+ मोक्ष का स्वरूप और उसके भेद -
सव्वस्स कम्मणो जो, खयहेदू अप्पणो हु परिणामो
णेओ स भावमोक्खो, दव्वविमोक्खो य कम्मपुधभावो ॥37॥
भावमुक्ती कर्मक्षय के हेतु निर्मलभाव हैं ।
अर द्रव्यमुक्ती कर्मरज से मुक्त होना जानिये ॥३७ ॥
अन्वयार्थ : [हु] निश्चय से [अप्पणो] आत्मा का [जो परिणामो] जो परिणाम [सव्वस्स कम्मणो] समस्त कर्मों के [खयहेदू] क्षय का कारण है [स] वह [भावमुक्खो ] भावमोक्ष है [य] और [कम्मपुहभावो] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का पृथक् हो जाना [दव्वविमोक्खो] द्रव्यमोक्ष [णेयो] जानना चाहिए ।
Meaning : Disposition of the soul that results into destruction of all karmas, surely, is the psychic or subjective liberation (bhava moksa), and the actual dissociation of all karmas from the soul should be known as the material or objective liberation (dravya moksa).

  ब्रह्मदेव सूरि    आर्यिका ज्ञानमती 

ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
यद्यपि सामान्य रूप से सम्पूर्णतया कर्ममल-कलंक-रहित, शरीर रहित आत्मा के आत्यन्तिक-स्वाभाविक-अचिन्त्य-अद्भुत तथा अनुपम सकल विमल केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों का स्थान रूप जो अवस्थान्तर है, वही मोक्ष कहा जाता है; फिर भी भाव और द्रव्य के भेद से, वह मोक्ष दो प्रकार का होता है, यह वार्तिक पाठ है । सो इस प्रकार है - [णेयो स भावमोक्खो] वह भावमोक्ष जानना चाहिए । वह कौन? [अप्पणो हु परिणामो] निश्चय रत्नत्रय रूप कारण समयसाररूप आत्म-परिणाम । वह आत्मा का परिणाम कैसा है? [सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू] सब द्रव्यभावरूप मोहनीय आदि चार घातियाकर्मों के नाश का जो कारण है । द्रव्यमोक्ष को कहते हैं- [दव्वविमुक्खो] अयोगी गुणस्थान के अन्त समय में द्रव्यमोक्ष होता है । वह द्रव्यमोक्ष कैसा है? [कम्मपुहभावो] टंकोत्कीर्ण शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव स्वरूप परमात्मा से, आयु आदि शेष चार अघातिया कर्मों का भी सर्वथा पृथक् होना, भिन्न होना या विघटना, सो द्रव्यमोक्ष है ।
उस मुक्तात्मा के सुख का वर्णन करते हैं - आत्मा उपादान कारण से सिद्ध, स्वयं अतिशययुक्त, बाधा से शून्य, विशाल, वृद्धि-ह्रास से रहित, विषयों से रहित, प्रतिद्वन्द्व (प्रतिपक्षता) से रहित, अन्य द्रव्यों से निरपेक्ष, उपमा रहित, अपार, नित्य, सर्वदा उत्कृष्ट तथा अनन्त सारभूत परमसुख उन सिद्धों के होता है ॥१॥
शंका - कोई कहता है कि जो सुख इन्द्रियों से उत्पन्न होता है, वही सुख है; सिद्ध जीवों के इन्द्रियों तथा शरीर का अभाव है, इसलिए पूर्वोक्त अतीन्द्रिय सुख सिद्धों के कैसे हो सकता है?
समाधान - सांसारिक सुख तो स्त्री-सेवन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषयों से ही उत्पन्न होता है किन्तु पाँचों इन्द्रियों के विषयों के व्यापार से रहित तथा निर्व्याकुल चित्त वाले पुरुषों को जो सुख है, वह अतीन्द्रिय सुख है, वह इस लोक में भी देखा जाता है । पाँचों इन्द्रियों तथा मन से उत्पन्न होने वाले विकल्पों से रहित तथा निर्विकल्प ध्यान में स्थित परम योगियों के राग आदि के अभाव से जो स्वसंवेद्य [अपने अनुभव में आने वाला] आत्मिक सुख है वह विशेष रूप से अतीन्द्रिय सुख है । भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित आत्मा के समस्त प्रदेशों में आह्लाद रूप पारमार्थिक परम सुख में परिणत मुक्त जीवों के जो अतीन्द्रिय सुख है, वह अत्यन्त विशेष रूप से अतीन्द्रिय है ।
यहाँ शिष्य कहता है - संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बन्ध होता है, इसी प्रकार कर्मों का उदय भी सदा होता रहता है, शुद्ध आत्म-ध्यान का प्रसंग ही नहीं तब मोक्ष कैसे होता है? इसका उत्तर देते हैं जैसे कोई बुद्धिमान् शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर विचार करता है कि "यह मेरे मारने का अवसर है", इसलिए पुरुषार्थ करके शत्रु को मारता है । इसी प्रकार कर्मों की भी सदा एक रूप अवस्था नहीं रहती, स्थिति और अनुभाग की न्यूनता होने पर जब कर्म लघु अर्थात् क्षीण होते हैं, तब बुद्धिमान भव्य जीव, आगम भाषा से क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पाँच लब्धियाँ हैं, इनमें चार तो सामान्य हैं (सभी जीवों को हो सकती हैं), करण लब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती है ।१।
इस गाथा में कही हुई पाँच लब्धियों से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्ध-आत्मा के सम्मुख परिणाम नामक निर्मल भावना विशेष रूप खड्ग से पौरुष करके, कर्म शत्रु को नष्ट करता है । अन्तःकोटाकोटि-प्रमाण कर्मस्थिति रूप तथा लता व काष्ठ के स्थानापन्न अनुभाग रूप से कर्मभार हल्का हो जाने पर भी यदि यह जीव आगम भाषा से अधःप्रवृत्तकरण,अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक और अध्यात्म भाषा से स्वशुद्ध-आत्मसन्मुख परिणामरूप ऐसी कर्मनाशक बुद्धि को किसी भी समय नहीं करेगा, तो यह अभव्यत्व गुण का ही लक्षण जानना चाहिए ।
अन्य भी नौ दृष्टान्त मोक्ष के विषय में जानने योग्य हैं- रत्न, दीपक, सूर्य, दूध, दही, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि ।१।
  1. रत्न-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपी त्नत्रयमयी होने से आत्मा रत्न के समान है ।
  2. दीपक-स्व-पर-प्रकाशक होने से आत्मा दीपक के समान है ।
  3. सूर्य-केवलज्ञानमयी तेज से प्रकाशमान होने से आत्मा सूर्य के समान है ।
  4. दूध-दही-घी-सार वस्तु होने से परमात्मारूपी आत्मा घी के समान है ।
  5. संसारी आत्मा में परमात्मा शक्ति रूप से रहता जैसे दूध व दही में घी रहता है अतः संसारी आत्मा की अपेक्षा आत्मा दूध या दही के समान है ।
  6. पाषाण-टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव होने से आत्मा पाषाण के समान है ।
  7. सुवर्ण-कर्मरूपी कालिमा से रहित होने से आत्मा सुवर्ण के समान है ।
  8. चाँदी-स्वच्छ होने से आत्मा चाँदी के समान है ।
  9. स्फटिक-स्फटिक स्वभाव से निर्मल होने पर भी, हरी पीली काली डाँक के निमित्त से हरी पीली काली रूप परिणम जाती है और डाँक के अभाव में शुद्ध निर्मल हो जाती है । इसी प्रकार आत्मा, स्वभाव से निर्मल होने पर भी, कर्मोदय के निमित्त से राग-द्वेष-मोह रूप परिणमती है और कर्म के अभाव में शुद्ध निर्मल हो जाती है, अतः आत्मा स्फटिक के समान है ।
  10. अग्नि-जैसे अग्नि ईंधन को जलाती है, इसी प्रकार आत्मा कर्म रूपी ईंधन को जलाती है, अतः आत्मा अग्नि के समान है ।

शंका - अनादिकाल से जीव मोक्ष जा रहे हैं, अतः यह जगत् कभी जीवों से बिल्कुल शून्य हो जायेगा?
उत्तर - जैसे भविष्यत् काल सम्बन्धी समयों के क्रम से जाने पर यद्यपि भविष्यत्काल के समयों की राशि में कमी होती है फिर भी उसका अन्त नहीं होगा । इसीप्रकार जीवों के मुक्ति में जाने से यद्यपि जगत् में जीव-राशि की न्यूनता होती है, तो भी उस जीवराशि का अन्त नहीं होगा । यदि जीवों के मोक्ष जाने से शून्यता मानते हो तो पूर्वकाल में बहुत जीव मोक्ष गये हैं, तब भी इस समय जगत् में जीवों की शून्यता क्यों नहीं दिखाई पड़ती अर्थात् शून्यता नहीं हुई । और भी -
अभव्य जीवों तथा अभव्यों के समान दूरान्दूर भव्य जीवों का मोक्ष नहीं है । फिर जगत् की शून्यता कैसे होगी ॥३७॥
इस प्रकार संक्षेप से मोक्षतत्त्व के व्याख्यान रूप एक सूत्र से पंचम स्थल समाप्त हुआ ।
अब इसके आगे छठे स्थल में "गाथा के पूर्वार्ध से पुण्य पाप रूप दो पदार्थों को और उत्तरार्ध से पुण्य प्रकृति तथा पाप प्रकृतियों की संख्या कहता हूँ" इस अभिप्राय को मन में रखकर है, भगवान् इस सूत्र का प्रतिपादन करते हैं --


यद्यपि सामान्य रूप से सम्पूर्णतया कर्ममल-कलंक-रहित, शरीर रहित आत्मा के आत्यन्तिक-स्वाभाविक-अचिन्त्य-अद्भुत तथा अनुपम सकल विमल केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों का स्थान रूप जो अवस्थान्तर है, वही मोक्ष कहा जाता है; फिर भी भाव और द्रव्य के भेद से, वह मोक्ष दो प्रकार का होता है, यह वार्तिक पाठ है । सो इस प्रकार है - [णेयो स भावमोक्खो] वह भावमोक्ष जानना चाहिए । वह कौन? [अप्पणो हु परिणामो] निश्चय रत्नत्रय रूप कारण समयसाररूप आत्म-परिणाम । वह आत्मा का परिणाम कैसा है? [सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू] सब द्रव्यभावरूप मोहनीय आदि चार घातियाकर्मों के नाश का जो कारण है । द्रव्यमोक्ष को कहते हैं- [दव्वविमुक्खो] अयोगी गुणस्थान के अन्त समय में द्रव्यमोक्ष होता है । वह द्रव्यमोक्ष कैसा है? [कम्मपुहभावो] टंकोत्कीर्ण शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव स्वरूप परमात्मा से, आयु आदि शेष चार अघातिया कर्मों का भी सर्वथा पृथक् होना, भिन्न होना या विघटना, सो द्रव्यमोक्ष है ।

उस मुक्तात्मा के सुख का वर्णन करते हैं - आत्मा उपादान कारण से सिद्ध, स्वयं अतिशययुक्त, बाधा से शून्य, विशाल, वृद्धि-ह्रास से रहित, विषयों से रहित, प्रतिद्वन्द्व (प्रतिपक्षता) से रहित, अन्य द्रव्यों से निरपेक्ष, उपमा रहित, अपार, नित्य, सर्वदा उत्कृष्ट तथा अनन्त सारभूत परमसुख उन सिद्धों के होता है ॥१॥

शंका – कोई कहता है कि जो सुख इन्द्रियों से उत्पन्न होता है, वही सुख है; सिद्ध जीवों के इन्द्रियों तथा शरीर का अभाव है, इसलिए पूर्वोक्त अतीन्द्रिय सुख सिद्धों के कैसे हो सकता है?

समाधान –
सांसारिक सुख तो स्त्री-सेवन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषयों से ही उत्पन्न होता है किन्तु पाँचों इन्द्रियों के विषयों के व्यापार से रहित तथा निर्व्याकुल चित्त वाले पुरुषों को जो सुख है, वह अतीन्द्रिय सुख है, वह इस लोक में भी देखा जाता है । पाँचों इन्द्रियों तथा मन से उत्पन्न होने वाले विकल्पों से रहित तथा निर्विकल्प ध्यान में स्थित परम योगियों के राग आदि के अभाव से जो स्वसंवेद्य [अपने अनुभव में आने वाला] आत्मिक सुख है वह विशेष रूप से अतीन्द्रिय सुख है । भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित आत्मा के समस्त प्रदेशों में आह्लाद रूप पारमार्थिक परम सुख में परिणत मुक्त जीवों के जो अतीन्द्रिय सुख है, वह अत्यन्त विशेष रूप से अतीन्द्रिय है ।

यहाँ शिष्य कहता है - संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बन्ध होता है, इसी प्रकार कर्मों का उदय भी सदा होता रहता है, शुद्ध आत्म-ध्यान का प्रसंग ही नहीं तब मोक्ष कैसे होता है? इसका उत्तर देते हैं जैसे कोई बुद्धिमान् शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर विचार करता है कि "यह मेरे मारने का अवसर है", इसलिए पुरुषार्थ करके शत्रु को मारता है । इसी प्रकार कर्मों की भी सदा एक रूप अवस्था नहीं रहती, स्थिति और अनुभाग की न्यूनता होने पर जब कर्म लघु अर्थात् क्षीण होते हैं, तब बुद्धिमान भव्य जीव, आगम भाषा से क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पाँच लब्धियाँ हैं, इनमें चार तो सामान्य हैं (सभी जीवों को हो सकती हैं), करण लब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती है ।१।

इस गाथा में कही हुई पाँच लब्धियों से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्ध-आत्मा के सम्मुख परिणाम नामक निर्मल भावना विशेष रूप खड्ग से पौरुष करके, कर्म शत्रु को नष्ट करता है । अन्तःकोटाकोटि-प्रमाण कर्मस्थिति रूप तथा लता व काष्ठ के स्थानापन्न अनुभाग रूप से कर्मभार हल्का हो जाने पर भी यदि यह जीव आगम भाषा से अधःप्रवृत्तकरण,अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक और अध्यात्म भाषा से स्वशुद्ध-आत्मसन्मुख परिणामरूप ऐसी कर्मनाशक बुद्धि को किसी भी समय नहीं करेगा, तो यह अभव्यत्व गुण का ही लक्षण जानना चाहिए ।

अन्य भी नौ दृष्टान्त मोक्ष के विषय में जानने योग्य हैं- रत्न, दीपक, सूर्य, दूध, दही, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि ।१।
  1. रत्न- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपी रत्नत्रयमयी होने से आत्मा रत्न के समान है ।
  2. दीपक- स्व-पर-प्रकाशक होने से आत्मा दीपक के समान है ।
  3. सूर्य- केवलज्ञानमयी तेज से प्रकाशमान होने से आत्मा सूर्य के समान है ।
  4. दूध-दही-घी- सार वस्तु होने से परमात्मारूपी आत्मा घी के समान है । संसारी आत्मा में परमात्मा शक्ति रूप से रहता जैसे दूध व दही में घी रहता है अतः संसारी आत्मा की अपेक्षा आत्मा दूध या दही के समान है ।
  5. पाषाण- टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव होने से आत्मा पाषाण के समान है ।
  6. सुवर्ण- कर्मरूपी कालिमा से रहित होने से आत्मा सुवर्ण के समान है ।
  7. चाँदी- स्वच्छ होने से आत्मा चाँदी के समान है ।
  8. स्फटिक- स्फटिक स्वभाव से निर्मल होने पर भी, हरी पीली काली डाँक के निमित्त से हरी पीली काली रूप परिणम जाती है और डाँक के अभाव में शुद्ध निर्मल हो जाती है । इसी प्रकार आत्मा, स्वभाव से निर्मल होने पर भी, कर्मोदय के निमित्त से राग-द्वेष-मोह रूप परिणमती है और कर्म के अभाव में शुद्ध निर्मल हो जाती है, अतः आत्मा स्फटिक के समान है ।
  9. अग्नि- जैसे अग्नि ईंधन को जलाती है, इसी प्रकार आत्मा कर्म रूपी ईंधन को जलाती है, अतः आत्मा अग्नि के समान है ।


शंका – अनादिकाल से जीव मोक्ष जा रहे हैं, अतः यह जगत् कभी जीवों से बिल्कुल शून्य हो जायेगा?

उत्तर –
जैसे भविष्यत् काल सम्बन्धी समयों के क्रम से जाने पर यद्यपि भविष्यत्काल के समयों की राशि में कमी होती है फिर भी उसका अन्त नहीं होगा । इसीप्रकार जीवों के मुक्ति में जाने से यद्यपि जगत् में जीव-राशि की न्यूनता होती है, तो भी उस जीवराशि का अन्त नहीं होगा । यदि जीवों के मोक्ष जाने से शून्यता मानते हो तो पूर्वकाल में बहुत जीव मोक्ष गये हैं, तब भी इस समय जगत् में जीवों की शून्यता क्यों नहीं दिखाई पड़ती अर्थात् शून्यता नहीं हुई । और भी -

अभव्य जीवों तथा अभव्यों के समान दूरान्दूर भव्य जीवों का मोक्ष नहीं है । फिर जगत् की शून्यता कैसे होगी ॥३७॥

इस प्रकार संक्षेप से मोक्षतत्त्व के व्याख्यान रूप एक सूत्र से पंचम स्थल समाप्त हुआ ।

अब इसके आगे छठे स्थल में "गाथा के पूर्वार्ध से पुण्य पाप रूप दो पदार्थों को और उत्तरार्ध से पुण्य प्रकृति तथा पाप प्रकृतियों की संख्या कहता हूँ" इस अभिप्राय को मन में रखकर, भगवान् इस सूत्र का प्रतिपादन करते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :

प्रश्न – मोक्ष किसे कहते हैं ? इसके भेद बताइये।

उत्तर –
समस्त कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष कहलाता है। मोक्ष के दो भेद हैं—भाव मोक्ष तथा द्रव्य मोक्ष।

प्रश्न – मोक्ष कौन प्राप्त करते हैं ?

उत्तर –
भव्य जीव कर्मरहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।

प्रश्न – क्या संसार के सभी जीव मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ?

उत्तर –
नहीं, भव्य जीवों में ही मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता होती है।

प्रश्न – भव्य किसे कहते हैं ?

उत्तर –
जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को प्राप्त करने की योग्यता है, वे भव्य कहलाते हैं।