ब्रह्मदेव सूरि : संस्कृत
[तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा] क्योंकि तप, श्रुत और व्रतधारी आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने के लिए समर्थ होता है । [तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होइ] हे भव्यो! इस कारण से तप, श्रुत और व्रत, इन तीन में सदा लीन हो जाओ । किसलिए? उस ध्यान की प्राप्ति के लिए । विशेष वर्णन -- १. अनशन (उपवास करना), २. अवमौदर्य (कम भोजन करना), ३. वृत्तिपरिसंख्यान (अटपटी आखड़ी करके भोजन करने जाना), ४.रस परित्याग (दूध, दही, घी, तेल, खाण्ड व नमक, इन छह रसों में से एक दो आदि रसों का त्याग करना), ५. विविक्तशय्यासन (निर्जन और एकान्त स्थल में शयन करना, रहना, बैठना), ६. कायक्लेश (आत्मशुद्धि के लिए आतापन योग आदि करना) यह छह प्रकार का बाह्य तप; १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग (बाह्य अभ्यन्तर उपाधि का त्याग) और ६. ध्यान; यह छह प्रकार का अन्तरंग तप; ऐसे बाह्य तथा अभ्यन्तररूप बारह प्रकार का (व्यवहार)तप है । उसी (व्यवहार) तप से सिद्ध होने योग्य निज-शुद्ध-आत्म-स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजय करने रूप निश्चय तप है । इसी प्रकार आचार-आराधना आदि द्रव्यश्रुत है तथा उस द्रव्य-श्रुत के आधार से उत्पन्न व विकार रहित निज-शुद्ध-स्वसंवेदनरूप ज्ञान, भावश्रुत है तथा हिंसा, अनृत, स्तेय (चोरी), अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह, इनका द्रव्य व भावरूप से त्याग करना, पाँच व्रत हैं । ऐसे पूर्वोक्त तप, श्रुत और व्रत से सहित पुरुष ध्याता (ध्यान करने वाला) होता है । तप, श्रुत तथा व्रत ही ध्यान की सामग्री है । सो ही कहा है- १. वैराग्य, २. तत्त्वों का ज्ञान, ३. परिग्रहों का त्याग, ४. साम्यभाव और ५. परीषहों का जीतना ये पाँच ध्यान के कारण हैं ॥१॥ शंका - भगवान् ! ध्यान तो मोक्ष का कारण है, मोक्ष चाहने वाले पुरुष को पुण्यबन्ध का कारण होने से व्रत त्यागने योग्य है (व्रतों से पुण्य कर्म का बन्ध होता है; पुण्यबन्ध संसार का कारण है; इस कारण मोक्षार्थी व्रतों का त्याग करता है) किन्तु आपने तप, श्रुत और व्रतों को ध्यान की सामग्री बतलाया है । सो यह आपका कथन कैसे सिद्ध होता है? उत्तर - केवल व्रत ही त्यागने योग्य नहीं हैं किन्तु पापबन्ध के कारण हिंसा आदि अव्रत भी त्याज्य हैं । सोही श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है- अव्रतों से पाप का बन्ध और व्रतों से पुण्य का बन्ध होता है, पाप तथा पुण्य इन दोनों का नाश होना मोक्ष है, इस कारण मोक्षार्थी पुरुष जैसे अव्रतों का त्याग करता है, वैसे ही अहिंसादि व्रतों का भी त्याग करे ॥१॥ परन्तु मोक्षार्थी पुरुष पहले अव्रतों का त्याग करके पश्चात् व्रतों को धारण करके निर्विकल्पसमाधि (ध्यान) रूप आत्मा के परम पद को प्राप्त होकर तदनन्तर एकदेश व्रतों का भी त्याग कर देता है । यह भी श्री पूज्यपादस्वामी ने समाधिशतक में कहा है मोक्ष चाहने वाला पुरुष अव्रतों का त्याग करके व्रतों में स्थित होकर परमात्मपद प्राप्त करे और परमपद पाकर उन व्रतों का भी त्याग करे ॥१॥ विशेष यह है कि जो व्यवहाररूप से प्रसिद्ध एकदेशव्रत हैं, ध्यान में उनका त्याग किया है; किन्तु समस्त त्रिगुप्तिरूप स्व-शुद्ध-आत्म-अनुभवरूप निर्विकल्प ध्यान में समस्त शुभ-अशुभ की निवृत्ति रूप निश्चयव्रत ग्रहण किये हैं, उनका त्याग नहीं किया है । प्रश्न - प्रसिद्ध अहिंसादि महाव्रत एकदेश रूप व्रत कैसे हो गये? उत्तर - अहिंसा महाव्रत में यद्यपि जीवों के घात से निवृत्ति है; तथापि जीवों की रक्षा करने में प्रवृत्ति है । इसी प्रकार सत्य महाव्रत में यद्यपि असत्य वचन का त्याग है, तो भी सत्य वचन में प्रवृत्ति है । अचौर्यमहाव्रत में यद्यपि बिना दिये हुए पदार्थ के ग्रहण का त्याग है, तो भी दिये हुए पदार्थों (पिच्छिका, कमण्डलु, शास्त्र) के ग्रहण करने में प्रवृत्ति है, इत्यादि एकदेश प्रवृत्ति की अपेक्षा से ये पाँचों महाव्रत देशव्रत हैं । इन एकदेश रूप व्रतों का, त्रिगुप्ति स्वरूप निर्विकल्प समाधि-काल में त्याग है । किन्तु समस्त शुभ-अशुभ की निवृत्तिरूप निश्चयव्रत का त्याग नहीं है । प्रश्न - त्याग शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर - जैसे हिंसा आदि पाँच अव्रतों की निवृत्ति है, उसी प्रकार अहिंसा आदि पंच महाव्रतरूप एकदेश व्रतों की भी निवृत्ति है, यहाँ त्याग शब्द का यह अर्थ है । शंका - इन एकदेश व्रतों का त्याग किस कारण होता है? उत्तर - त्रिगुप्तिरूप अवस्था में प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप विकल्प का स्वयं स्थान नहीं है । (ध्यान में कोई विकल्प नहीं होता । अहिंसादिक महाव्रत विकल्परूप हैं अतः वे ध्यान में नहीं रह सकते) । अथवा वास्तव में वह निर्विकल्प ध्यान ही निश्चयव्रत है क्योंकि उसमें पूर्ण निवृत्ति है । दीक्षा के बाद दो घड़ी (४८ मिनट) काल में ही भरतचक्रवर्ती ने जो मोक्ष प्राप्त किया है, उन्होंने भी जिन-दीक्षा ग्रहण करके, थोड़े काल तक विषय-कषाय की निवृत्तिरूप व्रत का परिणाम करके, तदनन्तर शुद्धोपयोगरूप रत्नत्रयमयी निश्चयव्रत नामक वीतराग सामायिक संज्ञा वाले निर्विकल्पध्यान में स्थित होकर केवलज्ञान प्राप्त किया है । परन्तु व्रत परिणाम के स्तोक काल के कारण लोग श्री भरतजी के व्रत-परिणाम को नहीं जानते । अब उन ही भरतजी के दीक्षाविधान का कथन करते हैं । श्री वर्द्धमान तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में श्रेणिक महाराज ने प्रश्न किया कि हे भगवन्! भरतचक्रवर्ती को जिनदीक्षा लेने के पीछे कितने समय में केवलज्ञान हुआ? श्री गौतम गणधर ने उत्तर दिया - हे श्रेणिक! पंच-मुष्ठियों से बालों को उखाड़कर (केशलौंच करके) कर्मबन्ध की स्थिति तोड़ते हुए, केशलौंच के अनन्तर ही भरतचक्रवर्ती ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ॥१॥ शिष्य का प्रश्न - इस पंचमकाल में ध्यान नहीं है क्योंकि इस काल में उत्तम संहनन (वज्रवृषभनाराच संहनन) का अभाव है तथा दश एवं चौदहपूर्व श्रुतज्ञान भी नहीं पाया जाता? उत्तर - इस समय शुक्लध्यान नहीं है परन्तु धर्मध्यान है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने मोक्षप्राभृत में कहा है- भरतक्षेत्र विषम दुःषमा नामक पंचमकाल में ज्ञानी जीव के धर्मध्यान होता है । यह धर्मध्यान आत्म-स्वभाव में स्थित के होता है । जो यह नहीं मानता, वह अज्ञानी है ॥१॥ इस समय भी जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय से शुद्ध जीव आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद अथवा लौकान्तिकदेव पद को प्राप्त होते हैं और वहाँ से चयकर नरदेह ग्रहण करके मोक्ष को जाते हैं ॥२॥ ऐसा ही तत्त्वानुशासन ग्रन्थ में भी कहा है- इस समय (पंचमकाल) में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं; किन्तु श्रेणी से पूर्व में होने वाले धर्मध्यान का अस्तित्व बतलाया है ॥१॥ तथा - जो यह कहा है कि- "इस काल में उत्तम संहनन का अभाव है इस कारण ध्यान नहीं होता" सो यह उत्सर्ग वचन है अपवादरूप व्याख्यान से तो उपशमश्रेणी तथा क्षपक श्रेणी में शुक्लध्यान होता है और वह उत्तम संहनन से ही होता है; किन्तु अपूर्वकरण (८ वें) गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में जो धर्मध्यान होता है, वह धर्मध्यान पहले तीन उत्तम संहननों के अभाव होने पर भी अन्तिम के (अर्द्धनाराच, कीलक और सृपाटिका) तीन संहननों से भी होता है । यह भी उसी तत्त्वानुशासन ग्रन्थ में कहा है -- वज्रकाय (संहनन) वाले के ध्यान होता है, ऐसा आगम-वचन उपशम तथा क्षपक श्रेणी के ध्यान की अपेक्षा कहा है । यह वचन नीचे के गुणस्थानों में धर्मध्यान का निषेधक नहीं है । जो ऐसा कहा है कि "दश तथा चौदहपूर्व तक के श्रुतज्ञान से ध्यान होता है" वह भी उत्सर्गवचन है । अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रतिपादन करने वाले सारभूत श्रुतज्ञान से भी ध्यान और केवलज्ञान होता है । यदि ऐसा अपवाद व्याख्यान न हो, तो तुष-माष का उच्चारण करते हुए श्री शिवभूति मुनि केवलज्ञानी हो गये इत्यादि गन्धर्वाराधनादि ग्रन्थों में कहा हुआ कथन कैसे सिद्ध होवे । शंका - श्री शिवभूति मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों को प्रतिपादन करने वाले द्रव्य श्रुत को जानते थे और भावश्रुत उनके पूर्णरूप से था । उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि यदि शिवभूति मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों का कथन करने वाले द्रव्यश्रुत को जानते थे तो उन्होंने "मा तूसह मा रूसह" अर्थात् "किसी में राग और द्वेष मत कर" इस एक पद को क्यों नहीं जाना । इसी कारण से जाना जाता है कि पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप आठ प्रवचनमातृका प्रमाण ही उनके भावश्रुत था और द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं था । यह व्याख्यान मैंने ही कल्पित नहीं किया है, किन्तु चारित्रसार आदि शास्त्रों में भी यह वर्णन हुआ है, तथाहि-अन्तर्मुहूर्त में जो केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं वे क्षीणकषाय गुणस्थान में रहने वाले 'निर्ग्रन्थ' नामक ऋषि कहलाते हैं और उनके उत्कृष्टता से ग्यारह अंग, चौदह पूर्व पर्यन्त श्रुतज्ञान होता है, जघन्य से पाँच समिति तीन गुप्ति मात्र ही श्रुतज्ञान होता है ।१। शंका - मोक्ष के लिए ध्यान किया जाता है और इस पंचम काल में मोक्ष होता नहीं, अतः ध्यान करने से क्या प्रयोजन? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि इस पंचमकाल में भी परम्परा से मोक्ष है । प्रश्न - परम्परा से मोक्ष कैसे है? उत्तर - (ध्यानी पुरुष) निजशुद्ध-आत्म-भावना के बल से संसार-स्थिति को अल्प करके स्वर्ग में जाते हैं । वहाँ से आकर मनुष्य भव में रत्नत्रय की भावना को प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्ष जाते हैं । जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचन्द्र, पाण्डव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम) आदि मोक्ष गये हैं, वे भी पूर्वभव में भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से संसार-स्थिति को स्तोक करके फिर मोक्ष गये । उसी भव में सबको मोक्ष हो जाता है, ऐसा नियम नहीं । उपर्युक्त कथनानुसार अल्पश्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है । यह जानकर क्या करना चाहिए? द्वेष से किसी को मारने, बाँधने व अंग काटने आदि का और राग से परस्त्री आदि का जो चिन्तन करना है, निर्मल बुद्धि के धारक आचार्य जिनमत में उसको अपध्यान कहते हैं ॥१॥ हे जीव! संकल्परूपी कल्पवृक्ष का आश्रय करने से तेरा चंचल चित्त इस मनोरथरूपी सागर में डूब जाता है, वैसे उन संकल्पों में जीव का वास्तव में कुछ प्रयोजन नहीं सधता, प्रत्युत कलुषता से समागम करने वालों का अर्थात् कलुषित चित्त वालों का अकल्याण होता है ॥२॥ जिस प्रकार दुर्भाग्य से दुःखित मन वाले तेरे अन्तरंग में भोग भोगने की इच्छा से व्यर्थ तरंगें उठती रहती हैं । उसी प्रकार यदि वह मन परमात्मरूप स्थान में स्फुरायमान हो तो तेरा जन्म कैसे निष्फल हो सकता है? अर्थात् तेरा जन्म सफल हो जावे ॥३॥ आकांक्षा से कलुषित हुआ और काम भोगों में मूर्च्छित, यह जीव भोगों को नहीं भोगता हुआ भी भावों से कर्मों को बाँधता है ॥४॥ इत्यादि रूप दुर्ध्यान को छोड़कर निर्ममत्व में स्थित होकर अन्य पदार्थों में ममत्व बुद्धि का त्याग करता हूँ, मेरे आत्मा का ही आलन्बन है, अन्य सबको मैं त्यागता हूँ ॥१॥ मेरा आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही संवर है और आत्मा ही योग है ॥२॥ ज्ञान-दर्शन का धारक अविनाशी एक मेरा आत्मा है और शेष सब संयोग लक्षण वाले बाह्य भाव हैं ॥३॥ इत्यादि सारभूत पदों को ग्रहण करके ध्यान करना चाहिए । अब मोक्ष के विषय में फिर भी नय विचार कहते हैं - मोक्ष बन्धपूर्वक है । सो ही कहा है - यदि जीव मुक्त है तो पहले इस जीव के बन्ध अवश्य होना चाहिए क्योंकि यदि बन्ध न हो तो मोक्ष (छूटना) कैसे हो सकता है । इसलिए अबन्ध (न बँधे हुए) की मुक्ति नहीं हुआ करती, उसके तो मुंच धातु (छूटने की वाचक) का प्रयोग ही व्यर्थ है (कोई मनुष्य पहले बँधा हुआ हो, फिर छूटे, तब वह मुक्त कहलाता है । ऐसे ही जो जीव पहले कर्मों से बँधा हो उसी को मोक्ष होता है) । शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से बन्ध है ही नहीं । इस प्रकार शुद्ध-निश्चयनय से बन्धपूर्वक मोक्ष भी नहीं है । यदि शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा बन्ध होवे तो सदा ही बन्ध होता रहे, मोक्ष ही न हो । जैसे जंजीर से बँधे हुए पुरुष के, बन्ध नाश के कारणभूत जो भावमोक्ष है उसकी जगह जो जंजीर के बन्धन को छेदने का कारणभूत उद्यम है, वह पुरुष का स्वरूप नहीं है और इसी प्रकार द्रव्यमोक्ष के स्थान में जो जंजीर और पुरुष इन दोनों का अलग होना है, वह भी पुरुष का स्वरूप नहीं है किन्तु उन उद्यम और जंजीर के छुटकारे से जुदा जो देखा हुआ हस्तपाद आदि रूप आकार है, वही पुरुष का स्वरूप है । उसी प्रकार शुद्धोपयोगरूप जो भाव मोक्ष का स्वरूप है, वह शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव का स्वरूप नहीं है और उसी तरह उस भावमोक्ष से साध्य जो जीव और कर्म के प्रदेशों के पृथक् होने रूप द्रव्य मोक्ष का स्वरूप है, वह भी जीव का स्वभाव नहीं है किन्तु उन भाव व द्रव्यमोक्ष से भिन्न तथा उनका फलभूत जो अनन्त ज्ञान आदि गुण-रूप स्वभाव है, वही शुद्ध जीव का स्वरूप है । यहाँ तात्पर्य यह है कि, जैसे विवक्षित-एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से पहले मोक्षमार्ग का व्याख्यान है; उसी प्रकार पर्यायमोक्ष रूप जो मोक्ष है, वह भी एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से है; किन्तु शुद्ध-निश्चयनय से नहीं है । जो शुद्ध-द्रव्य की शक्ति रूप शुद्ध-पारिणामिक परमभाव रूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहले ही विद्यमान है, वह परमनिश्चय मोक्ष जीव में अब होगा, ऐसा नहीं है । राग आदि विकल्पों से रहित मोक्ष का कारणभूत ध्यान-भावना-पर्याय में, वही परम निश्चय मोक्ष ध्येय होता है, वह निश्चय मोक्ष ध्यान-भावना-पर्यायरूप नहीं है । यदि एकान्त से द्रव्यार्थिक नय से भी उसी (परमनिश्चय मोक्ष) को मोक्ष का कारणभूत ध्यान-भावना-पर्याय कहा जावे, तो द्रव्य और पर्याय रूप दो धर्मों के आधारभूत जीव-धर्मी का, मोक्षपर्याय प्रकट होने पर, जैसे ध्यान-भावना-पर्यायरूप से विनाश होता है, उसी प्रकार शुद्ध-पारिणामिक-भाव स्वरूप द्रव्य रूप से भी ध्येयभूत जीव का विनाश प्राप्त होगा; किन्तु द्रव्य रूप से जीव का विनाश नहीं है । इस कारण, "शुद्ध-पारिणामिक भाव से जीव के बन्ध और मोक्ष नहीं है" यह कथन सिद्ध हो गया । अब आत्मा शब्द का अर्थ कहते हैं । 'अत' धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थ में है और सब गमनार्थक धातु ज्ञानार्थक होती हैं । इस वचन से यहाँ पर 'गमन' शब्द से ज्ञान कहा जाता है । इस कारण जो यथासम्भव ज्ञान सुख आदि गुणों में सर्व प्रकार वर्त्तता है, वह आत्मा है । अथवा शुभअशुभ मन-वचन-काय की क्रिया के द्वारा यथासम्भव तीव्र-मन्द आदि रूप से जो पूर्णरूपेण वर्तता है, वह आत्मा है । अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मों के द्वारा जो पूर्णरूप से वर्तता है, वह आत्मा है । शंका - जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जल के भरे हुए घटों में देखा जाता है, इसी प्रकार एक ही जीव अनेक शरीरों में रहता है? उत्तर - यह कथन घटित नहीं होता । प्रश्न - क्यों नहीं घटित होता? उत्तर - चन्द्रकिरणरूप उपाधि-वश से घटों में स्थित जलरूपी, पुद्गल ही नाना-चन्द्र-आकार रूप परिणत हुआ है, एक चन्द्रमा अनेक रूप नहीं परिणमा है । दृष्टान्त कहते हैं- जैसे देवदत्त के मुख रूप उपाधि के वश से अनेक दर्पणों में स्थित पुद्गल ही अनेक मुख रूप परिणमते हैं, एक देवदत्त का मुख अनेक रूप नहीं परिणमता । यदि कहो कि देवदत्त का मुख ही अनेक मुख रूप परिणमता है, तो दर्पणस्थित देवदत्त के मुख के प्रतिबिम्ब भी, देवदत्त के मुख की तरह, चेतन (सजीव) हो जायेंगे, परन्तु ऐसा नहीं है (दर्पणों में मुख-प्रतिबिम्ब चेतन नहीं हैं) यदि अनेक शरीरों में एक ही जीव हो तो, एक जीव को सुख-दुःख-जीवन-मरण आदि प्राप्त होने पर, उसी क्षण सब जीवों को सुख-दुःखजीवन-मरण आदि प्राप्त होने चाहिए; किन्तु ऐसा देखने में नहीं आता । अथवा जो ऐसा कहते हैं कि, "जैसे एक ही समुद्र कहीं तो खारे जल वाला है, कहीं मीठे जल वाला है, उसी, प्रकार एक ही जीव सब देहों में विद्यमान है" सो यह कहना भी घटित नहीं होता । प्रश्न - क्यों नहीं घटित होता । उत्तर - समुद्र में जलराशि की अपेक्षा से एकता है, जलपुद्गलों (कणों) की अपेक्षा से एकता नहीं है । यदि जलपुद्गलों की अपेक्षा से एकता होती (एक अखण्ड द्रव्य होता) तो समुद्र में से थोड़ा जल ग्रहण करने पर शेष जल भी उसके साथ ही क्यों न आ जाता । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि -- सोलह-वानी के सुवर्ण की राशि के समान अनन्तज्ञान आदि लक्षण की अपेक्षा जीवराशि में एकता है और एक जीव की (समस्त जीवराशि में एक ही जीव है, इस) अपेक्षा से जीवराशि में एकता नहीं है । अब 'अध्यात्म' शब्द का अर्थ कहते हैं । मिथ्यात्व-राग आदि समस्त विकल्प, समूह के त्याग द्वारा निज-शुद्ध-आत्मा में जो अनुष्ठान (प्रवृत्ति का करना) उसको 'अध्यात्म' कहते हैं । इस प्रकार ध्यान की सामग्री के व्याख्यान के उपसंहार रूप से यह गाथा समाप्त हुई ॥५७॥ अब ग्रन्थकार अपने अभिमान के परिहार के लिए छन्द कहते हैं -- [तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा] क्योंकि तप, श्रुत और व्रतधारी आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने के लिए समर्थ होता है । [तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होइ] हे भव्यो! इस कारण से तप, श्रुत और व्रत, इन तीन में सदा लीन हो जाओ । किसलिए? उस ध्यान की प्राप्ति के लिए । विशेष वर्णन -- १. अनशन (उपवास करना), २. अवमौदर्य (कम भोजन करना), ३. वृत्तिपरिसंख्यान (अटपटी आखड़ी करके भोजन करने जाना), ४.रस परित्याग (दूध, दही, घी, तेल, खाण्ड व नमक, इन छह रसों में से एक दो आदि रसों का त्याग करना), ५. विविक्तशय्यासन (निर्जन और एकान्त स्थल में शयन करना, रहना, बैठना), ६. कायक्लेश (आत्मशुद्धि के लिए आतापन योग आदि करना) यह छह प्रकार का बाह्य तप; १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग (बाह्य अभ्यन्तर उपाधि का त्याग) और ६. ध्यान; यह छह प्रकार का अन्तरंग तप; ऐसे बाह्य तथा अभ्यन्तररूप बारह प्रकार का (व्यवहार) तप है । उसी (व्यवहार) तप से सिद्ध होने योग्य निज-शुद्ध-आत्म-स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजय करने रूप निश्चय तप है । इसी प्रकार आचार-आराधना आदि द्रव्यश्रुत है तथा उस द्रव्य-श्रुत के आधार से उत्पन्न व विकार रहित निज-शुद्ध-स्वसंवेदनरूप ज्ञान, भावश्रुत है तथा हिंसा, अनृत, स्तेय (चोरी), अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह, इनका द्रव्य व भावरूप से त्याग करना, पाँच व्रत हैं । ऐसे पूर्वोक्त तप, श्रुत और व्रत से सहित पुरुष ध्याता (ध्यान करने वाला) होता है । तप, श्रुत तथा व्रत ही ध्यान की सामग्री है । सो ही कहा है- १. वैराग्य, २. तत्त्वों का ज्ञान, ३. परिग्रहों का त्याग, ४. साम्यभाव और ५. परीषहों का जीतना ये पाँच ध्यान के कारण हैं ॥१॥ शंका – भगवान् ! ध्यान तो मोक्ष का कारण है, मोक्ष चाहने वाले पुरुष को पुण्यबन्ध का कारण होने से व्रत त्यागने योग्य है (व्रतों से पुण्य कर्म का बन्ध होता है; पुण्यबन्ध संसार का कारण है; इस कारण मोक्षार्थी व्रतों का त्याग करता है) किन्तु आपने तप, श्रुत और व्रतों को ध्यान की सामग्री बतलाया है । सो यह आपका कथन कैसे सिद्ध होता है? उत्तर – केवल व्रत ही त्यागने योग्य नहीं हैं किन्तु पापबन्ध के कारण हिंसा आदि अव्रत भी त्याज्य हैं । सो ही श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है- अव्रतों से पाप का बन्ध और व्रतों से पुण्य का बन्ध होता है, पाप तथा पुण्य इन दोनों का नाश होना मोक्ष है, इस कारण मोक्षार्थी पुरुष जैसे अव्रतों का त्याग करता है, वैसे ही अहिंसादि व्रतों का भी त्याग करे ॥१॥ परन्तु मोक्षार्थी पुरुष पहले अव्रतों का त्याग करके पश्चात् व्रतों को धारण करके निर्विकल्पसमाधि (ध्यान) रूप आत्मा के परम पद को प्राप्त होकर तदनन्तर एकदेश व्रतों का भी त्याग कर देता है । यह भी श्री पूज्यपादस्वामी ने समाधिशतक में कहा है मोक्ष चाहने वाला पुरुष अव्रतों का त्याग करके व्रतों में स्थित होकर परमात्मपद प्राप्त करे और परमपद पाकर उन व्रतों का भी त्याग करे ॥१॥ विशेष यह है कि जो व्यवहाररूप से प्रसिद्ध एकदेशव्रत हैं, ध्यान में उनका त्याग किया है; किन्तु समस्त त्रिगुप्तिरूप स्व-शुद्ध-आत्म-अनुभवरूप निर्विकल्प ध्यान में समस्त शुभ-अशुभ की निवृत्ति रूप निश्चयव्रत ग्रहण किये हैं, उनका त्याग नहीं किया है । प्रश्न – प्रसिद्ध अहिंसादि महाव्रत एकदेश रूप व्रत कैसे हो गये? उत्तर – अहिंसा महाव्रत में यद्यपि जीवों के घात से निवृत्ति है; तथापि जीवों की रक्षा करने में प्रवृत्ति है । इसी प्रकार सत्य महाव्रत में यद्यपि असत्य वचन का त्याग है, तो भी सत्य वचन में प्रवृत्ति है । अचौर्यमहाव्रत में यद्यपि बिना दिये हुए पदार्थ के ग्रहण का त्याग है, तो भी दिये हुए पदार्थों (पिच्छिका, कमण्डलु, शास्त्र) के ग्रहण करने में प्रवृत्ति है, इत्यादि एकदेश प्रवृत्ति की अपेक्षा से ये पाँचों महाव्रत देशव्रत हैं । इन एकदेश रूप व्रतों का, त्रिगुप्ति स्वरूप निर्विकल्प समाधि-काल में त्याग है । किन्तु समस्त शुभ-अशुभ की निवृत्तिरूप निश्चयव्रत का त्याग नहीं है । प्रश्न – त्याग शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर – जैसे हिंसा आदि पाँच अव्रतों की निवृत्ति है, उसी प्रकार अहिंसा आदि पंच महाव्रतरूप एकदेश व्रतों की भी निवृत्ति है, यहाँ त्याग शब्द का यह अर्थ है । शंका – इन एकदेश व्रतों का त्याग किस कारण होता है? उत्तर – त्रिगुप्तिरूप अवस्था में प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप विकल्प का स्वयं स्थान नहीं है । (ध्यान में कोई विकल्प नहीं होता । अहिंसादिक महाव्रत विकल्परूप हैं अतः वे ध्यान में नहीं रह सकते) । अथवा वास्तव में वह निर्विकल्प ध्यान ही निश्चयव्रत है क्योंकि उसमें पूर्ण निवृत्ति है । दीक्षा के बाद दो घड़ी (४८ मिनट) काल में ही भरतचक्रवर्ती ने जो मोक्ष प्राप्त किया है, उन्होंने भी जिन-दीक्षा ग्रहण करके, थोड़े काल तक विषय-कषाय की निवृत्तिरूप व्रत का परिणाम करके, तदनन्तर शुद्धोपयोगरूप रत्नत्रयमयी निश्चयव्रत नामक वीतराग सामायिक संज्ञा वाले निर्विकल्पध्यान में स्थित होकर केवलज्ञान प्राप्त किया है । परन्तु व्रत परिणाम के स्तोक काल के कारण लोग श्री भरतजी के व्रत-परिणाम को नहीं जानते । अब उन ही भरतजी के दीक्षाविधान का कथन करते हैं । श्री वर्द्धमान तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में श्रेणिक महाराज ने प्रश्न किया कि हे भगवन्! भरतचक्रवर्ती को जिनदीक्षा लेने के पीछे कितने समय में केवलज्ञान हुआ? श्री गौतम गणधर ने उत्तर दिया - हे श्रेणिक! पंच-मुष्ठियों से बालों को उखाड़कर (केशलौंच करके) कर्मबन्ध की स्थिति तोड़ते हुए, केशलौंच के अनन्तर ही भरतचक्रवर्ती ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ॥१॥ शिष्य का प्रश्न – इस पंचमकाल में ध्यान नहीं है क्योंकि इस काल में उत्तम संहनन (वज्रवृषभनाराच संहनन) का अभाव है तथा दश एवं चौदहपूर्व श्रुतज्ञान भी नहीं पाया जाता? उत्तर – इस समय शुक्लध्यान नहीं है परन्तु धर्मध्यान है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने मोक्षप्राभृत में कहा है- भरतक्षेत्र विषम दुःषमा नामक पंचमकाल में ज्ञानी जीव के धर्मध्यान होता है । यह धर्मध्यान आत्म-स्वभाव में स्थित के होता है । जो यह नहीं मानता, वह अज्ञानी है ॥१॥ इस समय भी जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय से शुद्ध जीव आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद अथवा लौकान्तिकदेव पद को प्राप्त होते हैं और वहाँ से चयकर नरदेह ग्रहण करके मोक्ष को जाते हैं ॥२॥ ऐसा ही तत्त्वानुशासन ग्रन्थ में भी कहा है- इस समय (पंचमकाल) में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं; किन्तु श्रेणी से पूर्व में होने वाले धर्मध्यान का अस्तित्व बतलाया है ॥१॥ तथा - जो यह कहा है कि- "इस काल में उत्तम संहनन का अभाव है इस कारण ध्यान नहीं होता" सो यह उत्सर्ग वचन है अपवादरूप व्याख्यान से तो उपशमश्रेणी तथा क्षपक श्रेणी में शुक्लध्यान होता है और वह उत्तम संहनन से ही होता है; किन्तु अपूर्वकरण (८ वें) गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में जो धर्मध्यान होता है, वह धर्मध्यान पहले तीन उत्तम संहननों के अभाव होने पर भी अन्तिम के (अर्द्धनाराच, कीलक और सृपाटिका) तीन संहननों से भी होता है । यह भी उसी तत्त्वानुशासन ग्रन्थ में कहा है -- वज्रकाय (संहनन) वाले के ध्यान होता है, ऐसा आगम-वचन उपशम तथा क्षपक श्रेणी के ध्यान की अपेक्षा कहा है । यह वचन नीचे के गुणस्थानों में धर्मध्यान का निषेधक नहीं है । जो ऐसा कहा है कि "दश तथा चौदहपूर्व तक के श्रुतज्ञान से ध्यान होता है" वह भी उत्सर्गवचन है । अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रतिपादन करने वाले सारभूत श्रुतज्ञान से भी ध्यान और केवलज्ञान होता है । यदि ऐसा अपवाद व्याख्यान न हो, तो तुष-माष का उच्चारण करते हुए श्री शिवभूति मुनि केवलज्ञानी हो गये इत्यादि गन्धर्वाराधनादि ग्रन्थों में कहा हुआ कथन कैसे सिद्ध होवे । शंका – श्री शिवभूति मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों को प्रतिपादन करने वाले द्रव्य श्रुत को जानते थे और भावश्रुत उनके पूर्णरूप से था । उत्तर – ऐसा नहीं है, क्योंकि यदि शिवभूति मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों का कथन करने वाले द्रव्यश्रुत को जानते थे तो उन्होंने "मा तूसह मा रूसह" अर्थात् "किसी में राग और द्वेष मत कर" इस एक पद को क्यों नहीं जाना । इसी कारण से जाना जाता है कि पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप आठ प्रवचनमातृका प्रमाण ही उनके भावश्रुत था और द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं था । यह व्याख्यान मैंने ही कल्पित नहीं किया है, किन्तु चारित्रसार आदि शास्त्रों में भी यह वर्णन हुआ है, तथाहि- अन्तर्मुहूर्त में जो केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं वे क्षीणकषाय गुणस्थान में रहने वाले 'निर्ग्रन्थ' नामक ऋषि कहलाते हैं और उनके उत्कृष्टता से ग्यारह अंग, चौदह पूर्व पर्यन्त श्रुतज्ञान होता है, जघन्य से पाँच समिति तीन गुप्ति मात्र ही श्रुतज्ञान होता है ।१। शंका – मोक्ष के लिए ध्यान किया जाता है और इस पंचम काल में मोक्ष होता नहीं, अतः ध्यान करने से क्या प्रयोजन? समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि इस पंचमकाल में भी परम्परा से मोक्ष है । प्रश्न – परम्परा से मोक्ष कैसे है? उत्तर – (ध्यानी पुरुष) निजशुद्ध-आत्म-भावना के बल से संसार-स्थिति को अल्प करके स्वर्ग में जाते हैं । वहाँ से आकर मनुष्य भव में रत्नत्रय की भावना को प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्ष जाते हैं । जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचन्द्र, पाण्डव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम) आदि मोक्ष गये हैं, वे भी पूर्वभव में भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से संसार-स्थिति को स्तोक करके फिर मोक्ष गये । उसी भव में सबको मोक्ष हो जाता है, ऐसा नियम नहीं । उपर्युक्त कथनानुसार अल्पश्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है । यह जानकर क्या करना चाहिए? द्वेष से किसी को मारने, बाँधने व अंग काटने आदि का और राग से परस्त्री आदि का जो चिन्तन करना है, निर्मल बुद्धि के धारक आचार्य जिनमत में उसको अपध्यान कहते हैं ॥१॥ हे जीव! संकल्परूपी कल्पवृक्ष का आश्रय करने से तेरा चंचल चित्त इस मनोरथरूपी सागर में डूब जाता है, वैसे उन संकल्पों में जीव का वास्तव में कुछ प्रयोजन नहीं सधता, प्रत्युत कलुषता से समागम करने वालों का अर्थात् कलुषित चित्त वालों का अकल्याण होता है ॥२॥ जिस प्रकार दुर्भाग्य से दुःखित मन वाले तेरे अन्तरंग में भोग भोगने की इच्छा से व्यर्थ तरंगें उठती रहती हैं । उसी प्रकार यदि वह मन परमात्मरूप स्थान में स्फुरायमान हो तो तेरा जन्म कैसे निष्फल हो सकता है? अर्थात् तेरा जन्म सफल हो जावे ॥३॥ आकांक्षा से कलुषित हुआ और काम भोगों में मूर्च्छित, यह जीव भोगों को नहीं भोगता हुआ भी भावों से कर्मों को बाँधता है ॥४॥ इत्यादि रूप दुर्ध्यान को छोड़कर निर्ममत्व में स्थित होकर अन्य पदार्थों में ममत्व बुद्धि का त्याग करता हूँ, मेरे आत्मा का ही आलम्बन है, अन्य सबको मैं त्यागता हूँ ॥१॥ मेरा आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही संवर है और आत्मा ही योग है ॥२॥ ज्ञान-दर्शन का धारक अविनाशी एक मेरा आत्मा है और शेष सब संयोग लक्षण वाले बाह्य भाव हैं ॥३॥ इत्यादि सारभूत पदों को ग्रहण करके ध्यान करना चाहिए । अब मोक्ष के विषय में फिर भी नय विचार कहते हैं - मोक्ष बन्धपूर्वक है । सो ही कहा है - यदि जीव मुक्त है तो पहले इस जीव के बन्ध अवश्य होना चाहिए क्योंकि यदि बन्ध न हो तो मोक्ष (छूटना) कैसे हो सकता है । इसलिए अबन्ध (न बँधे हुए) की मुक्ति नहीं हुआ करती, उसके तो मुंच धातु (छूटने की वाचक) का प्रयोग ही व्यर्थ है (कोई मनुष्य पहले बँधा हुआ हो, फिर छूटे, तब वह मुक्त कहलाता है । ऐसे ही जो जीव पहले कर्मों से बँधा हो उसी को मोक्ष होता है) । शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से बन्ध है ही नहीं । इस प्रकार शुद्ध-निश्चयनय से बन्धपूर्वक मोक्ष भी नहीं है । यदि शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा बन्ध होवे तो सदा ही बन्ध होता रहे, मोक्ष ही न हो । जैसे जंजीर से बँधे हुए पुरुष के, बन्ध नाश के कारणभूत जो भावमोक्ष है उसकी जगह जो जंजीर के बन्धन को छेदने का कारणभूत उद्यम है, वह पुरुष का स्वरूप नहीं है और इसी प्रकार द्रव्यमोक्ष के स्थान में जो जंजीर और पुरुष इन दोनों का अलग होना है, वह भी पुरुष का स्वरूप नहीं है किन्तु उन उद्यम और जंजीर के छुटकारे से जुदा जो देखा हुआ हस्तपाद आदि रूप आकार है, वही पुरुष का स्वरूप है । उसी प्रकार शुद्धोपयोगरूप जो भाव मोक्ष का स्वरूप है, वह शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव का स्वरूप नहीं है और उसी तरह उस भावमोक्ष से साध्य जो जीव और कर्म के प्रदेशों के पृथक् होने रूप द्रव्य मोक्ष का स्वरूप है, वह भी जीव का स्वभाव नहीं है किन्तु उन भाव व द्रव्यमोक्ष से भिन्न तथा उनका फलभूत जो अनन्त ज्ञान आदि गुण-रूप स्वभाव है, वही शुद्ध जीव का स्वरूप है । यहाँ तात्पर्य यह है कि, जैसे विवक्षित-एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से पहले मोक्षमार्ग का व्याख्यान है; उसी प्रकार पर्यायमोक्ष रूप जो मोक्ष है, वह भी एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से है; किन्तु शुद्ध-निश्चयनय से नहीं है । जो शुद्ध-द्रव्य की शक्ति रूप शुद्ध-पारिणामिक परमभाव रूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहले ही विद्यमान है, वह परमनिश्चय मोक्ष जीव में अब होगा, ऐसा नहीं है । राग आदि विकल्पों से रहित मोक्ष का कारणभूत ध्यान-भावना-पर्याय में, वही परम निश्चय मोक्ष ध्येय होता है, वह निश्चय मोक्ष ध्यान-भावना-पर्यायरूप नहीं है । यदि एकान्त से द्रव्यार्थिक नय से भी उसी (परमनिश्चय मोक्ष) को मोक्ष का कारणभूत ध्यान-भावना-पर्याय कहा जावे, तो द्रव्य और पर्याय रूप दो धर्मों के आधारभूत जीव-धर्मी का, मोक्षपर्याय प्रकट होने पर, जैसे ध्यान-भावना-पर्यायरूप से विनाश होता है, उसी प्रकार शुद्ध-पारिणामिक-भाव स्वरूप द्रव्य रूप से भी ध्येयभूत जीव का विनाश प्राप्त होगा; किन्तु द्रव्य रूप से जीव का विनाश नहीं है । इस कारण, "शुद्ध-पारिणामिक भाव से जीव के बन्ध और मोक्ष नहीं है" यह कथन सिद्ध हो गया । अब आत्मा शब्द का अर्थ कहते हैं । 'अत' धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थ में है और सब गमनार्थक धातु ज्ञानार्थक होती हैं । इस वचन से यहाँ पर 'गमन' शब्द से ज्ञान कहा जाता है । इस कारण जो यथासम्भव ज्ञान सुख आदि गुणों में सर्व प्रकार वर्त्तता है, वह आत्मा है । अथवा शुभअशुभ मन-वचन-काय की क्रिया के द्वारा यथासम्भव तीव्र-मन्द आदि रूप से जो पूर्णरूपेण वर्तता है, वह आत्मा है । अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मों के द्वारा जो पूर्णरूप से वर्तता है, वह आत्मा है । शंका – जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जल के भरे हुए घटों में देखा जाता है, इसी प्रकार एक ही जीव अनेक शरीरों में रहता है? उत्तर – यह कथन घटित नहीं होता । प्रश्न – क्यों नहीं घटित होता? उत्तर – चन्द्रकिरणरूप उपाधि-वश से घटों में स्थित जलरूपी, पुद्गल ही नाना-चन्द्र-आकार रूप परिणत हुआ है, एक चन्द्रमा अनेक रूप नहीं परिणमा है । दृष्टान्त कहते हैं- जैसे देवदत्त के मुख रूप उपाधि के वश से अनेक दर्पणों में स्थित पुद्गल ही अनेक मुख रूप परिणमते हैं, एक देवदत्त का मुख अनेक रूप नहीं परिणमता । यदि कहो कि देवदत्त का मुख ही अनेक मुख रूप परिणमता है, तो दर्पणस्थित देवदत्त के मुख के प्रतिबिम्ब भी, देवदत्त के मुख की तरह, चेतन (सजीव) हो जायेंगे, परन्तु ऐसा नहीं है (दर्पणों में मुख-प्रतिबिम्ब चेतन नहीं हैं) यदि अनेक शरीरों में एक ही जीव हो तो, एक जीव को सुख-दुःख-जीवन-मरण आदि प्राप्त होने पर, उसी क्षण सब जीवों को सुख-दुःखजीवन-मरण आदि प्राप्त होने चाहिए; किन्तु ऐसा देखने में नहीं आता । अथवा जो ऐसा कहते हैं कि, "जैसे एक ही समुद्र कहीं तो खारे जल वाला है, कहीं मीठे जल वाला है, उसी, प्रकार एक ही जीव सब देहों में विद्यमान है" सो यह कहना भी घटित नहीं होता । प्रश्न – क्यों नहीं घटित होता । उत्तर – समुद्र में जलराशि की अपेक्षा से एकता है, जलपुद्गलों (कणों) की अपेक्षा से एकता नहीं है । यदि जलपुद्गलों की अपेक्षा से एकता होती (एक अखण्ड द्रव्य होता) तो समुद्र में से थोड़ा जल ग्रहण करने पर शेष जल भी उसके साथ ही क्यों न आ जाता । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि -- सोलह-वानी के सुवर्ण की राशि के समान अनन्तज्ञान आदि लक्षण की अपेक्षा जीवराशि में एकता है और एक जीव की (समस्त जीवराशि में एक ही जीव है, इस) अपेक्षा से जीवराशि में एकता नहीं है । अब 'अध्यात्म' शब्द का अर्थ कहते हैं । मिथ्यात्व-राग आदि समस्त विकल्प, समूह के त्याग द्वारा निज-शुद्ध-आत्मा में जो अनुष्ठान (प्रवृत्ति का करना) उसको 'अध्यात्म' कहते हैं । इस प्रकार ध्यान की सामग्री के व्याख्यान के उपसंहार रूप से यह गाथा समाप्त हुई ॥५७॥ अब ग्रन्थकार अपने अभिमान के परिहार के लिए छन्द कहते हैं -- |
आर्यिका ज्ञानमती :
तपश्चरण, शास्त्र ज्ञान और व्रत इन तीनों के बिना ध्यान की सिद्धि असम्भव है अत: इन तीनो में तत्पर हो जाना चाहिए। प्रश्न – ध्याता कैसा होना चाहिए? उत्तर – बारह तप, पाँच महाव्रतों का पालन करने वाला एवं शास्त्रों का मनन करने वाला तपवान, श्रुतवान और व्रतवान आत्मा ही योग्य ध्याता हो सकता है। प्रश्न – क्यों? उत्तर – क्योंकि वही ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने में समर्थ होता है। प्रश्न – ध्यानी आत्मा का वाहन क्या होता है? उत्तर – ध्यानरूपी 'रथ' ध्यानी का वाहन कहलाता है। प्रश्न – ध्यानरूपी रथ में यात्रा करने वाला किस नगर में प्रवेश करता है? उत्तर – ध्यानरूपी रथ में बैठकर यात्रा करने वाला महापुरुष 'मोक्षनगर' में प्रवेश करता है। प्रश्न – ध्यान की सिद्धि के लिए आवश्यक सामग्री क्या है? उत्तर – ध्यान की सिद्धि के लिए-तप, श्रुत और व्रतों का परिपालन करना आवश्यक है। अत: यही उसकी आवश्यक सामग्री है। |