य: परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्तत: अहमेव मयोपास्यो नान्य:कश्चिदिति स्थिति: ॥31॥
मैं ही वह परामात्म हूँ, हूँ निज अनुभव-गम्य । मैं उपास्य अपना स्वयं, निश्चय है नहीं अन्य ॥३१॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [परात्मा] परमात्मा है, [स एव] वह ही [अहं] मैं हूँ तथा [यः] जो स्वानुभवगम्य [अहं] मैं हूँ [सः] वही [परम:] परमात्मा है, [ततः] इसलिए, जबकि परमात्मा और आत्मा में अभेद है, [अहं एव] मैं ही [मया] मेरे द्वारा [उपास्य] उपासना किये जाने के योग्य हूँ [कक्षित् अन्य: न], दूसरा कोई मेरा उपास्य नहीं [इति स्थिति:] - ऐसी वस्तु-स्थिति है ।
Meaning : Whatever is the supreme soul, that is me. Whatever I am, is the supreme soul. Therefore, I can only contemplate upon my soul and not on anything else. This is the reality.
प्रभाचन्द्र वर्णी
प्रभाचन्द्र :
जो प्रसिद्ध पर अर्थात् उत्कृष्ट आत्मा है, वह ही मैं हूँ । जो मैं, अर्थात् जो स्व-संवेदन से प्रसिद्ध मैं अन्तरात्मा - वह परम, अर्थात् परमात्मा है । मेरे साथ परमात्मा का अभेद है; इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना करने योग्य - आराधना योग्य हूँ; अन्य कोई मेरे द्वारा उपासने योग्य नहीं है - ऐसी स्थिति है, अर्थात् ऐसा स्वरूप ही है । ऐसी आराध्य- आराधक की व्यवस्था है ॥३१॥