+ विक्षिप्त चित्त को ही मान-अपमान -
अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतस:
नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतस: ॥38॥
चंचल-मन गिनता सदा, मान और अपमान ।
निश्चल-मन देता नहीं, तिरस्कार पर ध्यान ॥३८॥
अन्वयार्थ : [यस्य चेतस] जिसके चित्त का [विक्षेप:] रागादिरूप परिणमन होता है, [तस्य] उसी के [अपमानादय] अपमानादिक होते हैं; [यस्यचेतस:] जिसके चित्त का [क्षेप: न] राग-द्वेषादिरूप परिणमन नहीं होता, [तस्य] उसके [अपमानादय न] अपमान-तिरस्कारादि नहीं होते हैं ।
Meaning : The disturbed mind is susceptible to insult and flattery. The calm collected mind is inured to the behaviour of others.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

जिसका मन, विक्षेप पाता है (रागादिरूप परिणमता है) उसको अपमानादि, अर्थात् अपमान / अपने महत्त्व का खण्डन - अवज्ञा; मद, ईर्ष्या, मात्सर्य आदि होते हैं परन्तु जिसके मन में विक्षेप नहीं होता, उसको अपमानादि नहीं होते ॥३८॥

अपमानादि को दूर करने का उपाय --