+ परमध्यान का लक्षण -
मा चिठ्ठह माजंपह, मा चिंतह विंवि जेण होइ थिरो
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥56॥
बोलो नहीं सोचो नहीं अर चेष्टा भी मत करो ।
उत्कृष्टतम यह ध्यान है निज आतमा में रत रहो ॥५६॥
अन्वयार्थ : [किंवि] कुछ भी [चिट्ठह मा] चेष्टा मत करो [जंपह मा] बोलो मत [चिंतह मा] चिन्तन/विचार मत करो [जेण] जिससे [अप्पा अप्पम्मि] आत्मा आत्मा में [रओ] रत होता हुआ [थिरो हवे] स्थिर होवे [इणं एव] यह ही [परं झाणं] परम ध्यान [होइ] होता है ।
Meaning : Do not make bodily movements, nor utter any words, nor dilute the focus of mind; remaining engrossed in your pure Self is real meditation.

  ब्रह्मदेव सूरि    आर्यिका ज्ञानमती 

ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि] हे विवेकी पुरुषों! नित्य निरंजन और क्रियारहित निज-शुद्ध-आत्मा के अनुभव को रोकने वाली शुभ-अशुभ चेष्टारूप काय की क्रिया को तथा शुभ-अशुभ-अन्तरंग-बहिरंगरूप वचन को और शुभ-अशुभ विकल्प समूहरूप मन के व्यापार को कुछ भी मत करो । [जेण होइ थिरो] जिन तीनों योगों के रोकने से स्थिर होता है । वह कौन? [अप्पा] आत्मा । कैसा होकर स्थिर होता है? [अप्पम्मि रओ] स्वाभाविक शुद्ध-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव जो परमात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक परम-ध्यान के अनुभव से उत्पन्न, सर्व प्रदेशों को आनन्ददायक ऐसे सुख के अनुभवरूप परिणति सहित स्व-आत्मा में रत, तल्लीन, तच्चित्त तथा तन्मय होकर स्थिर होता है । [इणमेव परं हवे ज्झाणं] यही जो आत्मा के सुखस्वरूप में तन्मयपना है, वह निश्चय से परम उत्कृष्ट ध्यान है ।
उस परमध्यान में स्थित जीवों को जो वीतराग परमानन्द सुख प्रतिभासित होता है वही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है । वह अन्य पर्यायवाची नामों से क्या-क्या कहा जाता है, सो कहते हैं । वही शुद्ध आत्म-स्वरूप है, वही परमात्मा का स्व-रूप है, वही एक देश में प्रकटतारूप विवक्षित एक देश शुद्ध-निश्चयनय से निज-शुद्ध-आत्मानुभव से उत्पन्न सुखरूपी अमृत-जल के सरोवर में राग आदि मलों से रहित होने के कारण परमहंस-स्वरूप है । परमात्मध्यान के भावना की नाममाला में इस एकदेश व्यक्तिरूप शुद्धनय के व्याख्यान को यथासम्भव सब जगह लगा लेना चाहिए (ये नाम एकदेश शुद्धनिश्चयनय से अपेक्षित हैं)
वही परब्रह्मस्वरूप है, वही परमविष्णुरूप है, वही परमशिवरूप है, वही परमबुद्धस्वरूप है, वही परमजिनस्वरूप है, वही परम-निज-आत्मोपलब्धिरूप सिद्धस्वरूप है, वही निरंजनस्वरूप है, वही निर्मलस्वरूप है, वही स्वसंवेदनज्ञान है, वही परमतत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्मदर्शन है, वही परम अवस्थास्वरूप है, वही परमात्मदर्शन है, वही परमात्मज्ञान है, वही परमावस्थारूप परमात्मा का स्पर्शन है, वही ध्यान करने योग्य शुद्ध-पारिणामिक-भावरूप है, वही ध्यानभावनारूप है, वही शुद्धचारित्र है, वह ही परमपवित्र है, वही अन्तरंग तत्त्व है, वही परम-तत्त्व है, वही शुद्धात्म-द्रव्य है, वही परम-ज्योति है, वही शुद्ध-आत्मानुभूति है, वही आत्मा की प्रतीति है, वही आत्म-संवित्ति ( आत्म-संवेदन) है, वही निज-आत्मस्वरूप की प्राप्ति है, वही नित्य पदार्थ की प्राप्ति है, वही परम
समाधि है, वही परम-आनन्द है, वही नित्य आनन्द है, वही स्वाभाविक आनन्द है, वही सदानन्द है, वही शुद्ध आत्म-पदार्थ के अध्ययन रूप है, वही परमस्वाध्याय है, वही निश्चय मोक्ष का उपाय है, वही एकाग्र-चिन्ता-निरोध है, वही परमज्ञान है, वही शुद्ध-उपयोग है, वही परम-योग (समाधि) है, वही भूतार्थ है, वही परमार्थ है, वही निश्चय-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्यरूप निश्चय पंचाचार है, वही समयसार है; वह ही अध्यात्मसार है । वही समता आदि निश्चय-षट्-आवश्यक स्वरूप है, वह ही अभेद-रत्नत्रय-स्वरूप है, वही वीतराग सामायिक है, वही परमशरणरूप उत्तम मंगल है, वही केवल-ज्ञानोत्पत्ति का कारण है, वही समस्त कर्मों के क्षय का कारण है, वही निश्चय-दर्शन-ज्ञानचरित्र-तप-आराधनास्वरूप है, वही परमात्मा-भावनारूप है, वही शुद्धात्म-भावना से उत्पन्न सुख की अनुभूतिरूप परम-कला है, वही दिव्य-कला है, वही परम-अद्वैत है, वही अमृतस्वरूप परमधर्मध्यान है, वही शुक्लध्यान है, वही राग आदि विकल्परहित ध्यान है, वही निष्फल ध्यान है, वही परम-स्वास्थ्य है, वही परम-वीतरागता है, वही परम-समता है, वही परम एकत्व है, वही परमभेदज्ञान है, वही परम-समरसी-भाव है; इत्यादि समस्त रागादि विकल्प-उपाधि-रहित, परम आह्लाद एक-सुख-लक्षणमयी ध्यान-स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग को कहने वाले अन्य बहुत से पर्यायवाची नाम परमात्मतत्त्व ज्ञानियों के द्वारा जानने योग्य होते हैं ॥५६॥
यद्यपि पहले ध्यान करने वाले पुरुष का लक्षण और ध्यान की सामग्री का बहुत प्रकार से वर्णन कर चुके हैं, फिर भी चूलिका तथा उपसंहार रूप से ध्याता पुरुष और ध्यान सामग्री को इसके आगे कहते हैं --


[मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि] हे विवेकी पुरुषों! नित्य निरंजन और क्रियारहित निज-शुद्ध-आत्मा के अनुभव को रोकने वाली शुभ-अशुभ चेष्टारूप काय की क्रिया को तथा शुभ-अशुभ-अन्तरंग-बहिरंगरूप वचन को और शुभ-अशुभ विकल्प समूहरूप मन के व्यापार को कुछ भी मत करो । [जेण होइ थिरो] जिन तीनों योगों के रोकने से स्थिर होता है । वह कौन? [अप्पा] आत्मा । कैसा होकर स्थिर होता है? [अप्पम्मि रओ] स्वाभाविक शुद्ध-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव जो परमात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक परम-ध्यान के अनुभव से उत्पन्न, सर्व प्रदेशों को आनन्ददायक ऐसे सुख के अनुभवरूप परिणति सहित स्व-आत्मा में रत, तल्लीन, तच्चित्त तथा तन्मय होकर स्थिर होता है । [इणमेव परं हवे ज्झाणं] यही जो आत्मा के सुखस्वरूप में तन्मयपना है, वह निश्चय से परम उत्कृष्ट ध्यान है ।

उस परमध्यान में स्थित जीवों को जो वीतराग परमानन्द सुख प्रतिभासित होता है वही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है । वह अन्य पर्यायवाची नामों से क्या-क्या कहा जाता है, सो कहते हैं । वही शुद्ध आत्म-स्वरूप है, वही परमात्मा का स्व-रूप है, वही एक देश में प्रकटतारूप विवक्षित एक देश शुद्ध-निश्चयनय से निज-शुद्ध-आत्मानुभव से उत्पन्न सुखरूपी अमृत-जल के सरोवर में राग आदि मलों से रहित होने के कारण परमहंस-स्वरूप है । परमात्मध्यान के भावना की नाममाला में इस एकदेश व्यक्तिरूप शुद्धनय के व्याख्यान को यथासम्भव सब जगह लगा लेना चाहिए (ये नाम एकदेश शुद्धनिश्चयनय से अपेक्षित हैं)

वही परब्रह्मस्वरूप है, वही परमविष्णुरूप है, वही परमशिवरूप है, वही परमबुद्धस्वरूप है, वही परमजिनस्वरूप है, वही परम-निज-आत्मोपलब्धिरूप सिद्धस्वरूप है, वही निरंजनस्वरूप है, वही निर्मलस्वरूप है, वही स्वसंवेदनज्ञान है, वही परमतत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्मदर्शन है, वही परम अवस्थास्वरूप है, वही परमात्मदर्शन है, वही परमात्मज्ञान है, वही परमावस्थारूप परमात्मा का स्पर्शन है, वही ध्यान करने योग्य शुद्ध-पारिणामिक-भावरूप है, वही ध्यानभावनारूप है, वही शुद्धचारित्र है, वह ही परमपवित्र है, वही अन्तरंग तत्त्व है, वही परम-तत्त्व है, वही शुद्धात्म-द्रव्य है, वही परम-ज्योति है, वही शुद्ध-आत्मानुभूति है, वही आत्मा की प्रतीति है, वही आत्म-संवित्ति ( आत्म-संवेदन) है, वही निज-आत्मस्वरूप की प्राप्ति है, वही नित्य पदार्थ की प्राप्ति है, वही परम समाधि है, वही परम-आनन्द है, वही नित्य आनन्द है, वही स्वाभाविक आनन्द है, वही सदानन्द है, वही शुद्ध आत्म-पदार्थ के अध्ययन रूप है, वही परमस्वाध्याय है, वही निश्चय मोक्ष का उपाय है, वही एकाग्र-चिन्ता-निरोध है, वही परमज्ञान है, वही शुद्ध-उपयोग है, वही परम-योग (समाधि) है, वही भूतार्थ है, वही परमार्थ है, वही निश्चय-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्यरूप निश्चय पंचाचार है, वही समयसार है; वह ही अध्यात्मसार है । वही समता आदि निश्चय-षट्-आवश्यक स्वरूप है, वह ही अभेद-रत्नत्रय-स्वरूप है, वही वीतराग सामायिक है, वही परमशरणरूप उत्तम मंगल है, वही केवल-ज्ञानोत्पत्ति का कारण है, वही समस्त कर्मों के क्षय का कारण है, वही निश्चय-दर्शन-ज्ञानचरित्र-तप-आराधनास्वरूप है, वही परमात्मा-भावनारूप है, वही शुद्धात्म-भावना से उत्पन्न सुख की अनुभूतिरूप परम-कला है, वही दिव्य-कला है, वही परम-अद्वैत है, वही अमृतस्वरूप परमधर्मध्यान है, वही शुक्लध्यान है, वही राग आदि विकल्परहित ध्यान है, वही निष्फल ध्यान है, वही परम-स्वास्थ्य है, वही परम-वीतरागता है, वही परम-समता है, वही परम एकत्व है, वही परमभेदज्ञान है, वही परम-समरसी-भाव है; इत्यादि समस्त रागादि विकल्प-उपाधि-रहित, परम आह्लाद एक-सुख-लक्षणमयी ध्यान-स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग को कहने वाले अन्य बहुत से पर्यायवाची नाम परमात्मतत्त्व ज्ञानियों के द्वारा जानने योग्य होते हैं ॥५६॥

यद्यपि पहले ध्यान करने वाले पुरुष का लक्षण और ध्यान की सामग्री का बहुत प्रकार से वर्णन कर चुके हैं, फिर भी चूलिका तथा उपसंहार रूप से ध्याता पुरुष और ध्यान सामग्री को इसके आगे कहते हैं --

आर्यिका ज्ञानमती :

काय, वचन और मन की सभी क्रियाओं को रोककर तथा मन को स्थिर करके जो आत्मा अपने आप में लीन हो जाता है उस समय ही उसका ध्यान निर्विकल्प परम ध्यान कहलाता है।

प्रश्न – परम ध्यान किसे कहते हैं?

उत्तर –
मानसिक, वाचनिक और कायिक व्यापार को छोड़कर आत्मा का आत्मा में लीन हो जाना परम-उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है।

प्रश्न – परम ध्यान की सिद्धि किसे होती है?

उत्तर –
वीतरागी, निर्र्ग्रन्थ, दिगम्बर मुनिराज को ही परम ध्यान की सिद्धि होती है।