ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू सो भावसंवरो खलु] जो चेतन परिणाम कर्म-आस्रव को रोकने में कारण है, वह निश्चय से भावसंवर है । [दव्वासवरोहणे अण्णो] द्रव्यकर्मों के आस्रव का निरोध होने पर दूसरा द्रव्यसंवर होता है । वह इस प्रकार है- निश्चयनय से स्वयं सिद्ध होने से अन्य कारण की अपेक्षा से रहित, अविनाशी होने से नित्य, परम प्रकाश स्वभाव होने से स्व-पर प्रकाशन में समर्थ, अनादि अनन्त होने से आदि, मध्य और अन्तरहित, देखे, सुने और अनुभव किए हुए भोगों की आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदि समस्त रागादिक विभावमल से रहित होने के कारण अत्यन्त निर्मल, परम चैतन्यविलासरूप लक्षण का धारक होने से चित्-चमत्कार से भरपूर, स्वाभाविक परमानन्दस्वरूप होने से परम सुख की मूर्ति और आस्रवरहित सहज स्वभाव होने से सब कर्मों के संवर में कारण, इन लक्षणों वाले परमात्मा के स्वभाव की भावना से उत्पन्न जो शुद्ध चेतन परिणाम है सो भावसंवर है । कारणभूत भावसंवर से उत्पन्न हुआ जो कार्यरूप नवीन द्रव्य-कर्मों के आगमन का अभाव सो द्रव्यसंवर है । यह गाथार्थ है । अब संवर के विषय में नयों का विभाग कहते हैं - मिथ्यात्व गुणस्थान से क्षीणकषाय (बारहवें) गुणस्थान तक ऊपर-ऊपर मन्दता के तारतम्य से अशुद्ध निश्चय वर्तता है । उसमें गुणस्थानों के भेद से शुभ, अशुभ और शुद्ध अनुष्ठानरूप तीन उपयोगों का व्यापार होता है । सो कहते हैं - मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र, इन तीनों गुणस्थानों में ऊपर-ऊपर मन्दता से अशुभ उपयोग होता है, (जो अशुभोपयोग प्रथम गुणस्थान में है, उससे कम दूसरे में और दूसरे से कम तीसरे में है) । उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्तसंयत, इन तीन गुणस्थानों में परम्परा से शुद्धउपयोग का साधक ऊपर-ऊपर तारतम्य से शुभ उपयोग रहता है । तदनन्तर अप्रमत्त आदि क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद से विवक्षित एक देश शुद्धनयरूप शुद्ध उपयोग वर्तता है । इनमें से मिथ्यादृष्टि (प्रथम) गुणस्थान में तो संवर है ही नहीं । सासादन आदि गुणस्थानों में, मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थान में १६, दूसरे में २५, तीसरे में शून्य, चौथे में १०, पाँचवें में ४, छठे में ६, सातवें में १, आठवें में २, ३० व ४, नौवें में ५, दसवें में १६ और सयोग केवली के १ प्रकृति की बन्ध व्युच्छित्ति होती है । इस प्रकार बन्धविच्छेद त्रिभंगी में कहे हुए कर्म के अनुसार ऊपर-ऊपर अधिकता से संवर जानना चाहिए । ऐसे अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अशुभ, शुभ, शुद्ध रूप तीनों उपयोगों का व्याख्यान किया । शंका - इस अशुद्ध निश्चयनय में शुद्ध उपयोग किस प्रकार घटित होता है? उत्तर - शुद्ध उपयोग में शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव का धारक स्व-आत्मा ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) होता है, इस कारण उपयोग में शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध अवलम्बनपने से तथा शुद्ध आत्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग सिद्ध होता है । 'संवर' इस शब्द से कहे जाने वाला वह शुद्धोपयोग, संसार के कारणभूत मिथ्यात्व-राग आदि अशुद्ध पर्यायों की तरह अशुद्ध नहीं होता; तथा फलभूत केवलज्ञान स्वरूप शुद्ध पर्याय की भाँति (वह शुद्धोपयोग) शुद्ध भी नहीं होता किन्तु उन अशुद्ध तथा शुद्ध दोनों पर्यायों से विलक्षण, शुद्ध आत्मा के अनुभव स्वरूप निश्चय रत्नत्रय रूप, मोक्ष का कारण, एकदेश में प्रकट रूप और एकदेश में आवरणरहित ऐसा तीसरी अवस्थान्तर रूप कहा जाता है । कोई शंका करता है - केवलज्ञान समस्त आवरण से रहित शुद्ध है, इसलिए केवलज्ञान का कारण भी समस्त आवरण रहित शुद्ध होना चाहिए, क्योंकि 'उपादान कारण के समान कार्य होता है' ऐसा आगम वचन है? इस शंका का उत्तर देते हैं - आपने ठीक कहा; किन्तु उपादान कारण भी, सोलह वानी के सुवर्णरूप कार्य के पूर्व-वर्तिनी वर्णिकारूप उपादान कारण के समान और मिट्टी रूप घट कार्य के प्रति मिट्टी का पिण्ड, स्थास, कोश तथा कुशूल रूप उपादान कारण के समान, कार्य से एकदेश भिन्न होता है (सोलह वानी के सोने के प्रति जैसे पूर्व की सब पन्द्रह वर्णिकायें उपादान कारण हैं और घट के प्रति जैसे मिट्टी पिण्ड, स्थास, कोश, कुशूल आदि उपादान कारण हैं, सो सोलह वानी के सुवर्ण और घट रूप कार्य से एकदेश भिन्न हैं, बिल्कुल सोलह वानी के सुवर्ण रूप और घट रूप नहीं हैं । इसी तरह सब उपादान कारण कार्य से एकदेश भिन्न होते हैं) । यदि उपादान कारण का कार्य के साथ एकान्त से सर्वथा अभेद या भेद हो तो उपर्युक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टान्तों के समान कार्य-कारणभाव सिद्ध नहीं होता । इससे क्या सिद्ध हुआ? एकदेश निरावरणता से क्षायोपशमिक ज्ञान रूप लक्षणवाला एकदेश व्यक्ति रूप, विवक्षित एकदेश शुद्धनय की अपेक्षा संवर शब्द से वाच्य शुद्ध उपयोग स्वरूप क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्ति का कारण होता है । जो लब्धि अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद जीव में नित्य उद्घाटित तथा आवरणरहित ज्ञान सुना जाता है, वह भी सूक्ष्म निगोद में ज्ञानावरण कर्म का सर्व जघन्य क्षयोपशम की अपेक्षा से आवरणरहित है किन्तु सर्वथा आवरणरहित नहीं है । प्रश्न - वह आवरणरहित क्यों रहता है? उत्तर - यदि उस जघन्य ज्ञान का भी आवरण हो जावे तो जीव का ही अभाव हो जायेगा । वास्तव में तो उपरिवर्ती क्षायोपशमिक ज्ञान की अपेक्षा और केवलज्ञान की अपेक्षा से वह ज्ञान भी आवरण सहित है, क्योंकि संसारी जीवों के क्षायिक ज्ञान का अभाव है इसलिए निगोदिया का वह ज्ञान क्षायोपशमिक ही है । यदि नेत्रपटल के एकदेश में निरावरण के समान वह ज्ञान केवलज्ञान का अंशरूप हो तो उस एकदेश (अंश) से भी लोकालोक प्रत्यक्ष हो जाये; परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता; किन्तु अधिक बादलों से आच्छादित सूर्यबिम्ब के समान या निबिड़ नेत्रपटल के समान, निगोदिया का ज्ञान सबसे थोड़ा जानता है, यह तात्पर्य है । अब क्षयोपशम का लक्षण कहते हैं - सब प्रकार से आत्मा के गुणों का आच्छादन करने वाली कर्मों की जो शक्तियाँ हैं, उनको 'सर्वघातिस्पर्द्धक' कहते हैं और विवक्षित एक देश से जो आत्मा के गुणों को आच्छादन करने वाली कर्मशक्तियाँ हैं वे 'देशघातिस्पर्द्धक' कहलाती हैं । सर्वघातिस्पर्द्धकों के उदय का जो अभाव है सो ही क्षय है और उन्हीं सर्वघातिस्पर्द्धकों का जो अस्तित्व है वह उपशम कहलाता है । सर्वघातिस्पर्द्धकों के उदय का अभावरूप क्षय सहित उपशम और उन (कर्मों) के एकदेश घातिस्पर्द्धकों का उदय होना, सो ऐसे तीन प्रकार के समुदाय से क्षयोपशम कहा जाता है । क्षयोपशम में जो भाव हो, वह क्षायोपशमिक भाव है । अथवा देशघातिस्पर्द्धकों के उदय के होते हुए, जीव जो एकदेश ज्ञानादि गुण प्राप्त करता है वह क्षायोपशमिक भाव है । इससे क्या सिद्ध हुआ? पूर्वोक्त सूक्ष्म निगोद जीव में ज्ञानावरण कर्म के देशघातिस्पर्द्धकों का उदय होने के कारण एकदेश से ज्ञान गुण होता है, इस कारण वह ज्ञान क्षायोपशमिक है, क्षायिक नहीं; क्योंकि वहाँ कर्म के एकदेश उदय का सद्भाव है । यहाँ सारांश यह है - यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणवाला क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्ति का कारण है तथापि ध्यान करने वाले पुरुष को, 'नित्य सकल आवरणों से रहित, अखण्ड, एक सकल विमल केवलज्ञानरूप परमात्मा का जो स्वरूप है, वही मैं हूँ, खण्ड ज्ञानरूप नहीं हूँ', ऐसा ध्यान करना चाहिए । इस तरह संवर तत्त्व के व्याख्यान में नय का विभाग जानना चाहिए ॥३४॥ अब संवर के कारणों के भेद कहते हैं, यह एक भूमिका है । किनसे संवर होता है? इस प्रश्न का उत्तर देने वाली दूसरी भूमिका है, इन दोनों भूमिकाओं को मन में धारण करके, श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव गाथासूत्र कहते है -- [चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू सो भावसंवरो खलु] जो चेतन परिणाम कर्म-आस्रव को रोकने में कारण है, वह निश्चय से भावसंवर है । [दव्वासवरोहणे अण्णो] द्रव्यकर्मों के आस्रव का निरोध होने पर दूसरा द्रव्यसंवर होता है । वह इस प्रकार है- निश्चयनय से स्वयं सिद्ध होने से अन्य कारण की अपेक्षा से रहित, अविनाशी होने से नित्य, परम प्रकाश स्वभाव होने से स्व-पर प्रकाशन में समर्थ, अनादि अनन्त होने से आदि, मध्य और अन्तरहित, देखे, सुने और अनुभव किए हुए भोगों की आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदि समस्त रागादिक विभावमल से रहित होने के कारण अत्यन्त निर्मल, परम चैतन्यविलासरूप लक्षण का धारक होने से चित्-चमत्कार से भरपूर, स्वाभाविक परमानन्दस्वरूप होने से परम सुख की मूर्ति और आस्रवरहित सहज स्वभाव होने से सब कर्मों के संवर में कारण, इन लक्षणों वाले परमात्मा के स्वभाव की भावना से उत्पन्न जो शुद्ध चेतन परिणाम है सो भावसंवर है । कारणभूत भावसंवर से उत्पन्न हुआ जो कार्यरूप नवीन द्रव्य-कर्मों के आगमन का अभाव सो द्रव्यसंवर है । यह गाथार्थ है । अब संवर के विषय में नयों का विभाग कहते हैं - मिथ्यात्व गुणस्थान से क्षीणकषाय (बारहवें) गुणस्थान तक ऊपर-ऊपर मन्दता के तारतम्य से अशुद्ध निश्चय वर्तता है । उसमें गुणस्थानों के भेद से शुभ, अशुभ और शुद्ध अनुष्ठानरूप तीन उपयोगों का व्यापार होता है । सो कहते हैं - मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र, इन तीनों गुणस्थानों में ऊपर-ऊपर मन्दता से अशुभ उपयोग होता है, (जो अशुभोपयोग प्रथम गुणस्थान में है, उससे कम दूसरे में और दूसरे से कम तीसरे में है) । उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्तसंयत, इन तीन गुणस्थानों में परम्परा से शुद्धउपयोग का साधक ऊपर-ऊपर तारतम्य से शुभ उपयोग रहता है । तदनन्तर अप्रमत्त आदि क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद से विवक्षित एक देश शुद्धनयरूप शुद्ध उपयोग वर्तता है । इनमें से मिथ्यादृष्टि (प्रथम) गुणस्थान में तो संवर है ही नहीं । सासादन आदि गुणस्थानों में, मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थान में १६, दूसरे में २५, तीसरे में शून्य, चौथे में १०, पाँचवें में ४, छठे में ६, सातवें में १, आठवें में २, ३० व ४, नौवें में ५, दसवें में १६ और सयोग केवली के १ प्रकृति की बन्ध व्युच्छित्ति होती है । इस प्रकार बन्धविच्छेद त्रिभंगी में कहे हुए कर्म के अनुसार ऊपर-ऊपर अधिकता से संवर जानना चाहिए । ऐसे अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अशुभ, शुभ, शुद्ध रूप तीनों उपयोगों का व्याख्यान किया । शंका – इस अशुद्ध निश्चयनय में शुद्ध उपयोग किस प्रकार घटित होता है? उत्तर – शुद्ध उपयोग में शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव का धारक स्व-आत्मा ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) होता है, इस कारण उपयोग में शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध अवलम्बनपने से तथा शुद्ध आत्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग सिद्ध होता है । 'संवर' इस शब्द से कहे जाने वाला वह शुद्धोपयोग, संसार के कारणभूत मिथ्यात्व-राग आदि अशुद्ध पर्यायों की तरह अशुद्ध नहीं होता; तथा फलभूत केवलज्ञान स्वरूप शुद्ध पर्याय की भाँति (वह शुद्धोपयोग) शुद्ध भी नहीं होता किन्तु उन अशुद्ध तथा शुद्ध दोनों पर्यायों से विलक्षण, शुद्ध आत्मा के अनुभव स्वरूप निश्चय रत्नत्रय रूप, मोक्ष का कारण, एकदेश में प्रकट रूप और एकदेश में आवरणरहित ऐसा तीसरी अवस्थान्तर रूप कहा जाता है । कोई शंका करता है - केवलज्ञान समस्त आवरण से रहित शुद्ध है, इसलिए केवलज्ञान का कारण भी समस्त आवरण रहित शुद्ध होना चाहिए, क्योंकि 'उपादान कारण के समान कार्य होता है' ऐसा आगम वचन है? इस शंका का उत्तर देते हैं - आपने ठीक कहा; किन्तु उपादान कारण भी, सोलह वानी के सुवर्णरूप कार्य के पूर्व-वर्तिनी वर्णिकारूप उपादान कारण के समान और मिट्टी रूप घट कार्य के प्रति मिट्टी का पिण्ड, स्थास, कोश तथा कुशूल रूप उपादान कारण के समान, कार्य से एकदेश भिन्न होता है (सोलह वानी के सोने के प्रति जैसे पूर्व की सब पन्द्रह वर्णिकायें उपादान कारण हैं और घट के प्रति जैसे मिट्टी पिण्ड, स्थास, कोश, कुशूल आदि उपादान कारण हैं, सो सोलह वानी के सुवर्ण और घट रूप कार्य से एकदेश भिन्न हैं, बिल्कुल सोलह वानी के सुवर्ण रूप और घट रूप नहीं हैं । इसी तरह सब उपादान कारण कार्य से एकदेश भिन्न होते हैं) । यदि उपादान कारण का कार्य के साथ एकान्त से सर्वथा अभेद या भेद हो तो उपर्युक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टान्तों के समान कार्य-कारणभाव सिद्ध नहीं होता । इससे क्या सिद्ध हुआ? एकदेश निरावरणता से क्षायोपशमिक ज्ञान रूप लक्षणवाला एकदेश व्यक्ति रूप, विवक्षित एकदेश शुद्धनय की अपेक्षा संवर शब्द से वाच्य शुद्ध उपयोग स्वरूप क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्ति का कारण होता है । जो लब्धि अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद जीव में नित्य उद्घाटित तथा आवरणरहित ज्ञान सुना जाता है, वह भी सूक्ष्म निगोद में ज्ञानावरण कर्म का सर्व जघन्य क्षयोपशम की अपेक्षा से आवरणरहित है किन्तु सर्वथा आवरणरहित नहीं है । प्रश्न – वह आवरणरहित क्यों रहता है? उत्तर – यदि उस जघन्य ज्ञान का भी आवरण हो जावे तो जीव का ही अभाव हो जायेगा । वास्तव में तो उपरिवर्ती क्षायोपशमिक ज्ञान की अपेक्षा और केवलज्ञान की अपेक्षा से वह ज्ञान भी आवरण सहित है, क्योंकि संसारी जीवों के क्षायिक ज्ञान का अभाव है इसलिए निगोदिया का वह ज्ञान क्षायोपशमिक ही है । यदि नेत्रपटल के एकदेश में निरावरण के समान वह ज्ञान केवलज्ञान का अंशरूप हो तो उस एकदेश (अंश) से भी लोकालोक प्रत्यक्ष हो जाये; परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता; किन्तु अधिक बादलों से आच्छादित सूर्यबिम्ब के समान या निबिड़ नेत्रपटल के समान, निगोदिया का ज्ञान सबसे थोड़ा जानता है, यह तात्पर्य है । अब क्षयोपशम का लक्षण कहते हैं - सब प्रकार से आत्मा के गुणों का आच्छादन करने वाली कर्मों की जो शक्तियाँ हैं, उनको 'सर्वघातिस्पर्द्धक' कहते हैं और विवक्षित एक देश से जो आत्मा के गुणों को आच्छादन करने वाली कर्मशक्तियाँ हैं वे 'देशघातिस्पर्द्धक' कहलाती हैं । सर्वघातिस्पर्द्धकों के उदय का जो अभाव है सो ही क्षय है और उन्हीं सर्वघातिस्पर्द्धकों का जो अस्तित्व है वह उपशम कहलाता है । सर्वघातिस्पर्द्धकों के उदय का अभावरूप क्षय सहित उपशम और उन (कर्मों) के एकदेश घातिस्पर्द्धकों का उदय होना, सो ऐसे तीन प्रकार के समुदाय से क्षयोपशम कहा जाता है । क्षयोपशम में जो भाव हो, वह क्षायोपशमिक भाव है । अथवा देशघातिस्पर्द्धकों के उदय के होते हुए, जीव जो एकदेश ज्ञानादि गुण प्राप्त करता है वह क्षायोपशमिक भाव है । इससे क्या सिद्ध हुआ? पूर्वोक्त सूक्ष्म निगोद जीव में ज्ञानावरण कर्म के देशघातिस्पर्द्धकों का उदय होने के कारण एकदेश से ज्ञान गुण होता है, इस कारण वह ज्ञान क्षायोपशमिक है, क्षायिक नहीं; क्योंकि वहाँ कर्म के एकदेश उदय का सद्भाव है । यहाँ सारांश यह है - यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणवाला क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्ति का कारण है तथापि ध्यान करने वाले पुरुष को, 'नित्य सकल आवरणों से रहित, अखण्ड, एक सकल विमल केवलज्ञानरूप परमात्मा का जो स्वरूप है, वही मैं हूँ, खण्ड ज्ञानरूप नहीं हूँ', ऐसा ध्यान करना चाहिए । इस तरह संवर तत्त्व के व्याख्यान में नय का विभाग जानना चाहिए ॥३४॥ अब संवर के कारणों के भेद कहते हैं, यह एक भूमिका है । किनसे संवर होता है? इस प्रश्न का उत्तर देने वाली दूसरी भूमिका है, इन दोनों भूमिकाओं को मन में धारण करके, श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव गाथासूत्र कहते है -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – संवर के कितने भेद हैं ? उत्तर – दो भेद हैं-१. भावसंवर २. द्रव्यसंवर। प्रश्न – भावसंवर किसे कहते हैं ? उत्तर – आस्रव को रोकने में कारणभूत आत्म-परिणाम भावसंवर है। प्रश्न – द्रव्यसंवर किसे कहते हैं ? उत्तर – कर्मरूप पुद्गल द्रव्य का आस्रव रुकना द्रव्यसंवर है। प्रश्न – संवर किसको होता है ? उत्तर – संवर तो सम्यग्दृष्टि के ही होता है, क्योंकि कर्म आस्रव के कारण मिथ्यात्व का नाश होता है अत: मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय से आने वाली इकतालीस कर्म प्रकृतियों का निरोध हो जाता है, कर्म प्रकृतियों का आना रुक जाना ही संवर है, मिथ्यादृष्टि के एक भी प्रकृति का निरोध नहीं होता है। |