ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[णट्ठट्ठकम्मदेहो] शुभ-अशुभ मन-वचन और काय की क्रियारूप तथा द्वैत शब्द के अभिधेयरूप कर्म समूह का नाश करने में समर्थ, निज-शुद्ध-आत्म-स्वरूप की भावना से उत्पन्न, रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित, परम आनन्द एक लक्षण वाला, सुन्दर-मनोहर-आनन्द को बहाने वाला, क्रियारहित और अद्वैत शब्द का वाच्य, ऐसे परमज्ञानकाण्ड द्वारा ज्ञानावरण आदि कर्म एवं औदारिक आदि पाँच शरीरों को नष्ट करने से, जो नष्ट-अष्ट-कर्म-देह है । [लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा] पूर्वोक्त ज्ञान-काण्ड की भावना के फलस्वरूप पूर्ण निर्मल केवलज्ञान और दर्शन दोनों के द्वारा लोकालोक के तीन कालवर्ती सर्व पदार्थ सम्बन्धी विशेष तथा सामान्य भावों को एक ही समय में जानने और देखने से, लोकालोक को जानने-देखने वाले हैं । [पुरिसायारो] निश्चयनय की दृष्टि से इन्द्रियागोचर-अमूर्तिक-परमचैतन्य से भरे हुए शुद्ध-स्वभाव की अपेक्षा आकार रहित हैं; तो भी व्यवहार से भूतपूर्व नय की अपेक्षा अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले होने के कारण, मोमरहित मूस के बीच के आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के समान, पुरुषाकार है । [अप्पा] पूर्वोक्त लक्षणवाली आत्मा; वह क्या कहलाती है? [सिद्धो] अञ्जनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खड्गसिद्ध और मायासिद्ध आदि लौकिक (लोक में कहे जाने वाले) सिद्धों से विलक्षण केवलज्ञान आदि अनन्तगुणों की प्रकटतारूप सिद्ध कहलाती है । [झाएह लोयसिहरत्थो] हे भव्य-जनो! तुम देखे-सुने अनुभव किये हुए जो पाँचों इंद्रियों के भोग आदि समस्त मनोरथरूप अनेक विकल्प-समूह के त्याग द्वारा मन-वचन-काय की गुप्तिस्वरूप रूपातीत ध्यान में स्थिर होकर, लोक के शिखर पर विराजमान पूर्वोक्त लक्षण वाले सिद्ध परमेष्ठी को ध्यावो! इस प्रकार अशरीरी सिद्ध परमेष्ठी के व्याख्यानरूप यह गाथा समाप्त हुई ॥५१॥ अब उपाधि रहित शुद्ध-आत्मभावना की अनुभूति (अनुभव) का अविनाभूत निश्चयपंच-आचार-रूप-निश्चय-ध्यान का परम्परा से कारणभूत, निश्चय तथा व्यवहार इन दोनों प्रकार के पाँच आचारों में परिणत (तत्पर वा तल्लीन) ऐसे आचार्य परमेष्ठी की भक्तिरूप और टणमो आयरियाणं' इस पद के उच्चारण-रूप जो पदस्थ ध्यान, उस पदस्थ-ध्यान के ध्येयभूत आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं -- [णट्ठट्ठकम्मदेहो] शुभ-अशुभ मन-वचन और काय की क्रियारूप तथा द्वैत शब्द के अभिधेयरूप कर्म समूह का नाश करने में समर्थ, निज-शुद्ध-आत्म-स्वरूप की भावना से उत्पन्न, रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित, परम आनन्द एक लक्षण वाला, सुन्दर-मनोहर-आनन्द को बहाने वाला, क्रियारहित और अद्वैत शब्द का वाच्य, ऐसे परमज्ञानकाण्ड द्वारा ज्ञानावरण आदि कर्म एवं औदारिक आदि पाँच शरीरों को नष्ट करने से, जो नष्ट-अष्ट-कर्म-देह है । [लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा] पूर्वोक्त ज्ञान-काण्ड की भावना के फलस्वरूप पूर्ण निर्मल केवलज्ञान और दर्शन दोनों के द्वारा लोकालोक के तीन कालवर्ती सर्व पदार्थ सम्बन्धी विशेष तथा सामान्य भावों को एक ही समय में जानने और देखने से, लोकालोक को जानने-देखने वाले हैं । [पुरिसायारो] निश्चयनय की दृष्टि से इन्द्रियागोचर-अमूर्तिक-परमचैतन्य से भरे हुए शुद्ध-स्वभाव की अपेक्षा आकार रहित हैं; तो भी व्यवहार से भूतपूर्व नय की अपेक्षा अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले होने के कारण, मोमरहित मूस के बीच के आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के समान, पुरुषाकार है । [अप्पा] पूर्वोक्त लक्षणवाली आत्मा; वह क्या कहलाती है? [सिद्धो] अञ्जनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खड्गसिद्ध और मायासिद्ध आदि लौकिक (लोक में कहे जाने वाले) सिद्धों से विलक्षण केवलज्ञान आदि अनन्तगुणों की प्रकटतारूप सिद्ध कहलाती है । [झाएह लोयसिहरत्थो] हे भव्य-जनो! तुम देखे-सुने अनुभव किये हुए जो पाँचों इंद्रियों के भोग आदि समस्त मनोरथरूप अनेक विकल्प-समूह के त्याग द्वारा मन-वचन-काय की गुप्तिस्वरूप रूपातीत ध्यान में स्थिर होकर, लोक के शिखर पर विराजमान पूर्वोक्त लक्षण वाले सिद्ध परमेष्ठी को ध्यावो! इस प्रकार अशरीरी सिद्ध परमेष्ठी के व्याख्यानरूप यह गाथा समाप्त हुई ॥५१॥ अब उपाधि रहित शुद्ध-आत्मभावना की अनुभूति (अनुभव) का अविनाभूत निश्चयपंच-आचार-रूप-निश्चय-ध्यान का परम्परा से कारणभूत, निश्चय तथा व्यवहार इन दोनों प्रकार के पाँच आचारों में परिणत (तत्पर वा तल्लीन) ऐसे आचार्य परमेष्ठी की भक्तिरूप और 'णमो आयरियाणं' इस पद के उच्चारण-रूप जो पदस्थ ध्यान, उस पदस्थ-ध्यान के ध्येयभूत आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
प्रश्न – सिद्ध परमात्मा कैसे होते हैं? उत्तर – जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्मों से रहित हैं, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर से रहित हैं, जो लोक-अलोक को जानने वाले हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी हैं। प्रश्न – सिद्ध परमेष्ठी कहाँ रहते हैं? उत्तर – सिद्धपरमेष्ठी लोक के अग्रभाग में रहते हैं। प्रश्न – लोक के अग्रभाग को क्या कहते हैं? उत्तर – लोक के अग्रभाग को 'सिद्धालय' कहते हैं। प्रश्न – सिद्धालय में सिद्धों का आकार कैसी होता है ? उत्तर – सिद्ध परमेष्ठी का आकार पुरुषाकार होता है। वे लोकाग्र में अपने अंतिम शरीर से किञ्चित् न्यून आकार के रूप में रहते हैं। |