प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मयैव मयि स्थितम्
बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिर्वृतम् ॥32॥
निज में स्थित निज आत्मकर, करमन विषयातीत ।
पाता निजबल आत्म वह, परमानन्द पुनीत ॥३२॥
अन्वयार्थ : [मां] मुझे (मुझ आत्मा को) [विषयेभ्य] पंन्द्रियों के विषयों से [प्रच्याव्य] हटाकर, [मयैव] मेरे द्वारा ही (अपने ही आत्मा द्वारा) [अहं] मैं [मयि स्थितं] मुझमें स्थित [परमानन्दनिर्वृत्तम्] परमानन्द से परिपूर्ण [बोधात्मानम्] ज्ञानस्वरूप आत्मा को [प्रपन्नोऽस्मि] को प्राप्त हुआ हूँ ।
Meaning : I withdrawing myself from the objects of sensual desire, stabilise myself in my inner self and attain my transcendental self which flows with the supreme bliss of true knowledge.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

मैं मुझको (अर्थात् मेरे आत्मा को) प्राप्त हुआ हूँ । क्या करके ? (मेरे आत्मा को) छुडाकर-वापस हटाकर । किससे ? विषयों से । किस द्वारा करके ? मेरे ही द्वारा अर्थात् करण (साधन) रूप आत्म-स्वरूप द्वारा ही । कहाँ रहे हुए ऐसे मुझे मैं प्राप्त हुआ हूँ ? मेरे में रहे हुए को अर्थात् आत्म-स्वरूप में ही रहे हुए को । कैसे मुझे ? बोधात्मा को अर्थात् ज्ञान-स्वरूप को । फिर कैसे मुझे ? परम आनन्द से निर्वृत्त (रचित) को । परम आनन्द अर्थात् सुख, उससे निर्वृत्त (रचित) सुख हुए को (ऐसे मुझे अर्थात् आत्मा को प्राप्त हुआ हूँ); अथवा मैं परम आनन्द से निर्वृत्त (परिपूर्ण) हूँ ॥३२॥

इस प्रकार, जो आत्मा को शरीरादि से भिन्न नहीं जानता, उसके प्रति कहते हैं : -