प्रभाचन्द्र :
जो, अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप है, वह अग्राह्य को, अर्थात् कर्मोदय के निमित्त से होते हुए क्रोधादिरूप को ग्रहण नहीं करता, अर्थात् उनको आत्म-स्वरूपपने स्वीकार नहीं करता और ग्रहण किये हुए अनन्त ज्ञानादि स्वरूप को छोड़ता ही नहीं, अर्थात् कभी भी उनका परित्याग नहीं करता - ऐसे स्वरूपवाला शुद्धात्म-स्वरूप क्या करता है ? जानता है । क्या जानता है ? समस्त चेतन व अचेतन वस्तुओं को (जानता है) । किस प्रकार जानता है ? वह सर्वथा, अर्थात् द्रव्य-पर्यायादि को सर्व प्रकार से (जानता है) । इससे ऐसा स्व-संवेद्यस्वरूप, अर्थात् स्व-संवेदन से ग्राह्य-स्वरूप, वह मैं (आत्मा) हूँ ॥२०॥ ऐसे आत्मपरिज्ञान से पूर्व मेरी चेष्टा कैसी थी ? वह कहते हैं :- |