+ बन्ध के भेद और कारण -
पयडिट्ठिदिअणुभाग-प्पदेसभेदा दु चदुविधो बंधो
जोगा पयडिपदेसा, ठिदि अणुभागा कसायदो होंति ॥33॥
बंध चार प्रकार प्रकृति प्रदेश थिती अनुभाग ये ।
योग से प्रकृति प्रदेश अनुभाग थिती कषाय से ॥३३॥
अन्वयार्थ : [पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदा] प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से [बंधो] बन्ध [चदुविहो] चार प्रकार का होता है, उनमें से [पयडिपदेसा] प्रकृति और प्रदेश बन्ध तो [जोगा] मन-वचन-कायरूप योग से होते हैं [दु] तथा [ठिदि-अणुभागा] स्थिति और अनुभागबन्ध [कसायदो] कषाय से [होंति] होते हैं ।
Meaning : Bondage is of four kinds according to its nature or species (prakrti bandha), duration (sthiti bandha), intensity of fruition (anubhāga bandha), and quantity of space-points (pradeśa bandha). Nature bondage and quantity of space-points bondage are due to activity (yoga), and duration bondage, and intensity of fruition bondage are due to passions (kashāya).

  ब्रह्मदेव सूरि    आर्यिका ज्ञानमती 

ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इस तरह बन्ध चार प्रकार का है ।
  • ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति (स्वभाव) क्या है? जैसे देवता के मुख को परदा आच्छादित कर देता है (ढँक देता है) उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को ढँक देता है ।
  • दर्शनावरण की प्रकृति क्या है? राजा के दर्शन की रुकावट जैसे द्वारपाल करता है, उसी तरह दर्शनावरण दर्शन को नहीं होने देता ।
  • सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म की क्या प्रकृति है? मधु (शहद) से लिपटी हुई तलवार की धार चाटने से जैसे कुछ सुख और अधिक दुःख होता है, वैसे ही वेदनीय कर्म भी अल्प सुख और अधिक दुःख देता है ।
  • मोहनीय कर्म का क्या स्वभाव है? मद्यपान के समान, 'हेय उपादेय पदार्थ के ज्ञान की रहितता' यह मोहनीय कर्म का स्वभाव अथवा मोहनीय कर्म की प्रकृति है ।
  • आयुकर्म की क्या प्रकृति है? बेड़ी के समान दूसरी गति में जाने को रोकना, यह आयुकर्म की प्रकृति है ।
  • नामकर्म की प्रकृति क्या है? चित्रकार के समान अनेक प्रकार के शरीर बनाना, यह नामकर्म की प्रकृति है ।
  • गोत्रकर्म का क्या स्वभाव है? छोटे-बड़े घट आदि को बनाने वाले कुम्भकार की तरह उच्च-नीच गोत्र का करना, यह गोत्रकर्म की प्रकृति है ।
  • अन्तरायकर्म का स्वभाव क्या है? भण्डारी के समान 'दान आदि में विघ्न करना', यह अन्तरायकर्म की प्रकृति है । सो ही कहा है -
    पट, प्रतीहार, द्वारपाल, तलवार, मद्य, बेड़ी, चितेरा, कुम्भकार और भण्डारी इन आठों का जैसा स्वभाव है वैसा ही क्रम से ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों का स्वभाव जानना चाहिए ॥१॥
इस प्रकार गाथा में कहे हुए आठ दृष्टान्तों के अनुसार प्रकृति बन्ध जानना चाहिए ।
बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में जैसे दो पहर आदि समय तक अपने मधुर रस में रहने की मर्यादा है, (बकरी का दूध दो पहर तक अपने रस में ठीक स्थित रहता है; गाय, भैंस का दूध उससे अधिक देर तक ठीक बना रहता है) इत्यादि स्थिति का कथन है; उसी प्रकार जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक कर्म सम्बन्ध की स्थिति है उतने काल को स्थितिबन्ध कहते हैं । जैसे उन बकरी आदि के दूध में तारतम्य से हीनाधिक मीठापन व चिकनाई शक्ति रूप अनुभाग कहा जाता है, उसी प्रकार जीव प्रदेशों में स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं, उनमें भी जो हीनाधिक सुख-दुःख देने की समर्थ शक्ति विशेष है, उसको अनुभाग बन्ध जानना चाहिए । घातिकर्म से सम्बन्ध रखने वाली वह शक्ति लता (बेल) काठ, हाड़ और पाषाण के भेद से चार प्रकार की है । उसी तरह अशुभ अघातिया कर्मों में शक्ति नीम, कांजीर (काली जीरी), विष तथा हालाहल रूप से चार तरह की है तथा शुभ अघातिया कर्मों की शक्ति गुड़, खाण्ड, मिश्री तथा अमृत इन भेदों से चार तरह की है । एक-एक आत्मा के प्रदेश में सिद्धों से अनन्तैक भाग (सिद्धों के अनन्तवें भाग) और अभव्य राशि से अनन्त गुणे ऐसे अनन्तानन्त परमाणु प्रत्येक क्षण में बन्ध को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार प्रदेश बन्ध का स्वरूप है ।
अब बन्ध का कारण कहते हैं - [जोगो पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति] योग से प्रकृति, प्रदेश और कषाय से स्थित अनुभाग बन्ध होते हैं । निश्चयनय से क्रिया रहित शुद्ध आत्मा के प्रदेश हैं, व्यवहार नय से उन आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन का (चलायमान करने का) जो कारण है उसको योग कहते हैं । उस योग से प्रकृति प्रदेश दो बन्ध होते हैं । दोषरहित परमात्मा की भावना [ध्यान] के प्रतिबन्ध करने वाले क्रोध आदि कषाय के उदय से स्थिति और अनुभाग ये दो बन्ध होते हैं ।
शंका - आस्रव और बन्ध के होने में मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं, इसलिए आस्रव और बन्ध में क्या भेद है?
उत्तर - यह शंका ठीक नहीं क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धों का आगमन है वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धों के आगमन के पीछे द्वितीय क्षण में जो उन कर्मस्कन्धों का जीव के प्रदेशों में स्थित होना, सो बन्ध है । यह भेद आस्रव और बन्ध में है क्योंकि योग और कषायों से प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग नामक चार बन्ध होते हैं । इस कारण बन्ध का नाश करने के लिए योग तथा कषाय का त्याग करके अपनी शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिए; यह तात्पर्य है ॥३३॥
इस तरह बन्ध के व्याख्यानरूप जो दो गाथासूत्र हैं, उनके द्वारा द्वितीय अध्याय में द्वितीय स्थल समाप्त हुआ ।
अब इसके आगे दो गाथाओं द्वारा संवर पदार्थ का कथन करते हैं । उनमें से प्रथम गाथा में भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप निरूपण करते हैं --


[पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इस तरह बन्ध चार प्रकार का है ।

  • ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति (स्वभाव) क्या है? जैसे देवता के मुख को परदा आच्छादित कर देता है (ढँक देता है) उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को ढँक देता है ।
  • दर्शनावरण की प्रकृति क्या है? राजा के दर्शन की रुकावट जैसे द्वारपाल करता है, उसी तरह दर्शनावरण दर्शन को नहीं होने देता ।
  • सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म की क्या प्रकृति है? मधु (शहद) से लिपटी हुई तलवार की धार चाटने से जैसे कुछ सुख और अधिक दुःख होता है, वैसे ही वेदनीय कर्म भी अल्प सुख और अधिक दुःख देता है ।
  • मोहनीय कर्म का क्या स्वभाव है? मद्यपान के समान, 'हेय उपादेय पदार्थ के ज्ञान की रहितता' यह मोहनीय कर्म का स्वभाव अथवा मोहनीय कर्म की प्रकृति है ।
  • आयुकर्म की क्या प्रकृति है? बेड़ी के समान दूसरी गति में जाने को रोकना, यह आयुकर्म की प्रकृति है ।
  • नामकर्म की प्रकृति क्या है? चित्रकार के समान अनेक प्रकार के शरीर बनाना, यह नामकर्म की प्रकृति है ।
  • गोत्रकर्म का क्या स्वभाव है? छोटे-बड़े घट आदि को बनाने वाले कुम्भकार की तरह उच्च-नीच गोत्र का करना, यह गोत्रकर्म की प्रकृति है ।
  • अन्तरायकर्म का स्वभाव क्या है? भण्डारी के समान 'दान आदि में विघ्न करना', यह अन्तरायकर्म की प्रकृति है । सो ही कहा है -

    पट, प्रतीहार, द्वारपाल, तलवार, मद्य, बेड़ी, चितेरा, कुम्भकार और भण्डारी इन आठों का जैसा स्वभाव है वैसा ही क्रम से ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों का स्वभाव जानना चाहिए ॥१॥
इस प्रकार गाथा में कहे हुए आठ दृष्टान्तों के अनुसार प्रकृति बन्ध जानना चाहिए ।

बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में जैसे दो पहर आदि समय तक अपने मधुर रस में रहने की मर्यादा है, (बकरी का दूध दो पहर तक अपने रस में ठीक स्थित रहता है; गाय, भैंस का दूध उससे अधिक देर तक ठीक बना रहता है) इत्यादि स्थिति का कथन है; उसी प्रकार जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक कर्म सम्बन्ध की स्थिति है उतने काल को स्थितिबन्ध कहते हैं । जैसे उन बकरी आदि के दूध में तारतम्य से हीनाधिक मीठापन व चिकनाई शक्ति रूप अनुभाग कहा जाता है, उसी प्रकार जीव प्रदेशों में स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं, उनमें भी जो हीनाधिक सुख-दुःख देने की समर्थ शक्ति विशेष है, उसको अनुभाग बन्ध जानना चाहिए । घातिकर्म से सम्बन्ध रखने वाली वह शक्ति लता (बेल) काठ, हाड़ और पाषाण के भेद से चार प्रकार की है । उसी तरह अशुभ अघातिया कर्मों में शक्ति नीम, कांजीर (काली जीरी), विष तथा हालाहल रूप से चार तरह की है तथा शुभ अघातिया कर्मों की शक्ति गुड़, खाण्ड, मिश्री तथा अमृत इन भेदों से चार तरह की है । एक-एक आत्मा के प्रदेश में सिद्धों से अनन्तैक भाग (सिद्धों के अनन्तवें भाग) और अभव्य राशि से अनन्त गुणे ऐसे अनन्तानन्त परमाणु प्रत्येक क्षण में बन्ध को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार प्रदेश बन्ध का स्वरूप है ।

अब बन्ध का कारण कहते हैं - [जोगो पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति] योग से प्रकृति, प्रदेश और कषाय से स्थिति अनुभाग बन्ध होते हैं । निश्चयनय से क्रिया रहित शुद्ध आत्मा के प्रदेश हैं, व्यवहार नय से उन आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन का (चलायमान करने का) जो कारण है उसको योग कहते हैं । उस योग से प्रकृति प्रदेश दो बन्ध होते हैं । दोषरहित परमात्मा की भावना [ध्यान] के प्रतिबन्ध करने वाले क्रोध आदि कषाय के उदय से स्थिति और अनुभाग ये दो बन्ध होते हैं ।

शंका – आस्रव और बन्ध के होने में मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं, इसलिए आस्रव और बन्ध में क्या भेद है?

उत्तर –
यह शंका ठीक नहीं क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धों का आगमन है वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धों के आगमन के पीछे द्वितीय क्षण में जो उन कर्मस्कन्धों का जीव के प्रदेशों में स्थित होना, सो बन्ध है । यह भेद आस्रव और बन्ध में है क्योंकि योग और कषायों से प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग नामक चार बन्ध होते हैं । इस कारण बन्ध का नाश करने के लिए योग तथा कषाय का त्याग करके अपनी शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिए; यह तात्पर्य है ॥३३॥

इस तरह बन्ध के व्याख्यानरूप जो दो गाथासूत्र हैं, उनके द्वारा द्वितीय अध्याय में द्वितीय स्थल समाप्त हुआ ।

अब इसके आगे दो गाथाओं द्वारा संवर पदार्थ का कथन करते हैं । उनमें से प्रथम गाथा में भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप निरूपण करते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :

प्रश्न – प्रकृतिबन्ध का क्या लक्षण है ?

उत्तर –
कर्मों के स्वभाव को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। जैसे-ज्ञानावरणादि।

प्रश्न – स्थितिबन्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर –
ज्ञानावरणादि कर्मों का अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है।

प्रश्न – अनुभागबन्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर –
ज्ञानावरणादि कर्मों के रस विशेष को अनुभागबन्ध कहते हैं।

प्रश्न – प्रदेशबन्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर –
ज्ञानावरणादि कर्मरूप होने वाले पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं।

प्रश्न – चारों प्रकार के बन्ध किन-किन निमित्तों से होते हैं ?

उत्तर –
इन चारों प्रकार के बन्धों में प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं।