ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं] छद्मस्थ-संसारी जीवों के सत्तावलोकन-रूप दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है । क्यों? [ण दुण्णि उवओगा जुगवं जम्हा] क्योंकि छद्मस्थों के ज्ञानोपयोगऔर दर्शनोपयोग ये दोनों एक साथ नहीं होते । [केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि] और केवली भगवान् के ज्ञान दर्शन दोनों उपयोग एक ही साथ होते हैं । इसका विस्तार से कथन करते हैं -- चक्षु आदि इन्द्रियों के अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार अपने योग्य देश में विद्यमान रूप आदि अपने विषयों का ग्रहण करना ही सन्निपात, सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष कहा गया है । यहाँ नैयायिक मत के समान चक्षु आदि इन्द्रियों का जो अपने-अपने रूप आदि विषयों के पास जाना है, उसको 'सन्निकर्ष' न कहना चाहिए । इन्द्रिय पदार्थ का वह सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष जिसका लक्षण है; ऐसे लक्षण वाला निर्विकल्पक-सत्तावलोकन दर्शन है, उस दर्शनपूर्वक "यह सफेद है" इत्यादि अवग्रह आदि विकल्परूप तथा पाँचों इन्द्रियों व अनिन्द्रिय मन से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान है । उक्त लक्षण वाले मतिज्ञानपूर्वक, धुँए से अग्नि के ज्ञान के समान, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को ग्रहण करने रूप लिंगज (चिह्न से उत्पन्न होने वाला) तथा इसी प्रकार घट आदि शब्दों के सुनने रूप शब्दज (शब्द से उत्पन्न होने वाला), ऐसे दो प्रकार का श्रुतज्ञान होता है (श्रुतज्ञान दो तरह का है- लिंगज और शब्दज । उनमें से एक पदार्थ को जानकर उसके द्वारा दूसरे पदार्थ को जानना, वह लिंगज श्रुतज्ञान है । शब्दों को सुनने से जो पदार्थ का ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान है) । अवधिदर्शनपूर्वक अवधिज्ञान होता है । ईहामतिज्ञानपूर्वक मनःपर्ययज्ञान होता है । यहाँ श्रुतज्ञान को और मनःपर्ययज्ञान को उत्पन्न करने वाला अवग्रह, ईहा आदिरूप मतिज्ञान कहा है, वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है, इसलिए वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है । इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान, इन दोनों को भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिए । इस प्रकार छद्मस्थ जीवों के सावरण क्षायोपशमिक-ज्ञान होने से, दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है । केवली भगवान् के निर्विकार स्वसंवेदन से उत्पन्न निरावरण क्षायिक ज्ञान होने से, बादल हट जाने पर सूर्य के युगपत् आतप और प्रकाश के समान, दर्शन और ज्ञान ये दोनों युगपत् होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । प्रश्न - 'छद्मस्थ' शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर - 'छद्म' शब्द से ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ये दोनों कर्म कहे जाते हैं, उस 'छद्म' में जो रहते हैं वे छद्मस्थ हैं । इस प्रकार तर्क के अभिप्राय से सत्तावलोकन रूप दर्शन का व्याख्यान किया । इसके आगे सिद्धान्त के अभिप्राय से कहते हैं । चूँकि आगे होने वाले ज्ञान की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न, उस रूप निज-आत्मा का जो परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन, वह दर्शन कहलाता है । उसके अनन्तर बाह्य विषय में विकल्परूप से जो पदार्थ का ग्रहण है, वह ज्ञान है; यह वार्तिक है । जैसे कोई पुरुष पहले घट विषयक विकल्प करता हुआ स्थित है, पश्चात् उसका चित्त पट को जानने के लिए होता है तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर स्वरूप में जो प्रयत्न-अवलोकनपरिच्छेदन करता है; उसको दर्शन कहते हैं । उसके अनन्तर 'यह पट है' ऐसा निश्चय अथवा बाह्य विषयरूप से पदार्थ के ग्रहणरूप जो विकल्प होता है उस विकल्प को ज्ञान कहते हैं । प्रश्न - यहाँ शिष्य पूछता है, यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर-पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है; तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है वैसे ही जैनमत में भी ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है; ऐसा दूषण आता है? उत्तर - नैयायिक मत में ज्ञान और दर्शन अलग-अलग दो गुण नहीं हैं, इस कारण उन नैयायिकों के मत में "आत्मा को जानने के अभावरूप" दूषण आता है किन्तु जैनसिद्धान्त में, आत्मा ज्ञान गुण से पर पदार्थ को जानता है तथा दर्शन गुण से आत्मा स्व को जानता है । इस कारण जैनमत में "आत्मा को न जानने का" दूषण नहीं आता । प्रश्न - यह दूषण क्यों नहीं आता? उत्तर - जैसे एक ही अग्नि जलाती है, अतः वह दाहक है और पकाती है इस कारण पाचक है; विषय के भेद से दाहक, पाचक रूप अग्नि दो प्रकार की है । उसी प्रकार अभेदनय से चैतन्य एक ही है; भेदनय की विवक्षा में जब आत्मा को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उसका नाम 'दर्शन' है, और फिर जब पर पदार्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उस चैतन्य का नाम 'ज्ञान' है, इस प्रकार विषयभेद से चैतन्य दो प्रकार का होता है । विशेष बात यह है- यदि सामान्य के ग्रहण करने वाले को दर्शन और विशेष के ग्रहण करने वाले को ज्ञान कहा जावे तो ज्ञान को प्रमाणता नहीं आती । शंका- ज्ञान को प्रमाणता क्यों नहीं आती? समाधान-वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण है । वस्तु सामान्य-विशेष स्वरूप है । ज्ञान ने वस्तु का एक देश जो विशेष, उस विशेष को ही ग्रहण किया, न कि सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण किया । सिद्धान्त से निश्चयनय की अपेक्षा गुण-गुणी अभिन्न हैं; अतः संशय-विमोह-विभ्रम से रहित जो वस्तु का ज्ञान है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । जैसे प्रदीप स्वपर प्रकाशक है, उसी प्रकार आत्मा भी स्व और पर के सामान्य-विशेष को जानता है, इस कारण अभेद से आत्मा के ही प्रमाणता है । शंका - यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अन्धे की तरह सब मनुष्यों के अन्धेपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा? समाधान - ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य विषय में दर्शनाभाव होने पर भी आत्मा ज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जानता है । विशेष यह है - जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त ज्ञान का भी दर्शन द्वारा ग्रहण हो जाता है; ज्ञान के ग्रहण हो जाने पर ज्ञान की विषयभूत बाह्य वस्तु का भी ग्रहण हो जाता है । शंका - जो आत्मा को ग्रहण करता है, यदि आप उसको दर्शन कहते हो, तो जो पदार्थों का सामान्य ग्रहण है वह दर्शन है यह गाथा-अर्थ आपके कथन में कैसे घटित होता है? उत्तर - वहाँ पर 'सामान्य-ग्रहण' शब्द का अर्थ "आत्मा का ग्रहण करना" है । प्रश्न - "सामान्य ही आत्मा है", ऐसा अर्थ क्यों है? उत्तर - वस्तु का ज्ञान करता हुआ आत्मा, "मैं इसको जानता हूँ, इसको नहीं जानता हूँ", इस प्रकार का विशेष पक्षपात नहीं करता है । किन्तु सामान्यरूप से पदार्थ को जानता है । इस कारण 'सामान्य' शब्द से 'आत्मा' कहा जाता है । यह गाथा का अर्थ है । बहुत कहने से क्या? यदि कोई भी तर्क और सिद्धान्त के अर्थ को जानकर, एकान्त दुराग्रह को त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता धारण करके; व्याख्यान करता है तब तो तर्कअर्थ व सिद्धान्त-अर्थ ये दोनों ही सिद्ध होते हैं । प्रश्न - कैसे सिद्ध होते हैं? उत्तर - तर्क में मुख्यता से अन्य-मतों का व्याख्यान है । इसलिए उसमें यदि कोई अन्य-मतावलम्बी पूछे कि जैन-सिद्धान्त में जीव के दर्शन और ज्ञान, जो दो गुण कहे हैं; वे कैसे घटित होते हैं? तब इसके उत्तर में उन अन्य मतियों को कहा जाये कि, "जो आत्मा को ग्रहण करने वाला है, वह दर्शन है" तो वे अन्य मती इसको नहीं समझते । तब आचार्यों ने उनको प्रतीति कराने के लिए स्थूल व्याख्यान से बाह्य विषय में जो सामान्य का ग्रहण है उसका नाम दर्शन स्थापित किया; 'यह सफेद है' इत्यादि रूप से बाह्य विषय में जो विशेष का जानना है, उसका नाम ज्ञान स्थापित किया; अतः दोष नहीं है । सिद्धान्त में मुख्यता से निज समय का व्याख्यान है, इसलिए सिद्धान्त में सूक्ष्म व्याख्यान करने पर आचार्यों ने "जो आत्मा का ग्राहक है" उसको 'दर्शन' कहा है । अतः इसमें भी दोष नहीं । यहाँ शिष्य शंका करता है कि सत्ता-अवलोकनरूप-दर्शन का ज्ञान के साथ भेद जाना किन्तु तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप-सम्यग्दर्शन और वस्तु-विचाररूप-सम्यग्ज्ञान इन दोनों में भेद नहीं जाना । यदि कहो कि कैसे नहीं जाना; तो पदार्थ का जो निश्चय, सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञान में है । इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में क्या भेद है? इसका समाधान यह है - पदार्थ के ग्रहण में जानने रूपक्षयोपशम विशेष 'ज्ञान' कहलाता है । उस ज्ञान में ही, वीतराग सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में "यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है," इस प्रकार का जो निश्चय है, भेदनय से वह सम्यक्त्व है । निर्विकल्परूप अभेदनय से तो जो सम्यग्ज्ञान है, वही सम्यग्दर्शन है । प्रश्न - ऐसा क्यों है? उत्तर - अतत्त्व में तत्त्व-बुद्धि, अदेव [देव नहीं] में देव-बुद्धि और अधर्म में 'धर्म-बुद्धि' इत्यादि विपरीताभिनिवेश से रहित ज्ञान की ही, सम्यक्' विशेषण से कहे जाने वाली अवस्था-विशेष 'सम्यक्त्व' कहलाती है । शंका - यदि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में भेद नहीं है तो उन दोनों गुणों के घातक ज्ञानावरण और मिथ्यात्व दो कर्म कैसे कहे गये हैं? समाधान - जिस कर्म से पदार्थ के जानने रूप क्षयोपशम ढक जाता है; उसको ज्ञानावरण संज्ञा है और उस क्षयोपशम विशेष में जो कर्म, पूर्वोक्त लक्षण वाले विपरीत-अभिनिवेश को उत्पन्न करता है, उस कर्म की मिथ्यात्व संज्ञा है । इस प्रकार भेद नय से आवरण में भेद है । निश्चयनय से अभेद की विवक्षा में कर्मपने की अपेक्षा उन दो आवरणों को एक ही जानना चाहिए । इस प्रकार दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है; ऐसा व्याख्यान करने वाली गाथा समाप्त हुई ॥४४॥ इसके बाद सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान-पूर्वक होने वाले रत्नत्रय-स्वरूप मोक्षमार्ग के तीसरे अवयवरूप और स्व-शुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप-शुद्धोपयोग लक्षण वाले वीतराग चारित्र को परम्परा से साधने वाले, सराग-चारित्र का प्रतिपादन करते हैं -- [दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं] छद्मस्थ-संसारी जीवों के सत्तावलोकन-रूप दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है । क्यों? [ण दुण्णि उवओगा जुगवं जम्हा] क्योंकि छद्मस्थों के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों एक साथ नहीं होते । [केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि] और केवली भगवान् के ज्ञान दर्शन दोनों उपयोग एक ही साथ होते हैं । इसका विस्तार से कथन करते हैं -- चक्षु आदि इन्द्रियों के अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार अपने योग्य देश में विद्यमान रूप आदि अपने विषयों का ग्रहण करना ही सन्निपात, सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष कहा गया है । यहाँ नैयायिक मत के समान चक्षु आदि इन्द्रियों का जो अपने-अपने रूप आदि विषयों के पास जाना है, उसको 'सन्निकर्ष' न कहना चाहिए । इन्द्रिय पदार्थ का वह सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष जिसका लक्षण है; ऐसे लक्षण वाला निर्विकल्पक-सत्तावलोकन दर्शन है, उस दर्शनपूर्वक "यह सफेद है" इत्यादि अवग्रह आदि विकल्परूप तथा पाँचों इन्द्रियों व अनिन्द्रिय मन से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान है । उक्त लक्षण वाले मतिज्ञानपूर्वक, धुँए से अग्नि के ज्ञान के समान, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को ग्रहण करने रूप लिंगज (चिह्न से उत्पन्न होने वाला) तथा इसी प्रकार घट आदि शब्दों के सुनने रूप शब्दज (शब्द से उत्पन्न होने वाला), ऐसे दो प्रकार का श्रुतज्ञान होता है (श्रुतज्ञान दो तरह का है- लिंगज और शब्दज । उनमें से एक पदार्थ को जानकर उसके द्वारा दूसरे पदार्थ को जानना, वह लिंगज श्रुतज्ञान है । शब्दों को सुनने से जो पदार्थ का ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान है) । अवधिदर्शनपूर्वक अवधिज्ञान होता है । ईहामतिज्ञानपूर्वक मनःपर्ययज्ञान होता है । यहाँ श्रुतज्ञान को और मनःपर्ययज्ञान को उत्पन्न करने वाला अवग्रह, ईहा आदिरूप मतिज्ञान कहा है, वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है, इसलिए वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है । इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान, इन दोनों को भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिए । इस प्रकार छद्मस्थ जीवों के सावरण क्षायोपशमिक-ज्ञान होने से, दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है । केवली भगवान् के निर्विकार स्वसंवेदन से उत्पन्न निरावरण क्षायिक ज्ञान होने से, बादल हट जाने पर सूर्य के युगपत् आतप और प्रकाश के समान, दर्शन और ज्ञान ये दोनों युगपत् होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । प्रश्न – 'छद्मस्थ' शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर – 'छद्म' शब्द से ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ये दोनों कर्म कहे जाते हैं, उस 'छद्म' में जो रहते हैं वे छद्मस्थ हैं । इस प्रकार तर्क के अभिप्राय से सत्तावलोकन रूप दर्शन का व्याख्यान किया । इसके आगे सिद्धान्त के अभिप्राय से कहते हैं । चूँकि आगे होने वाले ज्ञान की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न, उस रूप निज-आत्मा का जो परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन, वह दर्शन कहलाता है । उसके अनन्तर बाह्य विषय में विकल्परूप से जो पदार्थ का ग्रहण है, वह ज्ञान है; यह वार्त्तिक है । जैसे कोई पुरुष पहले घट विषयक विकल्प करता हुआ स्थित है, पश्चात् उसका चित्त पट को जानने के लिए होता है तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर स्वरूप में जो प्रयत्न-अवलोकन-परिच्छेदन करता है; उसको दर्शन कहते हैं । उसके अनन्तर 'यह पट है' ऐसा निश्चय अथवा बाह्य विषयरूप से पदार्थ के ग्रहणरूप जो विकल्प होता है उस विकल्प को ज्ञान कहते हैं । प्रश्न – यहाँ शिष्य पूछता है, यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर-पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है; तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है वैसे ही जैनमत में भी ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है; ऐसा दूषण आता है? उत्तर – नैयायिक मत में ज्ञान और दर्शन अलग-अलग दो गुण नहीं हैं, इस कारण उन नैयायिकों के मत में "आत्मा को जानने के अभावरूप" दूषण आता है किन्तु जैनसिद्धान्त में, आत्मा ज्ञान गुण से पर पदार्थ को जानता है तथा दर्शन गुण से आत्मा स्व को जानता है । इस कारण जैनमत में "आत्मा को न जानने का" दूषण नहीं आता । प्रश्न – यह दूषण क्यों नहीं आता? उत्तर – जैसे एक ही अग्नि जलाती है, अतः वह दाहक है और पकाती है इस कारण पाचक है; विषय के भेद से दाहक, पाचक रूप अग्नि दो प्रकार की है । उसी प्रकार अभेदनय से चैतन्य एक ही है; भेदनय की विवक्षा में जब आत्मा को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उसका नाम 'दर्शन' है, और फिर जब पर पदार्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उस चैतन्य का नाम 'ज्ञान' है, इस प्रकार विषयभेद से चैतन्य दो प्रकार का होता है । विशेष बात यह है- यदि सामान्य के ग्रहण करने वाले को दर्शन और विशेष के ग्रहण करने वाले को ज्ञान कहा जावे तो ज्ञान को प्रमाणता नहीं आती । शंका- ज्ञान को प्रमाणता क्यों नहीं आती? समाधान- वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण है । वस्तु सामान्य-विशेष स्वरूप है । ज्ञान ने वस्तु का एक देश जो विशेष, उस विशेष को ही ग्रहण किया, न कि सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण किया । सिद्धान्त से निश्चयनय की अपेक्षा गुण-गुणी अभिन्न हैं; अतः संशय-विमोह-विभ्रम से रहित जो वस्तु का ज्ञान है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । जैसे प्रदीप स्वपर प्रकाशक है, उसी प्रकार आत्मा भी स्व और पर के सामान्य-विशेष को जानता है, इस कारण अभेद से आत्मा के ही प्रमाणता है । शंका – यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अन्धे की तरह सब मनुष्यों के अन्धेपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा? समाधान – ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य विषय में दर्शनाभाव होने पर भी आत्मा ज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जानता है । विशेष यह है - जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त ज्ञान का भी दर्शन द्वारा ग्रहण हो जाता है; ज्ञान के ग्रहण हो जाने पर ज्ञान की विषयभूत बाह्य वस्तु का भी ग्रहण हो जाता है । शंका – जो आत्मा को ग्रहण करता है, यदि आप उसको दर्शन कहते हो, तो जो पदार्थों का सामान्य ग्रहण है वह दर्शन है यह गाथा-अर्थ आपके कथन में कैसे घटित होता है? उत्तर – वहाँ पर 'सामान्य-ग्रहण' शब्द का अर्थ "आत्मा का ग्रहण करना" है । प्रश्न – "सामान्य ही आत्मा है", ऐसा अर्थ क्यों है? उत्तर – वस्तु का ज्ञान करता हुआ आत्मा, "मैं इसको जानता हूँ, इसको नहीं जानता हूँ", इस प्रकार का विशेष पक्षपात नहीं करता है । किन्तु सामान्यरूप से पदार्थ को जानता है । इस कारण 'सामान्य' शब्द से 'आत्मा' कहा जाता है । यह गाथा का अर्थ है । बहुत कहने से क्या? यदि कोई भी तर्क और सिद्धान्त के अर्थ को जानकर, एकान्त दुराग्रह को त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता धारण करके; व्याख्यान करता है तब तो तर्क-अर्थ व सिद्धान्त-अर्थ ये दोनों ही सिद्ध होते हैं । प्रश्न – कैसे सिद्ध होते हैं? उत्तर – तर्क में मुख्यता से अन्य-मतों का व्याख्यान है । इसलिए उसमें यदि कोई अन्य-मतावलम्बी पूछे कि जैन-सिद्धान्त में जीव के दर्शन और ज्ञान, जो दो गुण कहे हैं; वे कैसे घटित होते हैं? तब इसके उत्तर में उन अन्य मतियों को कहा जाये कि, "जो आत्मा को ग्रहण करने वाला है, वह दर्शन है" तो वे अन्य मती इसको नहीं समझते । तब आचार्यों ने उनको प्रतीति कराने के लिए स्थूल व्याख्यान से बाह्य विषय में जो सामान्य का ग्रहण है उसका नाम दर्शन स्थापित किया; 'यह सफेद है' इत्यादि रूप से बाह्य विषय में जो विशेष का जानना है, उसका नाम ज्ञान स्थापित किया; अतः दोष नहीं है । सिद्धान्त में मुख्यता से निज समय का व्याख्यान है, इसलिए सिद्धान्त में सूक्ष्म व्याख्यान करने पर आचार्यों ने "जो आत्मा का ग्राहक है" उसको 'दर्शन' कहा है । अतः इसमें भी दोष नहीं । यहाँ शिष्य शंका करता है कि सत्ता-अवलोकनरूप-दर्शन का ज्ञान के साथ भेद जाना किन्तु तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप-सम्यग्दर्शन और वस्तु-विचाररूप-सम्यग्ज्ञान इन दोनों में भेद नहीं जाना । यदि कहो कि कैसे नहीं जाना; तो पदार्थ का जो निश्चय, सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञान में है । इसलिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में क्या भेद है? इसका समाधान यह है - पदार्थ के ग्रहण में जानने रूप क्षयोपशम विशेष 'ज्ञान' कहलाता है । उस ज्ञान में ही, वीतराग सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में "यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है," इस प्रकार का जो निश्चय है, भेदनय से वह सम्यक्त्व है । निर्विकल्परूप अभेदनय से तो जो सम्यग्ज्ञान है, वही सम्यग्दर्शन है । प्रश्न – ऐसा क्यों है? उत्तर – अतत्त्व में तत्त्व-बुद्धि, अदेव [देव नहीं] में देव-बुद्धि और अधर्म में 'धर्म-बुद्धि' इत्यादि विपरीताभिनिवेश से रहित ज्ञान की ही, सम्यक्' विशेषण से कहे जाने वाली अवस्था-विशेष 'सम्यक्त्व' कहलाती है । शंका – यदि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में भेद नहीं है तो उन दोनों गुणों के घातक ज्ञानावरण और मिथ्यात्व दो कर्म कैसे कहे गये हैं? समाधान – जिस कर्म से पदार्थ के जानने रूप क्षयोपशम ढक जाता है; उसको ज्ञानावरण संज्ञा है और उस क्षयोपशम विशेष में जो कर्म, पूर्वोक्त लक्षण वाले विपरीत-अभिनिवेश को उत्पन्न करता है, उस कर्म की मिथ्यात्व संज्ञा है । इस प्रकार भेद नय से आवरण में भेद है । निश्चयनय से अभेद की विवक्षा में कर्मपने की अपेक्षा उन दो आवरणों को एक ही जानना चाहिए । इस प्रकार दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है; ऐसा व्याख्यान करने वाली गाथा समाप्त हुई ॥४४॥ इसके बाद सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान-पूर्वक होने वाले रत्नत्रय-स्वरूप मोक्षमार्ग के तीसरे अवयवरूप और स्व-शुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप-शुद्धोपयोग लक्षण वाले वीतराग चारित्र को परम्परा से साधने वाले, सराग-चारित्र का प्रतिपादन करते हैं -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
अल्पज्ञानियों के पहले क्षण में दर्शन पुन: ज्ञान ऐसे क्रम से दोनों उपयोग होते हैं। किन्तु केवली भगवान् के ये एक साथ ही प्रगट रहते हैं। प्रश्न – छद्मस्थ किसे कहते हैं ? उत्तर – मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन पाँच ज्ञानों में से प्रारम्भ के चार ज्ञान छद्मस्थ (अल्पज्ञान) कहलाते हैं। प्रश्न – छद्मस्थ जीव के उपयोग का क्रम बताइये। उत्तर – छद्मस्थ जीव पहले देखते हैं और फिर बाद में जानते हैं, किसी पदार्थ को देखे बिना छद्मस्थ उसे जान ही नहीं सकते इसलिये छद्मस्थों के पहले दर्शनोपयोग होता है और बाद में ज्ञानोपयोग होता है। प्रश्न – केवलज्ञानी के उपयोग का क्रम बताइये। उत्तर – केवलज्ञानी किसी भी पदार्थ को एक ही साथ देखते और जानते हैं इसलिये उनका दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एकसाथ होता है। प्रश्न – केवली भगवान के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एक साथ क्यों होते हैं ? उत्तर – केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन दोनों निरावरण हैं क्षायिक हैं इसलिए एक साथ होते हैं और छद्मस्थों के सावरण हैं क्षायोपशमिक हैं अत: उनके ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोग एक साथ नहीं हो ते, क्रमश: होते हैं। प्रश्न – छद्मस्थ किसे कहते हैं ? उत्तर – जिनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम है, क्षय नहीं हुआ है ऐसे मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। |