+ निश्चयचारित्र का लक्षण -
बहिरब्भंतरकिरिया-रोहो भवकारणप्पणासट्ठं
णाणिस्स जं जिणुत्तं, तं परमं सम्मचारित्तं ॥46॥
बाह्य अंतर क्रिया के अवरोध से जो भाव हों ।
संसारनाशक भाव वे परमार्थ चारित्र जानिये ॥४६॥
अन्वयार्थ : [भवकारणप्पणासट्ठं] संसार के कारणों का नाश करने के लिए [णाणिस्स] ज्ञानीजीव के [बहिरब्भंतर-किरिया-रोहो] बाह्य तथा आभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध [जंजिणुत्तं] जो जिनेन्द्रदेव ने कहा है [तं परमं सम्मचारित्तं] वह परम निश्चय सम्यक्चारित्र है ।
Meaning : Lord Jina has proclaimed, from the real point of view, that stoppage of all activities, external and internal, undertaken by a knowledgeable soul to attain liberation is Right Conduct.

  ब्रह्मदेव सूरि    आर्यिका ज्ञानमती 

ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[तं] वह [परमं] परम उपेक्षा लक्षण वाला (संसार, शरीर, असंयम आदि में अनादर) तथा निर्विकार स्वसंवेदनरूप शुद्धोपयोग का अविनाभूत उत्कृष्ट सम्मचारित्तं सम्यक्चारित्र जानना चाहिए । वह क्या? [बहिरब्भंतरकिरियारोहो] निष्क्रिय-नित्य-निरंजन-निर्मल ज्ञानदर्शन स्वभाव वाले निज-आत्मा से प्रतिपक्षभूत (प्रतिकूल / विपरीत), बाह्य में वचन काय के शुभाशुभ व्यापाररूप, अन्तरंग में मन के शुभाशुभ विकल्परूप, ऐसी क्रियाओं के व्यापार का निरोध (त्याग) चारित्र है । वह चारित्र किसलिए है? [भवकारणप्पणासट्ठं] पाँच प्रकार के संसार से रहित निर्दोष परमात्मा से विलक्षण जो संसार, उस संसार के व्यापार का कारणभूत शुभ-अशुभ कर्म आस्रव, उस आस्रव के विनाश के लिए चारित्र है । ऐसा बाह्य, अन्तरंग क्रियाओं के त्यागरूप चारित्र किसके होता है? [णाणिस्स] निश्चय रत्नत्रय स्वरूप अभेदज्ञानी जीव के ऐसा चारित्र होता है । वह चारित्र फिर कैसा है ? [जंजिणुत्तं] वह चारित्र जिनेन्द्रदेव वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ है । इस प्रकार वीतराग सम्यक्त्व व ज्ञान का अविनाभूत तथा निश्चयरत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग का तीसरा अवयवरूप वीतरागचारित्र का व्याख्यान हुआ ॥४६॥ ऐसे दूसरे स्थल में छह गाथायें समाप्त हुईं ।
इस प्रकार मोक्षमार्ग को प्रतिपादित करने वाले तीसरे अधिकार में निश्चय व्यवहार रूप मोक्षमार्ग के संक्षेप कथन से दो सूत्र और तदनन्तर उसी मोक्षमार्ग के अवयवरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र के विशेष व्याख्यान रूप से छह सूत्र हैं । इस प्रकार दो स्थलों के समुदायरूप आठ गाथाओं द्वारा प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।
अब इसके आगे ध्यान, ध्याता (ध्यान करने वाला) । ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) और ध्यान का फल इनके वर्णन की मुख्यता से प्रथम स्थल में तीन गाथायें, तदनन्तर पंच-परमेष्ठियों के व्याख्यान रूप से दूसरे स्थल में पाँच गाथायें और इसके पश्चात् उसी ध्यान के उपसंहाररूप विशेष व्याख्यान द्वारा तीसरे स्थल में चार गाथायें, इस प्रकार तीन स्थलों के समुदाय से बारह गाथा सूत्रमयी दूसरे अन्तराधिकार की समुदायरूप भूमिका है ।
अतः निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग को साधने वाले ध्यान का आप सब अभ्यास करो, ऐसा उपदेश देते हैं --


[तं] वह [परमं] परम उपेक्षा लक्षण वाला (संसार, शरीर, असंयम आदि में अनादर) तथा निर्विकार स्वसंवेदनरूप शुद्धोपयोग का अविनाभूत उत्कृष्ट [सम्मचारित्तं] सम्यक्चारित्र जानना चाहिए । वह क्या? [बहिरब्भंतरकिरियारोहो] निष्क्रिय-नित्य-निरंजन-निर्मल ज्ञानदर्शन स्वभाव वाले निज-आत्मा से प्रतिपक्षभूत (प्रतिकूल / विपरीत), बाह्य में वचन काय के शुभाशुभ व्यापाररूप, अन्तरंग में मन के शुभाशुभ विकल्परूप, ऐसी क्रियाओं के व्यापार का निरोध (त्याग) चारित्र है । वह चारित्र किसलिए है? [भवकारणप्पणासट्ठं] पाँच प्रकार के संसार से रहित निर्दोष परमात्मा से विलक्षण जो संसार, उस संसार के व्यापार का कारणभूत शुभ-अशुभ कर्म आस्रव, उस आस्रव के विनाश के लिए चारित्र है । ऐसा बाह्य, अन्तरंग क्रियाओं के त्यागरूप चारित्र किसके होता है? [णाणिस्स] निश्चय रत्नत्रय स्वरूप अभेदज्ञानी जीव के ऐसा चारित्र होता है । वह चारित्र फिर कैसा है ? [जंजिणुत्तं] वह चारित्र जिनेन्द्रदेव वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ है । इस प्रकार वीतराग सम्यक्त्व व ज्ञान का अविनाभूत तथा निश्चयरत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग का तीसरा अवयवरूप वीतरागचारित्र का व्याख्यान हुआ ॥४६॥ ऐसे दूसरे स्थल में छह गाथायें समाप्त हुईं ।

इस प्रकार मोक्षमार्ग को प्रतिपादित करने वाले तीसरे अधिकार में निश्चय व्यवहार रूप मोक्षमार्ग के संक्षेप कथन से दो सूत्र और तदनन्तर उसी मोक्षमार्ग के अवयवरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र के विशेष व्याख्यान रूप से छह सूत्र हैं । इस प्रकार दो स्थलों के समुदायरूप आठ गाथाओं द्वारा प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

अब इसके आगे ध्यान, ध्याता (ध्यान करने वाला) । ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) और ध्यान का फल इनके वर्णन की मुख्यता से प्रथम स्थल में तीन गाथायें, तदनन्तर पंच-परमेष्ठियों के व्याख्यान रूप से दूसरे स्थल में पाँच गाथायें और इसके पश्चात् उसी ध्यान के उपसंहाररूप विशेष व्याख्यान द्वारा तीसरे स्थल में चार गाथायें, इस प्रकार तीन स्थलों के समुदाय से बारह गाथा सूत्रमयी दूसरे अन्तराधिकार की समुदायरूप भूमिका है ।

अतः निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग को साधने वाले ध्यान का आप सब अभ्यास करो, ऐसा उपदेश देते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :

सम्पूर्ण अंतरंग बहिरंग प्रवृत्तियों को रोक करके जो आत्मा में स्थिर हो जाना है वही निश्चय सम्यक्चारित्र है जो कि महामुनियों के ही हो सकता है।

प्रश्न – चारित्र के कितने भेद हैं ?

उत्तर –
चारित्र के मुख्यत: दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहार।

प्रश्न – व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर –
जो व्रत, समिति आदि भेदरूप है, जिसमें हिंसादि, अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति और अहिंसादि शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति होती है, वह व्यवहार चारित्र है।

प्रश्न – व्यवहार चारित्र के कितने भेद हैं ?

उत्तर –
देश चारित्र, सकल चारित्र आदि अनेक भेद हैं।

प्रश्न – देश चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर –
जिसमें अहिंसादि व्रतों का एकदेश पालन किया जाता है, वह श्रावक का व्रत कहलाता है, यह देशसंयम है, इसका दूसरा नाम संयमासंयम भी है।

प्रश्न – देशसंयम को संयमासंयम क्यों कहते हैं ?

उत्तर –
संकल्पपूर्वक मन, वचन, काय से, कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस घात का तो त्याग किया है, इसलिए संयम है। स्थावर घात का त्याग नहीं है, इसलिए असंयम है तथा संयम और असंयम दोनों एक साथ होने से इसे संयमासंयम कहते हैं।

प्रश्न – देश संयम के कितने भेद हैं ?

उत्तर –
सामान्यत: अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव से उत्पन्न होता है इसलिए एक प्रकार का है और प्रत्याख्यानावरण कषाय की तरतमता से इसके अनेक भेद हैं, उनको ग्यारह भागों में विभाजित किया है।

प्रश्न – देश संयम के ग्यारह भेद कौन से हैं ?

उत्तर –
(१) दर्शन प्रतिमा-निर्दोष सम्यग्दर्शन और आठ मूलगुणों का पालन करना और संसार-शरीर-भोगों से विरक्त होकर पंचपरमेष्ठी की शरण में लीन रहना। (२) व्रत प्रतिमा-माया, मिथ्यात्व और निदानरूप तीन शल्यों का त्यागकर निरतिचार पाँच अणुव्रतों का पालन और अभ्यासरूप से सात शीलों का धारण।

प्रश्न – सात शील किसे कहते हैं ?

उत्तर –
तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को सात शील कहते हैं। (३) सामायिक प्रतिमा-त्रिकाल देववंदना करना, चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त और चार शिरोनति करके। (४) प्रोषध प्रतिमा-अष्टमी और चतुर्दशी के दिन अपनी शक्ति के अनुसार प्रोषध (एकासन) उपवास और प्रोषधोपवास करना। (५) सचित्त त्याग प्रतिमा-अपक्व अंकुरोत्पत्ति के कारणभूत सचित्त जड़, फल, बीज आदि को अचित्त किये बिना नहीं खाना और अप्रासुक पानी नहीं पीना।

प्रश्न – प्रासुक किसे कहते हैं ?

उत्तर –
जो पानी गर्म किया हो, या सौंफ, लौंग आदि डालने से जिसका रंग बदल गया है, वह पानी प्रासुक कहलाता है। (६) रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा-रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना तथा दिन में मैथुन सेवन नहीं करना। इस प्रतिमा का दूसरा नाम दिवामैथुनत्याग प्रतिमा भी है।

प्रश्न – छट्ठी प्रतिमा में रात्रि भोजन का त्याग है तो पाँचवीं प्रतिमा तक रात्रि में पानी आदि पी सकता है क्या ? यदि नहीं पी सकता है, तो छट्ठी प्रतिमा को रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा क्यों कहा ?

उत्तर –
रात्रि में चार प्रकार के आहार का त्याग तो प्रथम प्रतिमा में ही हो जाता है, छट्ठी प्रतिमा में निरतिचार रात्रिभुक्ति त्याग होता है।

प्रश्न – रात्रि भुक्ति का त्याग का अतिचार कौन सा है ?

उत्तर –
सूर्योदय के ४८ मिनट हो जाने के बाद और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व भोजन करना, रात्रि में भोजन कराना, रात्रि में बने हुए पदार्थों को भक्षण करना रात्रि भुक्ति त्याग का अतिचार है। छट्ठी प्रतिमाधारी इन सबका त्याग करके निरतिचार व्रत का पालन करता है। (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-स्त्रीमात्र के संयोग का त्याग करना। (८) आरंभ त्याग प्रतिमा-नौकरी, खेती, व्यापार आदि हिंसाजनक आरंभ का त्याग। (९) परिग्रह त्याग प्रतिमा-बाह्य दश प्रकार के परिग्रह से ममत्व का त्याग कर अपने पहनने योग्य धोती, दुपट्टा आदि के सिवाय सर्व परिग्रह का त्याग करना। (१०) अनुमति त्याग-आरंभजन्य कार्यों में तथा लौकिक विवाहादिकार्यों में अनुमति नहीं देना। (११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-घर को छोड़कर मुनिराज के पास जाकर व्रतों को ग्रहण करके भिक्षावृत्ति से भोजन करता है और एक लंगोटी तथा एक दुपट्टा रखता है। ये देशसंयम के ११ भेद संक्षेप से कहे हैं, विस्तार से इसके असंख्यात भेद हैं।

प्रश्न – सकल चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर –
हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करना तथा पंच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन सकल चारित्र है।

प्रश्न – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात किस चारित्र के भेद हैं ?

उत्तर –
ये सब सकल चारित्र के भेद हैं।

प्रश्न – निश्चयचारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर –
बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि को निश्चय सम्यक्चारित्र कहते हैं।

प्रश्न – बाह्य-आभ्यन्तर क्रिया कौन रोकता है ?

उत्तर –
‘णाणी’—ज्ञानी पुरुष अपनी मानसिक, वाचनिक व कायिक आभ्यन्तर और बाह्य क्रियाओं को रोकता है।

प्रश्न – बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से ज्ञानी को क्या प्राप्त होता है ?

उत्तर –
ज्ञानी को बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से निश्चय चारित्र की प्राप्ति होती है।