+ भेद-विज्ञान के बिना विक्षिप्त चित्त में राग-द्वेष -
अविद्याभ्याससंस्कारै - रवशं क्षिप्यते मन:
तदेवज्ञानसंस्कारै: स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥37॥
हों संस्कार अज्ञानमय, निश्चय हो मन भ्रान्त ।
ज्ञान संस्कृत मन करे, स्वयं तत्त्व विश्रान्ति ॥३७॥
अन्वयार्थ : [अविद्याभ्याससंस्कारै] शरीरादिक को शुचि, स्थिर और आत्मीय माननेरूप जो अविद्या / अज्ञान है, उसके पुन: पुन: प्रवृत्तिरूप अभ्यास से उत्पन्न हुए संस्कारों द्वारा [मन:] मन [अवश] स्वाधीन न रहकर, [क्षिप्यते] विक्षिप्त हो जाता है, रागी-द्वेषी बन जाता है और [तदेव] वही मन [ज्ञानसंस्कारै] आत्म-देह के भेद -विज्ञानरूप संस्कारों द्वारा [स्वत:] स्वयं ही [तत्त्वे] आत्म-स्वरूप में [अवतिष्ठते] स्थिर हो जाता है ।
Meaning : The mind that has imbibed delusion and nescience is tossed about helplessly. The mind which has imbibed true knowledge is steadfastly immersed in its true self.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

शरीरादि को पवित्र, स्थिर और आत्मीय (अपना) आदि माननेरूप जो अविद्या (अज्ञान), उसका अभ्यास, अर्थात् उसकी बारम्बार प्रवृत्ति से उत्पन्न हुए संस्कारों, अर्थात् वासनाओं - उन द्वारा करके अवश अर्थात् विषयों और इन्द्रियों (अनात्मा) के आधीन, वह मन विक्षेप पाता है विक्षिप्त होता है । वही मन, ज्ञान संस्कारों द्वारा, अर्थात् आत्मा को शरीरादि से भले जाननेरूप अभ्यास द्वारा, स्वत:, अर्थात् स्वयं ही तत्त्व में आत्म-स्वरूप में स्थिर होता है ॥३७॥

मन के विक्षेप का और अविक्षेप का फल बतलाकर कहते हैं --