ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इस तरह बन्ध चार प्रकार का है ।
बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में जैसे दो पहर आदि समय तक अपने मधुर रस में रहने की मर्यादा है, (बकरी का दूध दो पहर तक अपने रस में ठीक स्थित रहता है; गाय, भैंस का दूध उससे अधिक देर तक ठीक बना रहता है) इत्यादि स्थिति का कथन है; उसी प्रकार जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक कर्म सम्बन्ध की स्थिति है उतने काल को स्थितिबन्ध कहते हैं । जैसे उन बकरी आदि के दूध में तारतम्य से हीनाधिक मीठापन व चिकनाई शक्ति रूप अनुभाग कहा जाता है, उसी प्रकार जीव प्रदेशों में स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं, उनमें भी जो हीनाधिक सुख-दुःख देने की समर्थ शक्ति विशेष है, उसको अनुभाग बन्ध जानना चाहिए । घातिकर्म से सम्बन्ध रखने वाली वह शक्ति लता (बेल) काठ, हाड़ और पाषाण के भेद से चार प्रकार की है । उसी तरह अशुभ अघातिया कर्मों में शक्ति नीम, कांजीर (काली जीरी), विष तथा हालाहल रूप से चार तरह की है तथा शुभ अघातिया कर्मों की शक्ति गुड़, खाण्ड, मिश्री तथा अमृत इन भेदों से चार तरह की है । एक-एक आत्मा के प्रदेश में सिद्धों से अनन्तैक भाग (सिद्धों के अनन्तवें भाग) और अभव्य राशि से अनन्त गुणे ऐसे अनन्तानन्त परमाणु प्रत्येक क्षण में बन्ध को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार प्रदेश बन्ध का स्वरूप है । अब बन्ध का कारण कहते हैं - [जोगो पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति] योग से प्रकृति, प्रदेश और कषाय से स्थित अनुभाग बन्ध होते हैं । निश्चयनय से क्रिया रहित शुद्ध आत्मा के प्रदेश हैं, व्यवहार नय से उन आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन का (चलायमान करने का) जो कारण है उसको योग कहते हैं । उस योग से प्रकृति प्रदेश दो बन्ध होते हैं । दोषरहित परमात्मा की भावना [ध्यान] के प्रतिबन्ध करने वाले क्रोध आदि कषाय के उदय से स्थिति और अनुभाग ये दो बन्ध होते हैं । शंका - आस्रव और बन्ध के होने में मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं, इसलिए आस्रव और बन्ध में क्या भेद है? उत्तर - यह शंका ठीक नहीं क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धों का आगमन है वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धों के आगमन के पीछे द्वितीय क्षण में जो उन कर्मस्कन्धों का जीव के प्रदेशों में स्थित होना, सो बन्ध है । यह भेद आस्रव और बन्ध में है क्योंकि योग और कषायों से प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग नामक चार बन्ध होते हैं । इस कारण बन्ध का नाश करने के लिए योग तथा कषाय का त्याग करके अपनी शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिए; यह तात्पर्य है ॥३३॥ इस तरह बन्ध के व्याख्यानरूप जो दो गाथासूत्र हैं, उनके द्वारा द्वितीय अध्याय में द्वितीय स्थल समाप्त हुआ । अब इसके आगे दो गाथाओं द्वारा संवर पदार्थ का कथन करते हैं । उनमें से प्रथम गाथा में भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप निरूपण करते हैं -- [पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इस तरह बन्ध चार प्रकार का है ।
बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में जैसे दो पहर आदि समय तक अपने मधुर रस में रहने की मर्यादा है, (बकरी का दूध दो पहर तक अपने रस में ठीक स्थित रहता है; गाय, भैंस का दूध उससे अधिक देर तक ठीक बना रहता है) इत्यादि स्थिति का कथन है; उसी प्रकार जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक कर्म सम्बन्ध की स्थिति है उतने काल को स्थितिबन्ध कहते हैं । जैसे उन बकरी आदि के दूध में तारतम्य से हीनाधिक मीठापन व चिकनाई शक्ति रूप अनुभाग कहा जाता है, उसी प्रकार जीव प्रदेशों में स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं, उनमें भी जो हीनाधिक सुख-दुःख देने की समर्थ शक्ति विशेष है, उसको अनुभाग बन्ध जानना चाहिए । घातिकर्म से सम्बन्ध रखने वाली वह शक्ति लता (बेल) काठ, हाड़ और पाषाण के भेद से चार प्रकार की है । उसी तरह अशुभ अघातिया कर्मों में शक्ति नीम, कांजीर (काली जीरी), विष तथा हालाहल रूप से चार तरह की है तथा शुभ अघातिया कर्मों की शक्ति गुड़, खाण्ड, मिश्री तथा अमृत इन भेदों से चार तरह की है । एक-एक आत्मा के प्रदेश में सिद्धों से अनन्तैक भाग (सिद्धों के अनन्तवें भाग) और अभव्य राशि से अनन्त गुणे ऐसे अनन्तानन्त परमाणु प्रत्येक क्षण में बन्ध को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार प्रदेश बन्ध का स्वरूप है । अब बन्ध का कारण कहते हैं - [जोगो पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति] योग से प्रकृति, प्रदेश और कषाय से स्थिति अनुभाग बन्ध होते हैं । निश्चयनय से क्रिया रहित शुद्ध आत्मा के प्रदेश हैं, व्यवहार नय से उन आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन का (चलायमान करने का) जो कारण है उसको योग कहते हैं । उस योग से प्रकृति प्रदेश दो बन्ध होते हैं । दोषरहित परमात्मा की भावना [ध्यान] के प्रतिबन्ध करने वाले क्रोध आदि कषाय के उदय से स्थिति और अनुभाग ये दो बन्ध होते हैं । शंका – आस्रव और बन्ध के होने में मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं, इसलिए आस्रव और बन्ध में क्या भेद है? उत्तर – यह शंका ठीक नहीं क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धों का आगमन है वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धों के आगमन के पीछे द्वितीय क्षण में जो उन कर्मस्कन्धों का जीव के प्रदेशों में स्थित होना, सो बन्ध है । यह भेद आस्रव और बन्ध में है क्योंकि योग और कषायों से प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग नामक चार बन्ध होते हैं । इस कारण बन्ध का नाश करने के लिए योग तथा कषाय का त्याग करके अपनी शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिए; यह तात्पर्य है ॥३३॥ इस तरह बन्ध के व्याख्यानरूप जो दो गाथासूत्र हैं, उनके द्वारा द्वितीय अध्याय में द्वितीय स्थल समाप्त हुआ । अब इसके आगे दो गाथाओं द्वारा संवर पदार्थ का कथन करते हैं । उनमें से प्रथम गाथा में भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप निरूपण करते हैं -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – प्रकृतिबन्ध का क्या लक्षण है ? उत्तर – कर्मों के स्वभाव को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। जैसे-ज्ञानावरणादि। प्रश्न – स्थितिबन्ध किसे कहते हैं ? उत्तर – ज्ञानावरणादि कर्मों का अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है। प्रश्न – अनुभागबन्ध किसे कहते हैं ? उत्तर – ज्ञानावरणादि कर्मों के रस विशेष को अनुभागबन्ध कहते हैं। प्रश्न – प्रदेशबन्ध किसे कहते हैं ? उत्तर – ज्ञानावरणादि कर्मरूप होने वाले पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं। प्रश्न – चारों प्रकार के बन्ध किन-किन निमित्तों से होते हैं ? उत्तर – इन चारों प्रकार के बन्धों में प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं। |