो दोनों एक हुए; परन्तु ऐसा है नहीं । यदि भिन्न मानों तो घट के आकाश तथा पट के आकाश की तरह विभागरहित आकाश द्रव्य की भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई ॥२७॥

इस तरह पाँच सूत्रों द्वारा पंच अस्तिकायों का निरूपण करने वाला तीसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

इस प्रकार श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव विरचित द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में नमस्कारादि २७ गाथाओं से तीन अन्तर अधिकारों द्वारा छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय प्रतिपादन करने वाला प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ।

चूलिका

इसके अनन्तर अब छह द्रव्यों के उपसंहार रूप से विशेष व्याख्यान करते हैं
गाथार्थ - छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं; चेतन द्रव्य एक जीव है, मूर्तिक एक पुद्गल है, प्रदेशसहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पाँच द्रव्य हैं, एकएक संख्या वाले धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य हैं । क्षेत्रवान् एक आकाश द्रव्य है, क्रिया सहित जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं, नित्यद्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार हैं, कारण द्रव्यपुद्गल, धर्म,अधर्म, आकाश और काल ये पाँच हैं, कर्ता-एक जीव द्रव्य है, सर्वगत (सर्व व्यापक) द्रव्य एक आकाश है (एक क्षेत्र अवगाह होने पर भी) इन छहों द्रव्यों का परस्पर प्रवेश नहीं है । इस प्रकार छहों मूलद्रव्यों के उत्तर गुण जानने चाहिए ॥१-२॥

परिणामि इत्यादि गाथाओं का व्याख्यान करते हैं -
  • [परिणामि] स्व-भाव तथा विभाव पर्यायों द्वारा परिणाम से जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं; शेष चार द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) विभावव्यंजन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं ।
  • [जीव] - शुद्ध निश्चयनय से निर्मल ज्ञान, दर्शन स्वभाव रूप शुद्ध चैतन्य को प्राण कहते हैं, उस शुद्ध चैतन्य रूप प्राण से जो जीता है, वह जीव है । व्यवहारनय से कर्मों के उदय से प्राप्त द्रव्य तथा भाव रूप चार प्रकार के जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास नामक प्राण से जो जीता है, जीवेगा और पहले जीता था वह जीव है । पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अजीव रूप हैं ।
  • [मुत्तं] शुद्ध आत्मा से विलक्षण स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण वाला मूर्ति कहा जाता है, उस मूर्ति के सद्भाव से पुद्गल मूर्त है । जीवद्रव्य अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय से मूर्त है किन्तु शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा अमूर्त है । धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य भी अमूर्तिक हैं ।
  • [सपदेसं] लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशों को धारण करने से पंचास्तिकाय नामक जीव आदि पाँच द्रव्य बहु-प्रदेशी हैं और बहु-प्रदेश रूप कायत्व के न होने से कालद्रव्य अप्रदेश (एक-प्रदेशी) है ।
  • [एय] द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा धर्म, अधर्म तथा आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक हैं । जीव, पुद्गल तथा काल ये तीन द्रव्य अनेक हैं ।
  • [खेत्त] सब द्रव्यों को स्थान देने का सामर्थ्य होने से क्षेत्र एक आकाश द्रव्य है, शेष पाँच द्रव्य क्षेत्र नहीं हैं ।
  • [किरिया य] एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गमन रूप हिलने वाली अथवा चलने वाली जो क्रिया है, वह क्रिया जिनमें है ऐसे क्रियावान् जीव, पुद्गल ये दो द्रव्य हैं । धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य क्रियाशून्य हैं ।
  • [णिच्चं] धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार द्रव्य यद्यपि अर्थपर्याय के कारण अनित्य हैं, फिर भी मुख्य रूप से इनमें विभावव्यंजन पर्याय नहीं होती इसलिए ये नित्य हैं, द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा भी नित्य हैं । जीव, पुद्गल द्रव्य यद्यपि द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा नित्य हैं तो भी अगुरुलघुगुण के परिणाम रूप स्वभाव पर्याय की अपेक्षा तथा विभावव्यंजन पर्याय की अपेक्षा अनित्य हैं ।
  • [कारण] पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालद्रव्यों में से व्यवहारनय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, निःश्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है और गति, स्थिति, अवगाह तथा वर्तना रूप कार्य से धर्म आदि चार द्रव्य करते हैं; इस कारण पुद्गलादि पाँच द्रव्य 'कारण' हैं । जीवद्रव्य यद्यपि गुरु, शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है फिर भी पुद्गलादि पाँच द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए 'अकारण' है ।
  • [कत्ता] शुद्ध पारिणामिक परमभाव के ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा जीव यद्यपि बन्ध मोक्ष के कारणभूत द्रव्य-भावरूप पुण्य, पाप, घट, पट आदि का कर्ता नहीं है किन्तु अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शुभ, अशुभ उपयोगों में परिणत होकर पुण्य-पाप बन्ध का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता होता है तथा विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव निज शुद्ध आत्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप शुद्धोपयोग से परिणत होकर यह जीव मोक्ष का भी कर्ता और उसके फल का भोगने वाला होता है । यहाँ सब जगह शुभ, अशुभ तथा शुद्ध परिणामों के परिणमन का ही कर्ता जानना चाहिए । पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों के तो अपने-अपने परिणाम से जो परिणमन है वही कर्तृत्व है और वास्तव में पुण्य, पाप आदि की अपेक्षा अकर्तापना ही है ।
  • [सव्वगदं] लोक और अलोक व्यापक होने की अपेक्षा आकाश सर्वगत कहा जाता है, लोक में सर्वव्यापक होने की अपेक्षा धर्म और अधर्म सर्वगत हैं । जीवद्रव्य एक जीव की अपेक्षा से लोकपूरण समुद्घात के सिवाय असर्वगत है किन्तु अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वगत ही है । पुद्गल द्रव्य लोकव्यापक महास्कन्ध की अपेक्षा सर्वगत है और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत है, एक कालाणुद्रव्य की अपेक्षा तो कालद्रव्य सर्वगत नहीं है किन्तु लोक प्रदेश के बराबर अनेक कालाणुओं की अपेक्षा कालद्रव्य लोक में सर्वगत है ।
[इदरंहि य पवेसे] यद्यपि व्यवहारनय से सब द्रव्य एक क्षेत्र में रहने के कारण आपस में प्रवेश करके रहते हैं, फिर भी निश्चयनय से चेतना आदि अपने-अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते । इसका सारांश यह है कि इन छह द्रव्यों में वीतराग, चिदानन्द, एक शुद्ध बुद्ध आदि गुण स्वभाव वाला और शुभ, अशुभ मन, वचन और काय के व्यापार से रहित निज-शुद्ध आत्म-द्रव्य ही उपादेय है ।
तदनन्तर फिर भी छह द्रव्यों में से क्या हेय है और क्या उपादेय है, इसका विशेष विचार करते हैं । वहाँ शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शक्ति रूप से शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव के धारक सभी जीव उपादेय हैं और व्यक्ति रूप से अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु ये पंच परमेष्ठी ही उपादेय हैं । उनमें भी अर्हन्त-सिद्ध ये दो ही उपादेय हैं । इन दो में भी निश्चयनय की अपेक्षा सिद्ध ही उपादेय हैं । परम-निश्चयनय से तो भोगों की इच्छा आदि समस्त विकल्पों से रहित परमध्यान के समय सिद्धसमान निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है । अन्य सब द्रव्य हेय हैं, यह तात्पर्य है । शुद्ध-बुद्धैकस्वभाव इस पद का क्या अर्थ है? इसको कहते हैं -- मिथ्यात्व, राग आदि समस्त विभावों से रहित होने के कारण आत्मा शुद्ध कहा जाता है तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों से सहित होने के कारण आत्मा बुद्ध है । इस तरह शुद्ध-बुद्धैकस्वभाव पद का अर्थ सर्वत्र समझना चाहिए । अब चूलिका शब्द का अर्थ कहते हैं -- किसी पदार्थ के विशेष व्याख्यान को, कहे हुए विषय में जो अनुक्त विषय हैं उनके व्याख्यान को अथवा उक्त, अनुक्त विषय से मिले हुए कथन को 'चूलिका' कहते हैं ।
इस प्रकार छह द्रव्यों की चूलिका समाप्त हुई ।

द्वितीयोऽधिकारः

इसके पश्चात् जीव और पुद्गल द्रव्य के पर्याय रूप आस्रव आदि ७ पदार्थों का ११ गाथाओं द्वारा व्याख्यान करते हैं । उसमें
  • प्रथम आसवबंधण इत्यादि अधिकार सूचन रूप २८ वीं एक गाथा है ।
  • उसके पश्चात् आस्रव के व्याख्यान रूप आसवदि जेण इत्यादि तीन गाथायें हैं ।
  • तदनन्तर बज्झदि कम्मं जेण इत्यादि दो गाथाओं में बन्ध पदार्थ का निरूपण है ।
  • तत्पश्चात् चेदणपरिणामो इत्यादि ३४, ३५ वीं गाथाओं में संवर पदार्थ का कथन है ।
  • फिर निर्जरा के प्रतिपादन रूप जह कालेण तवेण य इत्यादि ३६ वीं एक गाथा है ।
  • उसके बाद मोक्ष के निरूपण रूप सव्वस्स कम्मणो इत्यादि ३७ वीं एक गाथा है ।
  • तदनन्तर पुण्य, पाप पदार्थों के कथन करने वाली सुहअसुह इत्यादि एक गाथा है ।
इस तरह ११ गाथाओं द्वारा सप्त स्थलों के समुदाय सहित द्वितीय अधिकार की भूमिका समझनी चाहिए ।
यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि यदि जीव, अजीव ये दोनों द्रव्य सर्वथा एकान्त से परिणामी ही हैं तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं तो जीव, अजीव द्रव्य रूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं; इसलिए आस्रव आदि सात पदार्थ कैसे सिद्ध होते हैं? इसका उत्तर देते हैं; कथंचित् परिणामी होने से सात पदार्थों का कथन संगत होता है । कथंचित् परिणामित्व का क्या अर्थ है? वह इस प्रकार है -- जैसे स्फटिकमणि यद्यपि स्वभाव से निर्मल है फिर भी जपापुष्प (लाल फूल) आदि के संसर्ग से लाल आदि अन्य पर्याय रूप परिणमती है (बिल्कुल सफेद स्फटिक मणि के साथ जब जपाफूल होता है तब वह उस फूल की तरह लाल रंग का हो जाता है ।) स्फटिक मणि यद्यपि लाल उपाधि ग्रहण करती है फिर भी निश्चयनय से अपने सफेद निर्मल स्वभाव को नहीं छोड़ती । इसी तरह जीव भी यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनय से स्वाभाविक शुद्ध-चिदानन्दस्वभाव वाला है फिर भी अनादि कर्म-बन्ध रूप पर्याय के कारण राग आदि परद्रव्यजनित उपाधिपर्याय को ग्रहण करता है । यद्यपि जीव पर पर्याय रूप परिणमन करता है तो भी निश्चयनय से अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं छोड़ता । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य के विषय में जानना चाहिए । परस्पर अपेक्षा सहित होना यही कथंचित् परिणामित्व शब्द का अर्थ है । इस प्रकार कथंचित् परिणामित्व सिद्ध होने पर, जीव और पुद्गल की संयोग परिणति से बने हुए आस्रव आदि सप्त पदार्थ घटित होते हैं और वे सात पदार्थ पूर्वोक्त जीव और अजीव द्रव्य सहित ९ हो जाते हैं इसलिए नौ पदार्थ कहे जाते हैं । अभेदनय की अपेक्षा से पुण्य और पाप पदार्थ का आस्रव पदार्थ में या बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव करने से सात तत्त्व कहे जाते हैं ।
शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! यद्यपि कथंचित् परिणामित्व के बल से भेदप्रधान पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा ९ पदार्थ तथा ७ तत्त्व सिद्ध हो गये किन्तु इनसे प्रयोजन क्या सिद्ध हुआ? जैसे अभेदनय की अपेक्षा पुण्य, पाप इन दो पदार्थों का सात पदार्थों में अन्तर्भाव हुआ है उसी तरह विशेष अभेदनय की अपेक्षा से आस्रवादि पदार्थों का भी जीव, अजीव इन दो पदार्थों में अन्तर्भाव कर लेने से जीव तथा अजीव ये दो पदार्थ सिद्ध होते हैं? इन दोनों शंकाओं का परिहार करते हैं कि "कौन तत्त्व हेय हैं और कौन तत्त्व उपादेय है?" इस विषय का परिज्ञान कराने के लिए आस्रव आदि पदार्थ निरूपण करने योग्य हैं । इसी को कहते हैं, अविनाशी अनन्तसुख उपादेय तत्त्व है । उस अक्षय अनन्त सुख का कारण मोक्ष है, मोक्ष के कारण संवर और निर्जरा है । उन संवर और निर्जरा का कारण, विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव वाला निजात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूप निश्चयरत्नत्रय है तथा उस निश्चय रत्नत्रय का साधक व्यवहार रत्नत्रय है । अब हेय तत्त्व को कहते हैं -- आकुलता को उत्पन्न करने वाला, नरकगति आदि का दुःख तथा निश्चय से इन्द्रियजनित सुख भी हेय यानि त्याज्य है, उसका कारण संसार है और संसार के कारण आस्रव तथा बन्ध ये दो पदार्थ हैं और उस आस्रव का तथा बन्ध का कारण पहले कहे हुए व्यवहार, निश्चयरत्नत्रय से विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र हैं । इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्व का निरूपण करने पर सात तत्त्व तथा नौ पदार्थ स्वयं सिद्ध हो गये ।
अब किस पदार्थ का कर्ता कौन है? इस विषय का कथन करते हैं । निज निरंजन शुद्ध आत्मा से उत्पन्न परम आनन्दरूप सुखामृत-रस-आस्वाद से रहित जो जीव है, वह बहिरात्मा कहलाता है । वह बहिरात्मा आस्रव, बन्ध और पाप इन तीन पदार्थों का कर्ता है । किसी समय जब कषाय और मिथ्यात्व का उदय मन्द हो, तब आगामी भोगों की इच्छा आदि रूप निदान बन्ध से पापानुबन्धी पुण्य पदार्थ का भी कर्ता होता है । जो बहिरात्मा से विपरीत लक्षण का धारक सम्यग्दृष्टि जीव है वह संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का कर्ता होता है और यह सम्यग्दृष्टि जीव, जब राग आदि विभावों से रहित परम सामायिक में स्थित नहीं रह सकता, उस समय विषयकषायों से उत्पन्न होने वाले दुर्ध्यान से बचने के लिए तथा संसार की स्थिति का नाश करता हुआ पुण्यानुबन्धी तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थ का भी कर्ता होता है । अब कर्तृत्व के विषय में नय विभाग का निरूपण करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव के जो पुद्गल द्रव्य पर्याय रूप आस्रव, बन्ध तथा पुण्य, पाप पदार्थों का कर्तापन है, सो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा है और जीव-भाव पुण्यपाप पर्याय रूप पदार्थों का कर्तृत्व अशुद्ध निश्चयनय से है तथा सम्यग्दृष्टि जीव जो द्रव्य रूप संवर, निर्जरा तथा मोक्ष पदार्थ का कर्ता है, सो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से है तथा संवर, निर्जरा मोक्षस्वरूप जीवभाव पर्याय का 'कर्ता', विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से है और परम शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा तो न बन्ध है न मोक्ष है । जैसा कहा भी है-यह जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है और न बन्ध तथा मोक्ष को करता है, इस प्रकार श्री जिनेन्द्र कहते हैं ।
पूर्वोक्त विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय को आगमभाषा से क्या कहते हैं? सो दिखाते हैं- निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूप से जो होगा उसे भव्य' कहते हैं, इस प्रकार के भव्यत्व नामक पारिणामिक भाव से सम्बन्ध रखने वाली व्यक्ति कही जाती है अर्थात् भव्यत्व पारिणामिक भाव की व्यक्ति यानि प्रकटता है और अध्यात्म भाषा में उसी को "द्रव्यशक्तिरूप शुद्ध पारिणामिकभाव के विषय में भावना" कहते हैं । अन्य पर्याय नामों से इसी द्रव्यशक्ति रूप पारिणामिक भाव की भावना को निर्विकल्प ध्यान तथा शुद्ध उपयोग आदि कहते हैं क्योंकि भावना मुक्ति का कारण है, इसलिए शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येय रूप है, ध्यान या भावना रूप नहीं है । ऐसा क्यों? इसका उत्तर यह है, ध्यान या भावना' पर्याय है अतएव विनाशीक है । 'ध्येय' है, वह भावना पर्याय रहित द्रव्य रूप होने से विनाशरहित है ।
यहाँ तात्पर्य यह है -- मिथ्यात्व, राग आदि विकल्पों से रहित निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्द रूप एक सुख अनुभव रूप जो भावना है वही मुक्ति का कारण है । उसी भावना को कोई पुरुष किन्हीं अन्य नामों [निर्विकल्प ध्यान, शुद्धोपयोग आदि] के द्वारा कहता है । इस प्रकार अनेकान्त का आश्रय लेकर कहने से आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप ये चार पदार्थ जीव और पुद्गल के संयोगपरिणाम स्वरूप जो विभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ, जीव और पुद्गल के संयोग रूप परिणाम के विनाश से उत्पन्न जो विवक्षित स्वभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं ।
जैसे कि --


[जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउद्बुद्धं तं खुपदेसं जाणे] हे शिष्य! जितना आकाश अविभागी पुद्गल परमाणु से घिरा है उसको स्पष्ट रूप से प्रदेश जानो । वह प्रदेश [सव्वाणुट्टाणदाणरिहं] सब परमाणु और सूक्ष्म स्कन्धों को स्थान देने में समर्थ है, क्योंकि ऐसी अवगाहन शक्ति आकाश में है । इसी कारण असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव तथा उन जीवों से भी अनन्तगुणे पुद्गल समा जाते हैं । इसी प्रकार जीव और पुद्गल के विषय में भी अवकाश देने की सामर्थ्य आगम में कही है ।

एक निगोद शरीर में द्रव्य-प्रमाण से भूतकाल के सब सिद्धों से भी अनन्तगुणे जीव देखे गये हैं ॥१॥

यह लोक सब तरफ से विविध तथा अनन्तानन्त सूक्ष्म और बादर पुद्गलों द्वारा अतिसघन भरा हुआ है ॥२॥

यदि किसी का ऐसा मत हो कि 'मूर्तिमान् पुद्गलों के तो अणु तथा स्कन्ध आदि विभाग हों, इसमें तो कुछ विरोध नहीं; किन्तु अखण्ड, अमूर्तिक आकाश की विभाग कल्पना कैसे हो सकती है?' यह शंका ठीक नहीं; क्योंकि राग आदि उपाधियों से रहित, निज-आत्म-अनुभव की प्रत्यक्ष भावना से उत्पन्न सुखरूप अमृतरस के आस्वादन से तृप्त ऐसे दो मुनियों के रहने का स्थान एक है अथवा अनेक? यदि दोनों का निवास क्षेत्र एक ही है तब तो दोनों एक हुए; परन्तु ऐसा है नहीं । यदि भिन्न मानों तो घट के आकाश तथा पट के आकाश की तरह विभागरहित आकाश द्रव्य की भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई ॥२७॥

इस तरह पाँच सूत्रों द्वारा पंच अस्तिकायों का निरूपण करने वाला तीसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

इस प्रकार श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव विरचित द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में नमस्कारादि २७ गाथाओं से तीन अन्तर अधिकारों द्वारा छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय प्रतिपादन करने वाला प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ।

चूलिका
इसके अनन्तर अब छह द्रव्यों के उपसंहार रूप से विशेष व्याख्यान करते हैं

गाथार्थ - छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं; चेतन द्रव्य एक जीव है, मूर्तिक एक पुद्गल है, प्रदेशसहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पाँच द्रव्य हैं, एकएक संख्या वाले धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य हैं । क्षेत्रवान् एक आकाश द्रव्य है, क्रिया सहित जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं, नित्यद्रव्य- धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार हैं, कारण द्रव्यपुद्गल, धर्म,अधर्म, आकाश और काल ये पाँच हैं, कर्ता- एक जीव द्रव्य है, सर्वगत (सर्व व्यापक) द्रव्य एक आकाश है (एक क्षेत्र अवगाह होने पर भी) इन छहों द्रव्यों का परस्पर प्रवेश नहीं है । इस प्रकार छहों मूलद्रव्यों के उत्तर गुण जानने चाहिए ॥१-२॥

परिणामि इत्यादि गाथाओं का व्याख्यान करते हैं -
  • [परिणामि] स्व-भाव तथा विभाव पर्यायों द्वारा परिणाम से जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं; शेष चार द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) विभावव्यंजन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं ।
  • [जीव] - शुद्ध निश्चयनय से निर्मल ज्ञान, दर्शन स्वभाव रूप शुद्ध चैतन्य को प्राण कहते हैं, उस शुद्ध चैतन्य रूप प्राण से जो जीता है, वह जीव है । व्यवहारनय से कर्मों के उदय से प्राप्त द्रव्य तथा भाव रूप चार प्रकार के जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास नामक प्राण से जो जीता है, जीवेगा और पहले जीता था वह जीव है । पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अजीव रूप हैं ।
  • [मुत्तं] शुद्ध आत्मा से विलक्षण स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण वाला मूर्ति कहा जाता है, उस मूर्ति के सद्भाव से पुद्गल मूर्त है । जीवद्रव्य अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय से मूर्त है किन्तु शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा अमूर्त है । धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य भी अमूर्तिक हैं ।
  • [सपदेसं] लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशों को धारण करने से पंचास्तिकाय नामक जीव आदि पाँच द्रव्य बहु-प्रदेशी हैं और बहु-प्रदेश रूप कायत्व के न होने से कालद्रव्य अप्रदेश (एक-प्रदेशी) है ।
  • [एय] द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा धर्म, अधर्म तथा आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक हैं । जीव, पुद्गल तथा काल ये तीन द्रव्य अनेक हैं ।
  • [खेत्त] सब द्रव्यों को स्थान देने का सामर्थ्य होने से क्षेत्र एक आकाश द्रव्य है, शेष पाँच द्रव्य क्षेत्र नहीं हैं ।
  • [किरिया य] एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गमन रूप हिलने वाली अथवा चलने वाली जो क्रिया है, वह क्रिया जिनमें है ऐसे क्रियावान् जीव, पुद्गल ये दो द्रव्य हैं । धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य क्रियाशून्य हैं ।
  • [णिच्चं] धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार द्रव्य यद्यपि अर्थपर्याय के कारण अनित्य हैं, फिर भी मुख्य रूप से इनमें विभावव्यंजन पर्याय नहीं होती इसलिए ये नित्य हैं, द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा भी नित्य हैं । जीव, पुद्गल द्रव्य यद्यपि द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा नित्य हैं तो भी अगुरुलघुगुण के परिणाम रूप स्वभाव पर्याय की अपेक्षा तथा विभावव्यंजन पर्याय की अपेक्षा अनित्य हैं ।
  • [कारण] पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालद्रव्यों में से व्यवहारनय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, निःश्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है और गति, स्थिति, अवगाह तथा वर्तना रूप कार्य से धर्म आदि चार द्रव्य करते हैं; इस कारण पुद्गलादि पाँच द्रव्य 'कारण' हैं । जीवद्रव्य यद्यपि गुरु, शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है फिर भी पुद्गलादि पाँच द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए 'अकारण' है ।
  • [कत्ता] शुद्ध पारिणामिक परमभाव के ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा जीव यद्यपि बन्ध मोक्ष के कारणभूत द्रव्य-भावरूप पुण्य, पाप, घट, पट आदि का कर्ता नहीं है किन्तु अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शुभ, अशुभ उपयोगों में परिणत होकर पुण्य-पाप बन्ध का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता होता है तथा विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव निज शुद्ध आत्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप शुद्धोपयोग से परिणत होकर यह जीव मोक्ष का भी कर्ता और उसके फल का भोगने वाला होता है । यहाँ सब जगह शुभ, अशुभ तथा शुद्ध परिणामों के परिणमन का ही कर्ता जानना चाहिए । पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों के तो अपने-अपने परिणाम से जो परिणमन है वही कर्तृत्व है और वास्तव में पुण्य, पाप आदि की अपेक्षा अकर्तापना ही है ।
  • [सव्वगदं] लोक और अलोक व्यापक होने की अपेक्षा आकाश सर्वगत कहा जाता है, लोक में सर्वव्यापक होने की अपेक्षा धर्म और अधर्म सर्वगत हैं । जीवद्रव्य एक जीव की अपेक्षा से लोकपूरण समुद्घात के सिवाय असर्वगत है किन्तु अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वगत ही है । पुद्गल द्रव्य लोकव्यापक महास्कन्ध की अपेक्षा सर्वगत है और शेष पुद्गलों की अपेक्षा असर्वगत है, एक कालाणुद्रव्य की अपेक्षा तो कालद्रव्य सर्वगत नहीं है किन्तु लोक प्रदेश के बराबर अनेक कालाणुओं की अपेक्षा कालद्रव्य लोक में सर्वगत है ।
[इदरंहि य पवेसे] यद्यपि व्यवहारनय से सब द्रव्य एक क्षेत्र में रहने के कारण आपस में प्रवेश करके रहते हैं, फिर भी निश्चयनय से चेतना आदि अपने-अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते । इसका सारांश यह है कि इन छह द्रव्यों में वीतराग, चिदानन्द, एक शुद्ध बुद्ध आदि गुण स्वभाव वाला और शुभ, अशुभ मन, वचन और काय के व्यापार से रहित निज-शुद्ध आत्म-द्रव्य ही उपादेय है ।

तदनन्तर फिर भी छह द्रव्यों में से क्या हेय है और क्या उपादेय है, इसका विशेष विचार करते हैं । वहाँ शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शक्ति रूप से शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव के धारक सभी जीव उपादेय हैं और व्यक्ति रूप से अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु ये पंच परमेष्ठी ही उपादेय हैं । उनमें भी अर्हन्त-सिद्ध ये दो ही उपादेय हैं । इन दो में भी निश्चयनय की अपेक्षा सिद्ध ही उपादेय हैं । परम-निश्चयनय से तो भोगों की इच्छा आदि समस्त विकल्पों से रहित परमध्यान के समय सिद्धसमान निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है । अन्य सब द्रव्य हेय हैं, यह तात्पर्य है । शुद्ध-बुद्धैकस्वभाव इस पद का क्या अर्थ है? इसको कहते हैं -- मिथ्यात्व, राग आदि समस्त विभावों से रहित होने के कारण आत्मा शुद्ध कहा जाता है तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों से सहित होने के कारण आत्मा बुद्ध है । इस तरह शुद्ध-बुद्धैकस्वभाव पद का अर्थ सर्वत्र समझना चाहिए । अब चूलिका शब्द का अर्थ कहते हैं -- किसी पदार्थ के विशेष व्याख्यान को, कहे हुए विषय में जो अनुक्त विषय हैं उनके व्याख्यान को अथवा उक्त, अनुक्त विषय से मिले हुए कथन को 'चूलिका' कहते हैं ।

इस प्रकार छह द्रव्यों की चूलिका समाप्त हुई ।

द्वितीयोऽधिकारः
इसके पश्चात् जीव और पुद्गल द्रव्य के पर्याय रूप आस्रव आदि ७ पदार्थों का ११ गाथाओं द्वारा व्याख्यान करते हैं । उसमें
  • प्रथम आसवबंधण इत्यादि अधिकार सूचन रूप २८ वीं एक गाथा है ।
  • उसके पश्चात् आस्रव के व्याख्यान रूप आसवदि जेण इत्यादि तीन गाथायें हैं ।
  • तदनन्तर बज्झदि कम्मं जेण इत्यादि दो गाथाओं में बन्ध पदार्थ का निरूपण है ।
  • तत्पश्चात् चेदणपरिणामो इत्यादि ३४, ३५ वीं गाथाओं में संवर पदार्थ का कथन है ।
  • फिर निर्जरा के प्रतिपादन रूप जह कालेण तवेण य इत्यादि ३६ वीं एक गाथा है ।
  • उसके बाद मोक्ष के निरूपण रूप सव्वस्स कम्मणो इत्यादि ३७ वीं एक गाथा है ।
  • तदनन्तर पुण्य, पाप पदार्थों के कथन करने वाली सुहअसुह इत्यादि एक गाथा है ।
इस तरह ११ गाथाओं द्वारा सप्त स्थलों के समुदाय सहित द्वितीय अधिकार की भूमिका समझनी चाहिए ।

यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि यदि जीव, अजीव ये दोनों द्रव्य सर्वथा एकान्त से परिणामी ही हैं तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं तो जीव, अजीव द्रव्य रूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं; इसलिए आस्रव आदि सात पदार्थ कैसे सिद्ध होते हैं? इसका उत्तर देते हैं; कथंचित् परिणामी होने से सात पदार्थों का कथन संगत होता है । कथंचित् परिणामित्व का क्या अर्थ है? वह इस प्रकार है -- जैसे स्फटिकमणि यद्यपि स्वभाव से निर्मल है फिर भी जपापुष्प (लाल फूल) आदि के संसर्ग से लाल आदि अन्य पर्याय रूप परिणमती है (बिल्कुल सफेद स्फटिक मणि के साथ जब जपाफूल होता है तब वह उस फूल की तरह लाल रंग का हो जाता है ।) स्फटिक मणि यद्यपि लाल उपाधि ग्रहण करती है फिर भी निश्चयनय से अपने सफेद निर्मल स्वभाव को नहीं छोड़ती । इसी तरह जीव भी यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनय से स्वाभाविक शुद्ध-चिदानन्दस्वभाव वाला है फिर भी अनादि कर्म-बन्ध रूप पर्याय के कारण राग आदि परद्रव्यजनित उपाधिपर्याय को ग्रहण करता है । यद्यपि जीव पर पर्याय रूप परिणमन करता है तो भी निश्चयनय से अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं छोड़ता । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य के विषय में जानना चाहिए । परस्पर अपेक्षा सहित होना यही कथंचित् परिणामित्व शब्द का अर्थ है । इस प्रकार कथंचित् परिणामित्व सिद्ध होने पर, जीव और पुद्गल की संयोग परिणति से बने हुए आस्रव आदि सप्त पदार्थ घटित होते हैं और वे सात पदार्थ पूर्वोक्त जीव और अजीव द्रव्य सहित ९ हो जाते हैं इसलिए नौ पदार्थ कहे जाते हैं । अभेदनय की अपेक्षा से पुण्य और पाप पदार्थ का आस्रव पदार्थ में या बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव करने से सात तत्त्व कहे जाते हैं ।

शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! यद्यपि कथंचित् परिणामित्व के बल से भेदप्रधान पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा ९ पदार्थ तथा ७ तत्त्व सिद्ध हो गये किन्तु इनसे प्रयोजन क्या सिद्ध हुआ? जैसे अभेदनय की अपेक्षा पुण्य, पाप इन दो पदार्थों का सात पदार्थों में अन्तर्भाव हुआ है उसी तरह विशेष अभेदनय की अपेक्षा से आस्रवादि पदार्थों का भी जीव, अजीव इन दो पदार्थों में अन्तर्भाव कर लेने से जीव तथा अजीव ये दो पदार्थ सिद्ध होते हैं? इन दोनों शंकाओं का परिहार करते हैं कि "कौन तत्त्व हेय हैं और कौन तत्त्व उपादेय है?" इस विषय का परिज्ञान कराने के लिए आस्रव आदि पदार्थ निरूपण करने योग्य हैं । इसी को कहते हैं, अविनाशी अनन्तसुख उपादेय तत्त्व है । उस अक्षय अनन्त सुख का कारण मोक्ष है, मोक्ष के कारण संवर और निर्जरा है । उन संवर और निर्जरा का कारण, विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव वाला निजात्म तत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूप निश्चयरत्नत्रय है तथा उस निश्चय रत्नत्रय का साधक व्यवहार रत्नत्रय है । अब हेय तत्त्व को कहते हैं -- आकुलता को उत्पन्न करने वाला, नरकगति आदि का दुःख तथा निश्चय से इन्द्रियजनित सुख भी हेय यानि त्याज्य है, उसका कारण संसार है और संसार के कारण आस्रव तथा बन्ध ये दो पदार्थ हैं और उस आस्रव का तथा बन्ध का कारण पहले कहे हुए व्यवहार, निश्चयरत्नत्रय से विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र हैं । इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्व का निरूपण करने पर सात तत्त्व तथा नौ पदार्थ स्वयं सिद्ध हो गये ।

अब किस पदार्थ का कर्ता कौन है? इस विषय का कथन करते हैं । निज निरंजन शुद्ध आत्मा से उत्पन्न परम आनन्दरूप सुखामृत-रस-आस्वाद से रहित जो जीव है, वह बहिरात्मा कहलाता है । वह बहिरात्मा आस्रव, बन्ध और पाप इन तीन पदार्थों का कर्ता है । किसी समय जब कषाय और मिथ्यात्व का उदय मन्द हो, तब आगामी भोगों की इच्छा आदि रूप निदान बन्ध से पापानुबन्धी पुण्य पदार्थ का भी कर्ता होता है । जो बहिरात्मा से विपरीत लक्षण का धारक सम्यग्दृष्टि जीव है वह संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का कर्ता होता है और यह सम्यग्दृष्टि जीव, जब राग आदि विभावों से रहित परम सामायिक में स्थित नहीं रह सकता, उस समय विषयकषायों से उत्पन्न होने वाले दुर्ध्यान से बचने के लिए तथा संसार की स्थिति का नाश करता हुआ पुण्यानुबन्धी तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थ का भी कर्ता होता है । अब कर्तृत्व के विषय में नय विभाग का निरूपण करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव के जो पुद्गल द्रव्य पर्याय रूप आस्रव, बन्ध तथा पुण्य, पाप पदार्थों का कर्तापन है, सो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा है और जीव-भाव पुण्यपाप पर्याय रूप पदार्थों का कर्तृत्व अशुद्ध निश्चयनय से है तथा सम्यग्दृष्टि जीव जो द्रव्य रूप संवर, निर्जरा तथा मोक्ष पदार्थ का कर्ता है, सो अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से है तथा संवर, निर्जरा मोक्षस्वरूप जीवभाव पर्याय का 'कर्ता', विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से है और परम शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा तो न बन्ध है न मोक्ष है । जैसा कहा भी है- यह जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है और न बन्ध तथा मोक्ष को करता है, इस प्रकार श्री जिनेन्द्र कहते हैं ।

पूर्वोक्त विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय को आगमभाषा से क्या कहते हैं? सो दिखाते हैं- निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूप से जो होगा उसे भव्य' कहते हैं, इस प्रकार के भव्यत्व नामक पारिणामिक भाव से सम्बन्ध रखने वाली व्यक्ति कही जाती है अर्थात् भव्यत्व पारिणामिक भाव की व्यक्ति यानि प्रकटता है और अध्यात्म भाषा में उसी को "द्रव्यशक्तिरूप शुद्ध पारिणामिकभाव के विषय में भावना" कहते हैं । अन्य पर्याय नामों से इसी द्रव्यशक्ति रूप पारिणामिक भाव की भावना को निर्विकल्प ध्यान तथा शुद्ध उपयोग आदि कहते हैं क्योंकि भावना मुक्ति का कारण है, इसलिए शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येय रूप है, ध्यान या भावना रूप नहीं है । ऐसा क्यों? इसका उत्तर यह है, ध्यान या भावना' पर्याय है अतएव विनाशीक है । 'ध्येय' है, वह भावना पर्याय रहित द्रव्य रूप होने से विनाशरहित है ।

यहाँ तात्पर्य यह है -- मिथ्यात्व, राग आदि विकल्पों से रहित निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्द रूप एक सुख अनुभव रूप जो भावना है वही मुक्ति का कारण है । उसी भावना को कोई पुरुष किन्हीं अन्य नामों [निर्विकल्प ध्यान, शुद्धोपयोग आदि] के द्वारा कहता है । इस प्रकार अनेकान्त का आश्रय लेकर कहने से आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप ये चार पदार्थ जीव और पुद्गल के संयोगपरिणाम स्वरूप जो विभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ, जीव और पुद्गल के संयोग रूप परिणाम के विनाश से उत्पन्न जो विवक्षित स्वभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं ।

जैसे कि --

आर्यिका ज्ञानमती :

आकाश में एक प्रदेश में अनन्त परमाणुओं का स्वंâध भी रह सकता है। आकाश में ऐसी अवकाश देने की योग्यता विद्यमान है।

प्रश्न – प्रदेश किसको कहते हैं?

उत्तर –
जितने आकाश क्षेत्र को परमाणु रोकता है-उतने आकाश क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं।

प्रश्न – असंख्यातप्रदेशी लोक में अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल कैसे रहते हैं?

उत्तर –
यह आकाश द्रव्य में रहने वाले अवगाहन गुण का प्रभाव है। एक निगोदिया जीव के शरीर में सिद्धराशि से अनन्त गुणे जीव समाये हुए हैं। इसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव और उनसे भी अनन्त गुणे पुद्गल समाये हुए हैं।

प्रश्न – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों की संख्या बताइये?

उत्तर –
जीव-अनन्तानन्त हैं। पुद्गल-जीव द्रव्य से अनन्तगुणे पुद्गल हैं। धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य-एक-एक हैं। आकाश-एक अखण्ड द्रव्य है। छ: द्रव्यों के निवास की अपेक्षा इसके दो भेद हैं-१. लोकाकाश, २. अलोकाकाश। कालद्रव्य-असंख्यात हैं।

प्रश्न – जीव और पुद्गल के संयोग से होने वाली पर्याय कौन-कौन हैं ?

उत्तर –
जीव और पुद्गल की संयोगज पर्याय है आस्रव और बंध।

प्रश्न – जीव और पुद्गल वियोगज पर्याय कौन सी है ?

उत्तर –
जीव और पुद्गल के वियोग से उत्पन्न होने वाली पर्याय है-मोक्ष।

प्रश्न – उन दोनों की विभागज पर्याय कौन सी है ?

उत्तर –
जीव और पुद्गल की विभागज पर्याय है संवर और निर्जरा।