+ निर्जरा का स्वरूप -
जह कालेण तवेण य, भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण
भावेण सडदि णेया, तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा ॥36॥
द्रव निर्जरा है कर्म झरना और उसके हेतु जो ।
तपरूप निर्मल भाव वे ही भावनिर्जर जानिये ॥३६॥
अन्वयार्थ : [जह कालेण] कर्मों की स्थिति पूर्ण होने से [भुत्तरसं] जिसका फल भोगा जा चुका है ऐसा [कम्मपुग्गलं] कर्मरूप पुद्गल [जेण भावेण] जिस परिणाम से [सडदि] झड़ता (छूटता) है (वही परिणाम सविपाक भावनिर्जरा है) [य] और [तवेण] तप द्वारा [जेण भावेण] जिस (आत्म) परिणाम से [कम्मपुग्गलं] कर्मरूप पुद्गल [सडदि] झड़ता (छूटता) है (वही परिणाम अविपाक भावनिर्जरा है) तथा [जहकालेण] कर्मों की स्थिति पूर्ण होने से [य] अथवा [तवेण] तप द्वारा [कम्मपुग्गलं] (ज्ञानावरण आदि) कर्मरूप पुद्गल [सडदि] झड़ता (छूटता) है (वह सविपाक-द्रव्यनिर्जरा और अविपाक-द्रव्यनिर्जरा) [इदि णिज्जरा दुविहा] इस प्रकार निर्जरा दो प्रकार की [णेया] जाननी चाहिए ।
Meaning : Dispositions of the soul to get rid of the karmic matter already bound with it, either when it falls off by itself on fruition, or when it is annihilated through asceticism (tapas), constitute the subjective shedding of karmas (bhāva nirjarā). The actual dissociation of the karmic matter from the soul is the objective shedding of karmas (dravya nirjarā). Thus nirjarā should be known of two kinds.

  ब्रह्मदेव सूरि    आर्यिका ज्ञानमती 

ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
णेया इत्यादि सूत्र का व्याख्यान करते हैं । [णेया] जानना चाहिए । किसको? [णिज्जरा] भाव निर्जरा को । वह क्या है? निर्विकार परम चैतन्य चित्-चमत्कार के अनुभव से उत्पन्न सहज-आनन्द-स्वभाव सुखामृत के आस्वाद रूप, वह भाव निर्जरा है । यहाँ 'भाव' शब्द का अध्याहार (विवक्षा से ग्रहण) किया गया है । [जेण भावेण] जीव के जिस परिणाम से क्या होता है? [सडदि] जीर्ण होता है, गिरता है, गलता है अथवा नष्ट होता है । कौन? [कम्मपुग्गलं] कर्म-शत्रुओं का नाश करने वाले निज शुद्ध-आत्मा से विलक्षण कर्मरूपी पुद्गल द्रव्य । कैसा होकर? [भुत्तरसं] अपने उदयकाल में जीव को सांसारिक सुख तथा दुःख रूप रस देकर । किस कारण गलता है? [जहकालेण] अपने समय पर पकने वाले आम के फल के समान सविपाक निर्जरा की अपेक्षा, अन्तरंग में निज-शुद्ध-आत्म-अनुभव रूप परिणाम के बहिरंग सहकारी कारणभूत काललब्धि रूप यथासमय गलते हैं, मात्र यथाकाल से ही नहीं गलते किन्तु [तवेण य] बिना समय पके हुए आम आदि फलों के सदृश, अविपाक निर्जरा की अपेक्षा, समस्त परद्रव्यों में इच्छा के रोकने रूप अभ्यन्तर तप से और आत्म-तत्त्व के अनुभव को साधने वाले उपवास आदि बारह प्रकार के बहिरंग तप से भी गलते हैं । [तस्सडणं] उस कर्म का गलना द्रव्य निर्जरा है ।
शंका - आपने जो पहले सडदि ऐसा कहा है उसी से द्रव्य निर्जरा प्राप्त हो गई, फिर सडणं इस शब्द का दुबारा कथन क्यों किया?
समाधान - पहले जो सडदि शब्द कहा गया है, उससे निर्मल आत्मा के अनुभव को ग्रहण करने रूप भाव निर्जरा नामक परिणाम का सामर्थ्य कहा गया है, द्रव्य निर्जरा का कथन नहीं किया गया । इदि दुविहा इस प्रकार द्रव्य और भाव स्वरूप से निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिए ।
यहाँ शिष्य पूछता है कि जो सविपाक निर्जरा है, वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है । इसलिए सम्यग्ज्ञानियों के सविपाक निर्जरा होती है, यह नियम नहीं है । इसका उत्तर यह है- यहाँ (मोक्ष प्रकरण में) जो संवर-पूर्वक निर्जरा है उसी को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वही मोक्ष का कारण है और जो अज्ञानियों के निर्जरा होती है वह तो गजस्नान (हाथी के स्नान) के समान निष्फल है, क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े कर्मों की तो निर्जरा करता है और बहुत से कर्मों को बाँधता है । इस कारण अज्ञानियों की निर्जरा का यहाँ ग्रहण नहीं है । सराग सम्यग्दृष्टियों के जो निर्जरा है, वह यद्यपि अशुभ कर्मों का नाश करती है (शुभ कर्मों का नाश नहीं करती) फिर भी संसार की स्थिति को थोड़ा करती है अर्थात् जीव के संसार-भ्रमण को घटाती है । उसी भव में तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य बन्ध का कारण हो जाती है और परम्परा से मोक्ष का कारण है । वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पुण्य तथा पाप दोनों का नाश होने पर उसी भव में वह निर्जरा मोक्ष का कारण होती है । सो ही श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव ने कहा है -
अज्ञानी जिन कर्मों का एक लाख करोड़ वर्षों में नाश करता है, उन्हीं कर्मों को ज्ञानी जीव मन-वचन-काय की गुप्ति द्वारा एक उच्छ्वास मात्र में नष्ट कर देता है ॥१॥
शंका - सम्यग्दृष्टियों के 'वीतराग' विशेषण किस लिए लगाया है, क्योंकि राग आदि भाव हेय हैं, ये मेरे नहीं हैं ऐसा भेदविज्ञान होने पर, उसके राग का अनुभव होते हुए भी ज्ञानमात्र से ही मोक्ष हो जाता है?
समाधान - अन्धकार में दो मनुष्य हैं, एक के हाथ में दीपक है और दूसरा बिना दीपक के है । उस दीपक रहित पुरुष को कुएँ तथा सर्प आदि का ज्ञान नहीं होता, इसलिए कुएँ आदि में गिरकर नाश होने में उसका दोष नहीं किन्तु हाथ में दीपक वाले मनुष्य का कुएँ में गिरने आदि से नाश होने पर, दीपक का कोई फल नहीं हुआ । जो कूपपतन आदि से बचता है उसके दीपक का फल है । इसी प्रकार जो कोई मनुष्य राग आदि हेय हैं, मेरे नहीं हैं इस भेदविज्ञान को नहीं जानता, वह तो कर्मों से बँधता ही है । दूसरा कोई मनुष्य भेदविज्ञान के होने पर भी जितने अंशों में रागादिक का अनुभव करता है, उतने अंशों से वह भेदविज्ञानी भी बँधता ही है, उसके रागादि के भेदविज्ञान का भी फल नहीं है । जो भेदविज्ञान होने पर राग आदि का त्याग करता है उसके भेदविज्ञान का फल है, ऐसा जानना चाहिए । सो ही कहा है -
मार्ग में सर्प आदि से बचना, नेत्रों से देखने का यह फल है; देखकर भी सर्प के बिल में पड़ने वाले के नेत्र निरर्थक हैं ॥३६॥
इस प्रकार निर्जरा तत्त्व के व्याख्यान में एक सूत्र द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ ।
अब मोक्षतत्त्व का कथन करते हैं --


णेया इत्यादि सूत्र का व्याख्यान करते हैं । [णेया] जानना चाहिए । किसको? [णिज्जरा] भाव निर्जरा को । वह क्या है? निर्विकार परम चैतन्य चित्-चमत्कार के अनुभव से उत्पन्न सहज-आनन्द-स्वभाव सुखामृत के आस्वाद रूप, वह भाव निर्जरा है । यहाँ 'भाव' शब्द का अध्याहार (विवक्षा से ग्रहण) किया गया है । [जेण भावेण] जीव के जिस परिणाम से क्या होता है? [सडदि] जीर्ण होता है, गिरता है, गलता है अथवा नष्ट होता है । कौन? [कम्मपुग्गलं] कर्म-शत्रुओं का नाश करने वाले निज शुद्ध-आत्मा से विलक्षण कर्मरूपी पुद्गल द्रव्य । कैसा होकर? [भुत्तरसं] अपने उदयकाल में जीव को सांसारिक सुख तथा दुःख रूप रस देकर । किस कारण गलता है? [जहकालेण] अपने समय पर पकने वाले आम के फल के समान सविपाक निर्जरा की अपेक्षा, अन्तरंग में निज-शुद्ध-आत्म-अनुभव रूप परिणाम के बहिरंग सहकारी कारणभूत काललब्धि रूप यथासमय गलते हैं, मात्र यथाकाल से ही नहीं गलते किन्तु [तवेण य] बिना समय पके हुए आम आदि फलों के सदृश, अविपाक निर्जरा की अपेक्षा, समस्त परद्रव्यों में इच्छा के रोकने रूप अभ्यन्तर तप से और आत्म-तत्त्व के अनुभव को साधने वाले उपवास आदि बारह प्रकार के बहिरंग तप से भी गलते हैं । [तस्सडणं] उस कर्म का गलना द्रव्य निर्जरा है ।

शंका – आपने जो पहले सडदि ऐसा कहा है उसी से द्रव्य निर्जरा प्राप्त हो गई, फिर सडणं इस शब्द का दुबारा कथन क्यों किया?

समाधान –
पहले जो सडदि शब्द कहा गया है, उससे निर्मल आत्मा के अनुभव को ग्रहण करने रूप भाव निर्जरा नामक परिणाम का सामर्थ्य कहा गया है, द्रव्य निर्जरा का कथन नहीं किया गया । इदि दुविहा इस प्रकार द्रव्य और भाव स्वरूप से निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिए ।

यहाँ शिष्य पूछता है कि जो सविपाक निर्जरा है, वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है । इसलिए सम्यग्ज्ञानियों के सविपाक निर्जरा होती है, यह नियम नहीं है । इसका उत्तर यह है- यहाँ (मोक्ष प्रकरण में) जो संवर-पूर्वक निर्जरा है उसी को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वही मोक्ष का कारण है और जो अज्ञानियों के निर्जरा होती है वह तो गजस्नान (हाथी के स्नान) के समान निष्फल है, क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े कर्मों की तो निर्जरा करता है और बहुत से कर्मों को बाँधता है । इस कारण अज्ञानियों की निर्जरा का यहाँ ग्रहण नहीं है । सराग सम्यग्दृष्टियों के जो निर्जरा है, वह यद्यपि अशुभ कर्मों का नाश करती है (शुभ कर्मों का नाश नहीं करती) फिर भी संसार की स्थिति को थोड़ा करती है अर्थात् जीव के संसार-भ्रमण को घटाती है । उसी भव में तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य बन्ध का कारण हो जाती है और परम्परा से मोक्ष का कारण है । वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पुण्य तथा पाप दोनों का नाश होने पर उसी भव में वह निर्जरा मोक्ष का कारण होती है । सो ही श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव ने कहा है -

अज्ञानी जिन कर्मों का एक लाख करोड़ वर्षों में नाश करता है, उन्हीं कर्मों को ज्ञानी जीव मन-वचन-काय की गुप्ति द्वारा एक उच्छ्वास मात्र में नष्ट कर देता है ॥१॥

शंका – सम्यग्दृष्टियों के 'वीतराग' विशेषण किस लिए लगाया है, क्योंकि राग आदि भाव हेय हैं, ये मेरे नहीं हैं ऐसा भेदविज्ञान होने पर, उसके राग का अनुभव होते हुए भी ज्ञानमात्र से ही मोक्ष हो जाता है?

समाधान –
अन्धकार में दो मनुष्य हैं, एक के हाथ में दीपक है और दूसरा बिना दीपक के है । उस दीपक रहित पुरुष को कुएँ तथा सर्प आदि का ज्ञान नहीं होता, इसलिए कुएँ आदि में गिरकर नाश होने में उसका दोष नहीं किन्तु हाथ में दीपक वाले मनुष्य का कुएँ में गिरने आदि से नाश होने पर, दीपक का कोई फल नहीं हुआ । जो कूपपतन आदि से बचता है उसके दीपक का फल है । इसी प्रकार जो कोई मनुष्य राग आदि हेय हैं, मेरे नहीं हैं इस भेदविज्ञान को नहीं जानता, वह तो कर्मों से बँधता ही है । दूसरा कोई मनुष्य भेदविज्ञान के होने पर भी जितने अंशों में रागादिक का अनुभव करता है, उतने अंशों से वह भेदविज्ञानी भी बँधता ही है, उसके रागादि के भेदविज्ञान का भी फल नहीं है । जो भेदविज्ञान होने पर राग आदि का त्याग करता है उसके भेदविज्ञान का फल है, ऐसा जानना चाहिए । सो ही कहा है -

मार्ग में सर्प आदि से बचना, नेत्रों से देखने का यह फल है; देखकर भी सर्प के बिल में पड़ने वाले के नेत्र निरर्थक हैं ॥३६॥

इस प्रकार निर्जरा तत्त्व के व्याख्यान में एक सूत्र द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ ।

अब मोक्षतत्त्व का कथन करते हैं --
आर्यिका ज्ञानमती :

फल देकर आत्मा से कर्मों का एक देश अलग होना निर्जरा कहलाती है। कर्मों की स्थिति पूरी होने पर जब वे उदय में आते हैं और उनका फल भोग लिया जाता है तब वे निर्जीर्ण हो जाते हैं। वह सविपाक-निर्जरा है तथा अकाल में तप आदि के द्वारा कर्मों का उदय में आकर खिर जाना अविपाक निर्जरा है। ये दोनों भेद भाव-निर्जरा और द्रव्य-निर्जरा दोनों में ही हो जाते हैं।

प्रश्न – निर्जरा किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये।

उत्तर –
बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना निर्जरा कहलाती है। निर्जरा के दो भेद हैं—१. भाव-निर्जरा, २. द्रव्य-निर्जरा। सविपाक और अविपाक निर्जरा के भेद से भी निर्जरा दो प्रकार की है।

प्रश्न – भाव निर्जरा का स्वरूप बताओ।

उत्तर –
जिन परिणामों से बँधे हुए कर्म एकदेश झड़ जाते हैं उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं।

प्रश्न – द्रव्य निर्जरा का लक्षण क्या है ?

उत्तर –
बँधे हुए द्रव्य कर्मों का एकदेश निर्जीर्ण होना द्रव्य निर्जरा है।

प्रश्न – सविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?

उत्तर –
अपनी अवधि पाकर या फल देकर बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा समय के अनुसार पककर अपने आप गिरे हुए आम के समान होती है।

प्रश्न – अविपाक निर्जरा का क्या स्वरूप है ?

उत्तर –
तपश्चरण के द्वारा समय से पहले ही बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना अविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा पाल में रखकर पकाये गये आम के समान होती है।

प्रश्न – तप किसे कहते हैं तथा तप के कितने भेद हैं ?

उत्तर –
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को प्रकट करने के लिये इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है। मुख्यरूप से तप दो प्रकार का है—१. बाह्य तप तथा २. आभ्यन्तर तप।

प्रश्न – बाह्य तप किसे कहते हैं ?

उत्तर –
जो बाहर से देखने में आता है अथवा जिसे सभी लोग पालन करते हैं, वह बाह्य तप है।

प्रश्न – बाह्य तप के कितने भेद हैं ?

उत्तर –
बाह्य तप के छह भेद हैं—१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३.वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्तशय्यासन और ६. कायक्लेश।

प्रश्न – आभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ?

उत्तर –
जिन तपों का आत्मा से सीधा सम्बन्ध होता है वे आभ्यन्तर तप कहे जाते हैं।

प्रश्न – आभ्यन्तर तप के कितने भेद हैं ?

उत्तर –
आभ्यन्तर तप के छह भेद हैं—१. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैय्यावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान।

प्रश्न – प्रायश्चित तप के कितने भेद हैं, उनके नाम बतायें ?

उत्तर –
प्रायश्चित तप के नव भेद होते हैं—१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार, ९. उपस्थापना।

प्रश्न – विनय के भेद तथा नाम बताइये ?

उत्तर –
विनय के चार भेद हैं—१. ज्ञान विनय, २. दर्शन विनय, ३. चारित्र विनय तथा ४. उपचार विनय।

प्रश्न – वैय्यावृत्य तप के भेद व नाम बताइये ?

उत्तर –
वैय्यावृत्य तप के १० भेद हैं—१. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्ष्य, ५. ग्लान, ६. गण, ७. कुल, ८. संघ, ९. साधु, १०. मनोज्ञ। इन दस प्रकार के मुनियों की सेवा करना दस प्रकार का वैय्यावृत्य है।

प्रश्न – स्वाध्याय तप के भेद व नाम बताओ ?

उत्तर –
स्वाध्याय तप पाँच प्रकार का है—१. वाचना, २. पृच्छना, ३. अनुप्रेक्षा, ४. आम्नाय और ५. धर्मोपदेश।

प्रश्न – व्युत्सर्ग तप के भेद व नाम बताइये ?

उत्तर –
व्युत्सर्ग तप के दो भेद हैं—बाह्य और आभ्यन्तर। धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है तथा क्रोधादि अशुभ भावों का त्याग करना आभ्यन्तर व्युत्सर्ग तप है।

प्रश्न – ध्यान तप के भेद व नाम बताओ ?

उत्तर –
ध्यान तप के चार भेद हैं—१. आत्र्त ध्यान, २. रौद्र ध्यान, ३. धम्र्य ध्यान और ४. शुक्ल ध्यान।