ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[णट्ठचदुघाइकम्मो] निश्चयरत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोगमयी ध्यान के द्वारा पहले घातिया कर्मों में प्रधान मोहनीयकर्म का नाश करके, पश्चात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों ही घातिया कर्मों का एक ही साथ नाश करने से, जो चारों घातिया कर्मों का नष्ट करने वाले हो गये हैं । [दंसणसुहणाणवीरियमईओ] उन घातिया कर्मों के नाश से उत्पन्न अनन्त चतुष्टय (अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य) के धारक होने से स्वाभाविक-शुद्ध-अविनाशी-ज्ञान-दर्शनसुख-वीर्यमयी हैं । [सुहदेहत्थो] निश्चयनय से शरीर रहित हैं तो भी व्यवहारनय की अपेक्षा, सात धातुओं (कुधातु) से रहित व हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान ऐसे परम औदारिक शरीर वाले हैं, इस कारण शुभदेह में विराजमान हैं । सुद्धो- १. क्षुधा, २. तृषा, ३. भय, ४. द्वेष, ५. राग, ६. मोह, ७. चिन्ता, ८.जरा, ९. रुजा (रोग), १०. मरण, ११.स्वेद (पसीना), १२. खेद, १३. मद, १४. अरति, १५, विस्मय, १६. जन्म, १७. निद्रा, १८. विषाद; इन १८ दोषों से रहित निरंजन आप्त श्री जिनेन्द्र हैं ॥२॥ इस प्रकार इन दो श्लोकों में कहे हुए अठारह दोषों से रहित होने के कारण शुद्ध हैं । [अप्पा] पूर्वोक्त गुणों की धारक आत्मा है । [अरिहो] 'अरि' शब्द से कहे जाने वाले मोहनीय कर्म का, 'रज' शब्द से वाच्य ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनों कर्मों का तथा 'रहस्य' शब्द का वाच्य अन्तरायकर्म, इन चारों कर्मों का नाश करने से इन्द्र आदि द्वारा रची हुई गर्भावतारजन्माभिषेक-तपकल्याणक-केवलज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण समय में होने वाली पाँच महाकल्याण रूप पूजा के योग्य होते हैं, इस कारण अर्हन् कहलाते हैं । [विचिंतिज्जो] हे भव्यों! तुम पदस्थ, पिण्डस्थ व रूपस्थ ध्यान में स्थित होकर, आप्त-उपदिष्ट आगम आदि ग्रन्थ में कहे हुए तथा इन उक्त विशेषणों सहित वीतराग-सर्वज्ञ आदि एक हजार आठ नाम वाले अर्हन्त जिन-भट्टारक का विशेष रूप से चिन्तन करो । इस अवसर पर भट्ट और चार्वाक मत का आश्रय लेकर शिष्य पूर्व पक्ष करता है- प्रश्न - सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि, उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग? उत्तर - सर्वज्ञ की प्राप्ति क्या इस देश और इस काल में नहीं है या सब देश और सब काल में नहीं है, यदि कहो कि इस देश और इस काल में सर्वज्ञ नहीं है, तब तो ठीक ही है, क्योंकि हम भी ऐसा ही मानते हैं । यदि कहो सर्व देश और सर्व कालों में सर्वज्ञ नहीं है, तो तुमने यह कैसे जाना कि तीनों लोक और तीनों काल में सर्वज्ञ का अभाव है । यदि कहो कि अभाव जान लिया, तो तुम ही सर्वज्ञ हो गये (जो तीन लोक तथा तीन काल के पदार्थों को जानता है वही सर्वज्ञ है, सो तुमने यह जान ही लिया है कि तीनों लोक और तीनों कालों में सर्वज्ञ नहीं है, इसलिए तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हुए) । "तीन लोक व तीनों काल में सर्वज्ञ नहीं" इसको यदि नहीं जाना तो "सर्वज्ञ नहीं है" ऐसा निषेध कैसे करते हो? दृष्टान्त- जैसे कोई निषेध करने वाला, घट की आधारभूत पृथ्वी को नेत्रों से घट रहित देख कर, फिर कहे कि “इस पृथ्वी पर घट नहीं है", तो उसका यह कहना ठीक है; परन्तु जो नेत्रहीन है, उसका ऐसा वचन ठीक नहीं है । इसी प्रकार जो तीन जगत्, तीनकाल को सर्वज्ञ रहित जानता है, उसका यह कहना कि तीन जगत् तीन काल में सर्वज्ञ नहीं, उचित हो सकता है; किन्तु जो तीन जगत् तीन काल' को जानता है, वह सर्वज्ञ का निषेध किसी भी प्रकार नहीं कर सकता । क्यों नहीं कर सकता? तीन जगत् तीनकाल को जानने से वह स्वयं सर्वज्ञ हो गया, अतः वह सर्वज्ञ का निषेध नहीं कर सकता । सर्वज्ञ के निषेध में "सर्वज्ञ की अनुपलब्धि" जो हेतु वाक्य है, वह भी ठीक नहीं । प्रश्न - क्यों ठीक नहीं? उत्तर - क्या आपके ही सर्वज्ञ की अनुपलब्धि (अप्राप्ति) है या तीन जगत् तीन काल के पुरुषों की अनुपलब्धि है । यदि आपके ही सर्वज्ञ की अनुपलब्धि है, तो इतने मात्र से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जैसे पर के मनोविचार तथा परमाणु आदि की आपके अनुपलब्धि है, तो भी उनका अभाव सिद्ध नहीं होता । यदि तीन जगत् तीन काल के पुरुषों के 'सर्वज्ञ' की अनुपलब्धि है, तो इसको आपने कैसे जाना? यदि कहो "जान लिया" तो आप ही सर्वज्ञ हुए, ऐसा पहले कहा जा चुका है । इस प्रकार से 'हेतु' में दूषण जानना चाहिए । सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि में जो "गधे के सींग" का दृष्टान्त दिया था, वह भी ठीक नहीं है । गधे के सींग नहीं हैं किन्तु गौ आदि के सींग हैं । सींग का जैसे अत्यन्त (सर्वथा) अभाव नहीं, वैसे ही 'सर्वज्ञ' का विवक्षित देश व काल में अभाव होने पर भी सर्वथा अभाव नहीं है । इस प्रकार दृष्टान्त में दूषण आया । प्रश्न - आपके द्वारा सर्वज्ञ के सम्बन्ध में बाधक प्रमाण का तो खण्डन हुआ किन्तु सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करने वाला क्या प्रमाण है? ऐसा पूछे जाने पर उत्तर - "कोई पुरुष (आत्मा) सर्वज्ञ है", इसमें 'पुरुष' धर्मी है और 'सर्वज्ञता', जिसको सिद्ध करना है, वह धर्म है; इस प्रकार "धर्मी धर्म समुदाय" को पक्ष कहते हैं (जिसको सिद्ध करना वह साध्य अर्थात् धर्म है । जिसमें धर्म पाया जावे या रहे, वह धर्मी है । धर्म और धर्मी दोनों मिलकर 'पक्ष' कहलाते हैं) । इसमें हेतु क्या है? पूर्वोक्त अनुसार "बाधक प्रमाण का अभाव" यह हेतु है । किसके समान? अपने अनुभव में आते हुए सुख-दु:ख आदि के समान, यह दृष्टान्त है । इस प्रकार सर्वज्ञ के सद्भाव में पक्ष, हेतु तथा दृष्टान्त रूप से तीन अंगों का धारक अनुमान जानना चाहिये । अथवा, सर्वज्ञ के सद्भाव का साधक दूसरा अनुमान कहते हैं । राम और रावण आदि काल से दूर व ढके पदार्थ, मेरु आदि देश से अन्तरित पदार्थ, भूत आदि भव से ढके हुए पदार्थ तथा पर पुरुषों के चित्तों के विकल्प और परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, ये धर्मी "किसी भी विशेष पुरुष के प्रत्यक्ष देखने में आते हैं", यह उन राम रावणादि धर्मियों में सिद्ध करने योग्य धर्म है; इस प्रकार धर्मी और धर्म के समुदाय से पक्षवचन (प्रतिज्ञा) है । राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष क्यों हैं? “अनुमान का विषय होने से" यह हेतु वचन है । किसके समान? "जो जो अनुमान का विषय है, वह-वह किसी के प्रत्यक्ष होता है, जैसे-अग्नि आदि', यह अन्वय दृष्टान्त का वचन है । "देश काल आदि से अन्तरित पदार्थ भी अनुमान के विषय हैं" यह उपनय का वचन है । इसलिए "राम रावण आदि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं" यह निगमन वाक्य है । अब व्यतिरेक दृष्टान्त को कहते हैं - "जो किसी के भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमान के विषय भी नहीं होते; जैसे कि आकाश के पुष्प आदि" यह व्यतिरेक दृष्टान्त का वचन है । "राम रावण आदि अनुमान के विषय हैं" यह उपनय का वचन है । इसलिए "राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं" यह निगमन वाक्य है । "राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं, अनुमान के विषय होने से" यहाँ पर "अनुमान के विषय होने से" यह हेतु है । सर्वज्ञ रूप साध्य में यह हेतु सब तरह से सम्भव है; इस कारण यह हेतु स्वरूपासिद्ध, भावासिद्ध, इन विशेषणों से असिद्ध नहीं है तथा उक्त हेतु, सर्वज्ञ रूप अपने पक्ष को छोड़कर सर्वज्ञ के अभाव रूप विपक्ष को सिद्ध नहीं करता, इस कारण विरुद्ध भी नहीं है । और जैसे "सर्वज्ञ के सद्भाव रूप अपने पक्ष में रहता है, वैसे सर्वज्ञ के अभाव रूप विपक्ष में नहीं रहता, इस कारण उक्त हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है । अनैकान्तिक का क्या अर्थ है? 'व्यभिचारी' । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित भी नहीं है, तथा सर्वज्ञ को न मानने वाले भट्ट और चार्वाक के लिए सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करता है अतः इन दोनों कारणों से अकिंचित्कर भी नहीं है । इस प्रकार से "अनुमान का विषय होने से" यह हेतुवचन असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अकिंचित्कर रूप हेतु के दूषणों से रहित है, इस कारण सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करता ही है । इस प्रकार सर्वज्ञ के सद्भाव में पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन रूप से पाँचों अंगों वाला अनुमान जानना चाहिए । और भी जैसे नेत्रहीन पुरुष को दर्पण के विद्यमान रहने पर भी प्रतिबिम्बों का ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार नेत्रों के स्थानभूत सर्वज्ञतारूप गुण से रहित पुरुष को दर्पण के स्थानभूत वेदशास्त्र में कहे हुए प्रतिबिम्बों के स्थानभूत परमाणु आदि अनन्त सूक्ष्म पदार्थों का किसी भी समय ज्ञान नहीं होता । ऐसा कहा भी है कि- जिस पुरुष के स्वयं बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है? क्योंकि नेत्रों से रहित पुरुष का दर्पण क्या उपकार करेगा? (अर्थात् कुछ उपकार नहीं कर सकता) ॥१॥ इस प्रकार यहाँ संक्षेप से सर्वज्ञ की सिद्धि जाननी चाहिए । ऐसे पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ इन तीनों ध्यानों में ध्येयभूत सकल-परमात्म-श्रीजिन-भट्टारक के व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ॥५०॥ अब सिद्धों के समान निज-परमात्म-तत्त्व में परमसमरसी-भाव वाले रूपातीत नामक निश्चय-ध्यान के परम्परा से कारणभूत तथा मुक्ति को प्राप्त, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी की भक्तिरूप 'णमो सिद्धाणं' इस पद के उच्चारणरूप लक्षण वाला जो पदस्थ-ध्यान, उसके ध्येयभूत सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूप को कहते हैं -- [णट्ठचदुघाइकम्मो] निश्चयरत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोगमयी ध्यान के द्वारा पहले घातिया कर्मों में प्रधान मोहनीयकर्म का नाश करके, पश्चात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों ही घातिया कर्मों का एक ही साथ नाश करने से, जो चारों घातिया कर्मों का नष्ट करने वाले हो गये हैं । [दंसणसुहणाणवीरियमईओ] उन घातिया कर्मों के नाश से उत्पन्न अनन्त चतुष्टय (अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य) के धारक होने से स्वाभाविक-शुद्ध-अविनाशी-ज्ञान-दर्शनसुख-वीर्यमयी हैं । [सुहदेहत्थो] निश्चयनय से शरीर रहित हैं तो भी व्यवहारनय की अपेक्षा, सात धातुओं (कुधातु) से रहित व हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान ऐसे परम औदारिक शरीर वाले हैं, इस कारण शुभदेह में विराजमान हैं । "सुद्धो"- १. क्षुधा, २. तृषा, ३. भय, ४. द्वेष, ५. राग, ६. मोह, ७. चिन्ता, ८.जरा, ९. रुजा (रोग), १०. मरण, ११.स्वेद (पसीना), १२. खेद, १३. मद, १४. अरति, १५, विस्मय, १६. जन्म, १७. निद्रा, १८. विषाद; इन १८ दोषों से रहित निरंजन आप्त श्री जिनेन्द्र हैं ॥२॥ इस प्रकार इन दो श्लोकों में कहे हुए अठारह दोषों से रहित होने के कारण शुद्ध हैं । [अप्पा] पूर्वोक्त गुणों की धारक आत्मा है । [अरिहो] 'अरि' शब्द से कहे जाने वाले मोहनीय कर्म का, 'रज' शब्द से वाच्य ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनों कर्मों का तथा 'रहस्य' शब्द का वाच्य अन्तरायकर्म, इन चारों कर्मों का नाश करने से इन्द्र आदि द्वारा रची हुई गर्भावतार-जन्माभिषेक-तपकल्याणक-केवलज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण समय में होने वाली पाँच महाकल्याण रूप पूजा के योग्य होते हैं, इस कारण अर्हन् कहलाते हैं । [विचिंतिज्जो] हे भव्यों! तुम पदस्थ, पिण्डस्थ व रूपस्थ ध्यान में स्थित होकर, आप्त-उपदिष्ट आगम आदि ग्रन्थ में कहे हुए तथा इन उक्त विशेषणों सहित वीतराग-सर्वज्ञ आदि एक हजार आठ नाम वाले अर्हन्त जिन-भट्टारक का विशेष रूप से चिन्तन करो । इस अवसर पर भट्ट और चार्वाक मत का आश्रय लेकर शिष्य पूर्व पक्ष करता है- प्रश्न – सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि, उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग? उत्तर – सर्वज्ञ की प्राप्ति क्या इस देश और इस काल में नहीं है या सब देश और सब काल में नहीं है, यदि कहो कि इस देश और इस काल में सर्वज्ञ नहीं है, तब तो ठीक ही है, क्योंकि हम भी ऐसा ही मानते हैं । यदि कहो सर्व देश और सर्व कालों में सर्वज्ञ नहीं है, तो तुमने यह कैसे जाना कि तीनों लोक और तीनों काल में सर्वज्ञ का अभाव है । यदि कहो कि अभाव जान लिया, तो तुम ही सर्वज्ञ हो गये (जो तीन लोक तथा तीन काल के पदार्थों को जानता है वही सर्वज्ञ है, सो तुमने यह जान ही लिया है कि तीनों लोक और तीनों कालों में सर्वज्ञ नहीं है, इसलिए तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हुए) । "तीन लोक व तीनों काल में सर्वज्ञ नहीं" इसको यदि नहीं जाना तो "सर्वज्ञ नहीं है" ऐसा निषेध कैसे करते हो? दृष्टान्त- जैसे कोई निषेध करने वाला, घट की आधारभूत पृथ्वी को नेत्रों से घट रहित देख कर, फिर कहे कि “इस पृथ्वी पर घट नहीं है", तो उसका यह कहना ठीक है; परन्तु जो नेत्रहीन है, उसका ऐसा वचन ठीक नहीं है । इसी प्रकार जो तीन जगत्, तीनकाल को सर्वज्ञ रहित जानता है, उसका यह कहना कि तीन जगत् तीन काल में सर्वज्ञ नहीं, उचित हो सकता है; किन्तु जो तीन जगत् तीन काल को जानता है, वह सर्वज्ञ का निषेध किसी भी प्रकार नहीं कर सकता । क्यों नहीं कर सकता? तीन जगत् तीनकाल को जानने से वह स्वयं सर्वज्ञ हो गया, अतः वह सर्वज्ञ का निषेध नहीं कर सकता । सर्वज्ञ के निषेध में "सर्वज्ञ की अनुपलब्धि" जो हेतु वाक्य है, वह भी ठीक नहीं । प्रश्न – क्यों ठीक नहीं? उत्तर – क्या आपके ही सर्वज्ञ की अनुपलब्धि (अप्राप्ति) है या तीन जगत् तीन काल के पुरुषों की अनुपलब्धि है । यदि आपके ही सर्वज्ञ की अनुपलब्धि है, तो इतने मात्र से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जैसे पर के मनोविचार तथा परमाणु आदि की आपके अनुपलब्धि है, तो भी उनका अभाव सिद्ध नहीं होता । यदि तीन जगत् तीन काल के पुरुषों के 'सर्वज्ञ' की अनुपलब्धि है, तो इसको आपने कैसे जाना? यदि कहो "जान लिया" तो आप ही सर्वज्ञ हुए, ऐसा पहले कहा जा चुका है । इस प्रकार से 'हेतु' में दूषण जानना चाहिए । सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि में जो "गधे के सींग" का दृष्टान्त दिया था, वह भी ठीक नहीं है । गधे के सींग नहीं हैं किन्तु गौ आदि के सींग हैं । सींग का जैसे अत्यन्त (सर्वथा) अभाव नहीं, वैसे ही 'सर्वज्ञ' का विवक्षित देश व काल में अभाव होने पर भी सर्वथा अभाव नहीं है । इस प्रकार दृष्टान्त में दूषण आया । प्रश्न – आपके द्वारा सर्वज्ञ के सम्बन्ध में बाधक प्रमाण का तो खण्डन हुआ किन्तु सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करने वाला क्या प्रमाण है? ऐसा पूछे जाने पर उत्तर – "कोई पुरुष (आत्मा) सर्वज्ञ है", इसमें 'पुरुष' धर्मी है और 'सर्वज्ञता', जिसको सिद्ध करना है, वह धर्म है; इस प्रकार "धर्मी धर्म समुदाय" को पक्ष कहते हैं (जिसको सिद्ध करना वह साध्य अर्थात् धर्म है । जिसमें धर्म पाया जावे या रहे, वह धर्मी है । धर्म और धर्मी दोनों मिलकर 'पक्ष' कहलाते हैं) । इसमें हेतु क्या है? पूर्वोक्त अनुसार "बाधक प्रमाण का अभाव" यह हेतु है । किसके समान? अपने अनुभव में आते हुए सुख-दु:ख आदि के समान, यह दृष्टान्त है । इस प्रकार सर्वज्ञ के सद्भाव में पक्ष, हेतु तथा दृष्टान्त रूप से तीन अंगों का धारक अनुमान जानना चाहिये । अथवा, सर्वज्ञ के सद्भाव का साधक दूसरा अनुमान कहते हैं । राम और रावण आदि काल से दूर व ढके पदार्थ, मेरु आदि देश से अन्तरित पदार्थ, भूत आदि भव से ढके हुए पदार्थ तथा पर पुरुषों के चित्तों के विकल्प और परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, ये धर्मी "किसी भी विशेष पुरुष के प्रत्यक्ष देखने में आते हैं", यह उन राम रावणादि धर्मियों में सिद्ध करने योग्य धर्म है; इस प्रकार धर्मी और धर्म के समुदाय से पक्षवचन (प्रतिज्ञा) है । राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष क्यों हैं? “अनुमान का विषय होने से" यह हेतु वचन है । किसके समान? "जो जो अनुमान का विषय है, वह-वह किसी के प्रत्यक्ष होता है, जैसे-अग्नि आदि', यह अन्वय दृष्टान्त का वचन है । "देश काल आदि से अन्तरित पदार्थ भी अनुमान के विषय हैं" यह उपनय का वचन है । इसलिए "राम रावण आदि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं" यह निगमन वाक्य है । अब व्यतिरेक दृष्टान्त को कहते हैं - "जो किसी के भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमान के विषय भी नहीं होते; जैसे कि आकाश के पुष्प आदि" यह व्यतिरेक दृष्टान्त का वचन है । "राम रावण आदि अनुमान के विषय हैं" यह उपनय का वचन है । इसलिए "राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं" यह निगमन वाक्य है । "राम रावणादि किसी के प्रत्यक्ष होते हैं, अनुमान के विषय होने से" यहाँ पर "अनुमान के विषय होने से" यह हेतु है । सर्वज्ञ रूप साध्य में यह हेतु सब तरह से सम्भव है; इस कारण यह हेतु स्वरूपासिद्ध, भावासिद्ध, इन विशेषणों से असिद्ध नहीं है तथा उक्त हेतु, सर्वज्ञ रूप अपने पक्ष को छोड़कर सर्वज्ञ के अभाव रूप विपक्ष को सिद्ध नहीं करता, इस कारण विरुद्ध भी नहीं है । और जैसे "सर्वज्ञ के सद्भाव रूप अपने पक्ष में रहता है, वैसे सर्वज्ञ के अभाव रूप विपक्ष में नहीं रहता, इस कारण उक्त हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है । अनैकान्तिक का क्या अर्थ है? 'व्यभिचारी' । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित भी नहीं है, तथा सर्वज्ञ को न मानने वाले भट्ट और चार्वाक के लिए सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करता है अतः इन दोनों कारणों से अकिंचित्कर भी नहीं है । इस प्रकार से "अनुमान का विषय होने से" यह हेतुवचन असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अकिंचित्कर रूप हेतु के दूषणों से रहित है, इस कारण सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करता ही है । इस प्रकार सर्वज्ञ के सद्भाव में पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन रूप से पाँचों अंगों वाला अनुमान जानना चाहिए । और भी जैसे नेत्रहीन पुरुष को दर्पण के विद्यमान रहने पर भी प्रतिबिम्बों का ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार नेत्रों के स्थानभूत सर्वज्ञतारूप गुण से रहित पुरुष को दर्पण के स्थानभूत वेदशास्त्र में कहे हुए प्रतिबिम्बों के स्थानभूत परमाणु आदि अनन्त सूक्ष्म पदार्थों का किसी भी समय ज्ञान नहीं होता । ऐसा कहा भी है कि- जिस पुरुष के स्वयं बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है? क्योंकि नेत्रों से रहित पुरुष का दर्पण क्या उपकार करेगा? (अर्थात् कुछ उपकार नहीं कर सकता) ॥१॥ इस प्रकार यहाँ संक्षेप से सर्वज्ञ की सिद्धि जाननी चाहिए । ऐसे पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ इन तीनों ध्यानों में ध्येयभूत सकल-परमात्म-श्रीजिन-भट्टारक के व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ॥५०॥ अब सिद्धों के समान निज-परमात्म-तत्त्व में परमसमरसी-भाव वाले रूपातीत नामक निश्चय-ध्यान के परम्परा से कारणभूत तथा मुक्ति को प्राप्त, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी की भक्तिरूप 'णमो सिद्धाणं' इस पद के उच्चारणरूप लक्षण वाला जो पदस्थ-ध्यान, उसके ध्येयभूत सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूप को कहते हैं -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – अरिहंत परमेष्ठी किन्हें कहते हैं ? उत्तर – जिनने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं तथा जो अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य से युक्त हैं और १८ दोषों से रहित होते हैं, उन्हें अरिहंत कहते हैं। प्रश्न – घातिया कर्म किसे कहते हैं ? वे कौन से हैं ? उत्तर – जो जीव के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं। वे चार—(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) मोहनीय और(४) अन्तराय हैं। प्रश्न – अनन्त चतुष्टय कौन से हैं ? उत्तर – अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये अनन्त-चतुष्टय कहलाते हैं। प्रश्न – किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रगट होता है ? उत्तर – ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्तज्ञान, दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनन्तदर्शन, मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्तसुख तथा अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्तवीर्य प्रकट होता है। प्रश्न – अरिहंतों के साथ शुद्ध विशेषण क्यों दिया ? उत्तर – अठारह दोषों से रहित होने से वे शुद्ध आत्मा हैं, इसलिये शुद्ध विशेषण दिया है। प्रश्न – अठारह दोष कौन-कौन हैं ? उत्तर – क्षुधा (भुख), प्यास, बुढ़ापा, रोग, मरण, जन्म, भय, विस्मय, चिंता, अरति, खेद, स्वेद (पसीना) मद, राग, द्वेष, मोह, शोक, जुगुप्सा। ये अठारह दोष अरिहंत के नहीं होते हैं। |