+ भेद-विज्ञान रहित के घोर तपस्या भी व्यर्थ -
यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्
लभते स न निर्वाणं तप्त्वाऽपि परमं तप: ॥33॥
तन से भिन्न-गिने नहीं, अव्ययरूप निजात्म ।
करे उग्र तप मोक्ष नहीं, जब तक लखे न आत्म ॥३३॥
अन्वयार्थ : [एवं] उक्त प्रकार से [यः] जो [अव्यय] अविनाशी [आत्मानं] आत्मा को [देहात्] शरीर से [परं न वेति] भिन्न नहीं जानता है, [सः] वह [परमं तप: तध्वापि] घोर तपश्चरण करके भी [निर्वाण] मोक्ष को [न लभते] प्राप्त नहीं करता है ।
Meaning : He who does not understand the soul as being different from the body, as explained above, cannot attain liberation despite carrying out the most intense ascetic practices.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

जो प्राप्त हुए देह से आत्मा को, इस प्रकार (उक्त प्रकार) से भिन्न नहीं जानता; कैसे आत्मा को ? अव्यय अर्थात् जिसने अनन्त चतुष्टयस्वरूप का त्याग नहीं किया, वैसे (आत्मा को); वह प्राप्त हुए देह से निर्वाण नहीं पाता । क्या करके ? तपने पर भी, क्या तपकर भी ? परमतप को ॥३३॥

परम तप करनेवालों को महादुःख की उत्पत्ति होने से तथा मन में खेद होने से निर्वाण की प्राप्ति कैसे सम्भव है? - ऐसी शङ्का करनेवाले के प्रति कहते हैं :-