+ अज्ञानी का भय भी विपरीत -
मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम्
यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मन: ॥29॥
मोही की आशा जहाँ, नहीं वैसा भय-स्थान ।
जिसमें डर उस सम नहीं, निर्भय आत्म-स्थान ॥२९॥
अन्वयार्थ : [मूढात्मा] अज्ञानी बहिरात्मा [यत्र] जिन (शरीर-पुत्र-मित्रादि) पदार्थों में [विश्वस्त:] ('ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ ' - ऐसा) विश्वास करता है, [ततः] उन (शरीर-स्त्री -पुत्रादि बाह्य-पदार्थों) से, [अन्यत्] अन्य कोई [भयास्पदं न] भय का स्थान नहीं है और [यत:] जिस (परमात्म-स्वरूप के अनुभव) से [भीत:] डरा रहता है, [ततः अन्यत्] उसके सिवाय कोई दूसरा [आत्मनः] आत्मा के लिए [अभयस्थानं न] निर्भयता का स्थान नहीं है ।
Meaning : Nothing should be feared more than what the fool trusts the most. And nothing is safer than what is most greatly feared by the fool.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

मूढात्मा, अर्थात् बहिरात्मा, जहाँ अर्थात् शरीर पुत्र-स्त्री आदि में विश्वास करता है - अवंचक अभिप्राय से (वे मुझे ठगेंगे नहीं - ऐसे अभिप्राय से) विश्वास पाता है - 'वे मेरे हैं और मैं उनका हूँ' - ऐसी अभेदबुद्धि करता है - ऐसा अर्थ है । उनसे दूसरा कोई भय का स्थान नहीं है । उनसे अर्थात् शरीरादि से दूसरा भय का स्थान, अर्थात् संसार दु:ख के त्रास का स्थान नहीं है । जिससे भय पाता है - जिससे अर्थात् परमात्मस्वरूप के संवेदन से भय पाता है - त्रास पाता है; उससे दूसरा कोई अभयस्थान नहीं है - उससे, अर्थात् स्व-संवेदन से दूसरा, अभय का - संसारदुख के त्रास के अभाव का स्थान नहीं है । उससे दूसरा (अन्य) सुख का स्थान नहीं है - ऐसा अर्थ है ॥२१॥

उस आत्मस्वरूप की प्राप्ति का उपाय कैसा है ? - वह कहते हैं :-