प्रभाचन्द्र : संस्कृत
एवंविधविभ्रामाच्च किं भवतीत्याह -- तस्माद्विभ्रमाद्वहिरात्मनि संस्कारो वासना द्रढोऽविचलो जायते। किन्नामा? अविद्यासंज्ञितः अविद्या संज्ञाऽस्य संजातेति “तारकादिभ्य इतच्” येन संस्कारेण कृत्वालोकोऽविवेकिजनः। अंगमेव च शरीरमेव। स्वं आत्मानं। पुनरपि जन्मान्तरेऽपि। अभिमन्यते ॥१२॥ उस विभ्रम से बहिरात्मा में संस्कार अर्थात् वासना दृढ - अविचल होती है । किस नाम का (संस्कार)? अविद्या नाम का (संस्कार), जिसकी अविद्या संज्ञा है वह; जिस संस्कार के कारण अविवेकी (अज्ञानी) जन, अंग को ही अर्थात् शरीर को ही फिर से भी अर्थात् अन्य जन्म में भी अपना आत्मा मानता है ॥१२॥ इस प्रकार मानकर वह क्या करता है ? यह कहते हैं -- |