ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
इसी सराग-चारित्र के एक देश अवयवरूप देश चारित्र को कहते हैं । वह इस प्रकार है- मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर अथवा अध्यात्म भाषा के अनुसार, निज-शुद्ध-आत्मा के सम्मुख परिणाम होने पर, शुद्ध-आत्म-भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके संसार, शरीर और भोगों में जो हेयबुद्धि है, वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध चतुर्थ गुणस्थान वाला व्रतरहित दार्शनिक है । जो अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषाय के क्षयोपशम होने पर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावरों के वध में प्रवृत्त होते हुए भी, अपनी शक्ति अनुसार त्रसजीवों के वध से निवृत्त होता है । (अर्थात् यथाशक्ति त्रसजीवों की हिंसा नहीं करता है), उसको पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहते हैं । उस पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के ११ भेद कहते हैं ।
अब इस एकदेशचारित्र के व्याख्यान के अनन्तर सकलचारित्र को कहते हैं - [असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं] हे शिष्य! अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ में जो प्रवृत्ति है, उसको चारित्र जानो । वह कैसा है? [वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं] व्रतसमितिगुप्तिरूप है, व्यवहारनय से श्री जिनेन्द्र ने ऐसा कहा है । वह इस प्रकार है - "प्रत्याख्यानावरण नामक तीसरी कषाय के क्षयोपशम होने पर जिसका उपयोग विषय-कषायों में मग्न है, दुःश्रुति (विकथा), दुष्टचित्त और दुष्ट गोष्ठी (बुरी संगति), उग्र तथा उन्मार्ग (बुरे मार्ग) में तत्पर है, वह जीव अशुभ में स्थित है ॥१॥" "इस गाथा में कहे हुए अशुभोपयोग से छूटना और उक्त अशुभोपयोग से विलक्षण (उल्टा) शुभोपयोग में प्रवृत्त होना," हे शिष्य! उसको तुम चारित्र जानो । आचारआराधना आदि चरणानुयोग के शास्त्रों में कहे अनुसार वह चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति व तीन गुप्तिरूप है, तो भी अपहृतसंयम नामक शुभोपयोग लक्षण वाला सरागचारित्र होता है । उसमें भी बाह्य में जो पाँचों इन्द्रियों के विषय आदि का त्याग है, वह उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से चारित्र है और अन्तरंग में जो राग आदि का त्याग है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है । इस तरह नय-विभाग जानना चाहिए । ऐसे निश्चयचारित्र को साधने वाले व्यवहारचारित्र का व्याख्यान किया ॥४५॥ अब उसी व्यवहारचारित्र से साध्य निश्चयचारित्र का निरूपण करते हैं - इसी सराग-चारित्र के एक देश अवयवरूप देश चारित्र को कहते हैं । वह इस प्रकार है- मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर अथवा अध्यात्म भाषा के अनुसार, निज-शुद्ध-आत्मा के सम्मुख परिणाम होने पर, शुद्ध-आत्म-भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके संसार, शरीर और भोगों में जो हेयबुद्धि है, वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध चतुर्थ गुणस्थान वाला व्रतरहित दार्शनिक है । जो अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषाय के क्षयोपशम होने पर, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावरों के वध में प्रवृत्त होते हुए भी, अपनी शक्ति अनुसार त्रसजीवों के वध से निवृत्त होता है । (अर्थात् यथाशक्ति त्रसजीवों की हिंसा नहीं करता है), उसको पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहते हैं । उस पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के ११ भेद कहते हैं ।
अब इस एकदेशचारित्र के व्याख्यान के अनन्तर सकलचारित्र को कहते हैं - [असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं] हे शिष्य! अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ में जो प्रवृत्ति है, उसको चारित्र जानो । वह कैसा है? [वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं] व्रतसमितिगुप्तिरूप है, व्यवहारनय से श्री जिनेन्द्र ने ऐसा कहा है । वह इस प्रकार है - "प्रत्याख्यानावरण नामक तीसरी कषाय के क्षयोपशम होने पर जिसका उपयोग विषय-कषायों में मग्न है, दुःश्रुति (विकथा), दुष्टचित्त और दुष्ट गोष्ठी (बुरी संगति), उग्र तथा उन्मार्ग (बुरे मार्ग) में तत्पर है, वह जीव अशुभ में स्थित है ॥१॥" "इस गाथा में कहे हुए अशुभोपयोग से छूटना और उक्त अशुभोपयोग से विलक्षण (उल्टा) शुभोपयोग में प्रवृत्त होना," हे शिष्य! उसको तुम चारित्र जानो । आचारआराधना आदि चरणानुयोग के शास्त्रों में कहे अनुसार वह चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति व तीन गुप्तिरूप है, तो भी अपहृतसंयम नामक शुभोपयोग लक्षण वाला सरागचारित्र होता है । उसमें भी बाह्य में जो पाँचों इन्द्रियों के विषय आदि का त्याग है, वह उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से चारित्र है और अन्तरंग में जो राग आदि का त्याग है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है । इस तरह नय-विभाग जानना चाहिए । ऐसे निश्चयचारित्र को साधने वाले व्यवहारचारित्र का व्याख्यान किया ॥४५॥ अब उसी व्यवहारचारित्र से साध्य निश्चयचारित्र का निरूपण करते हैं - |
आर्यिका ज्ञानमती :
व्यवहार चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे तेरह प्रकार का है जो कि जिनदेव द्वारा कहा गया है। प्रश्न – व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ? उत्तर – अशुभ कार्यों—हींसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह पापों का त्याग करना, यत्नाचारपूर्वक चलना, बोलना, बैठना, खाना आदि करना और अशुभ मन-वचन और काय को वश में करना तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना व्यवहार चारित्र है। प्रश्न – अशुभोपयोग किसे कहते हैं ? उत्तर – आत्र्तध्यान, रौद्रध्यान को अशुभोपयोग कहते हैं-अथवा विषय और कषायों में गाढ़ प्रीति, दु:शास्त्र श्रवण, दुष्टचित्तप्रवृत्ति, दु:गोष्ठी (बुरी संगति) आदि अशुभोपयोग हैं। प्रश्न – शुभोपयोग किसे कहते हैं ? उत्तर – सविकल्प धर्मध्यान को शुभोपयोग कहते हैं, अथवा व्यसन, कषाय, हिंसादि पापजनक कार्यों से विरक्त होकर दान, पूजा, व्रत, समिति, गुप्ति आदि में प्रवृत्ति करना शुभोपयोग कहलाता है। अथवा अशुभोपयोग से निवृत्ति और पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप प्रवृत्ति को व्यवहार या सराग चारित्र कहते हैं। इसका दूसरा नाम अपहृत संयम भी है। यह शुभोपयोग सहित होता है। सराग चरित्र में बाह्य पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग है, यह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से चारित्र है। जितने अंश में कषायों का अभाव हुआ है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है। ऐस यह शुभोपयोग लक्षण धारक व्यवहार चारित्र निश्चयचारित्र का साधक है। |