सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुन:
तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ॥28॥
'मैं ही वह परमात्म हूँ', हों जब दृढ़ संस्कार ।
इन दृढ़ भावों से बने, निश्चय उस आकार ॥२८॥
अन्वयार्थ : [तस्मिन्] उस परमात्मपद में [भावनया] भावना करते रहने से [सः अहं] वह अनन्त ज्ञान-स्वरूप परमात्मा मैं हूँ [इति] इस प्रकार के [आत्तसंस्कार] संस्कार को प्राप्त हुआ ज्ञानी पुरुष [पुन:] फिर-फिर उस परमात्मपद में आत्म-स्वरूप की भावना करता हुआ [तत्रैव] उसी परमात्म-स्वरूप में [दृढ्संस्कारात्] संस्कार की दृढता हो जाने से [हि] निश्चय से [आत्मनि] अपने शुद्ध चैतन्य-स्वरूप में [स्थिति लभते] स्थिरता को प्राप्त होता है ।
Meaning : Because of concentrating fully on the paramAtmA (supreme self), you acquire a transformative thought, that you too are a paramAtmA (supreme self).

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

'जो अनन्त ज्ञानादिस्वरूप प्रसिद्ध परमात्मा है, वह मैं हूँ' -- ऐसा संस्कार पाकर, अर्थात् ऐसा संस्कार / वासना ग्रहणकर के । किसके द्वारा ? किसमें ? उसकी भावना द्वारा, अर्थात् परमात्मा की भावना द्वारा - 'वह मैं हूँ' - ऐसे अभेद अभ्यास द्वारा, उसकी बारम्बार भावना से, उसके ही, अर्थात् परमात्मा के ही-दृढ़ संस्कार के कारण, अविचल भावना के कारण - ध्याता वास्तव में आत्मा में स्थिति पाता है - प्राप्त करता है, अर्थात् आत्मा में अचलता व अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयरूपता प्राप्त करता है ॥२८॥

आत्मभावना के विषय में कष्ट-परम्परा के सद्भाव के कारण, भय की उत्पत्ति की सम्भावना रहती है, तो उसमें किसी की किस प्रकार प्रवृत्ति हो - ऐसी आशङ्का का निराकरण करते हुए कहते हैं --