मोह-दृष्टि से जब जगे, मुनि को राग रु द्वेष । स्वस्थ-भावना आत्म से, मिटे क्षणिक उद्वेग ॥३९॥
अन्वयार्थ : [यदा] जिस समय [तपस्विन] किसी तपस्वी अन्तरात्मा के [मोहात्] मोहनीय कर्म के उदय से [राग-द्वेषौ] राग और द्वेष [प्रजायेते] उत्पन्न हो जावें, [तदा एव] उसी समय वह तपस्वी [स्वस्थ आत्मानं] अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की [भावयेत्] भावना करे । इससे वे राग-द्वेषादिक [क्षणात्] क्षणभर में [शाम्यत] शान्त हो जाते हैं ।
Meaning : Whenever the feelings of attachment and aversion rise in the mind of the ascetic because of latent delusion, he should immediately compose himself by immersing himself in his soul.
प्रभाचन्द्र वर्णी
प्रभाचन्द्र :
मोह से, अर्थात् मोहनीयकर्म के उदय के निमित्त से जब पैदा (उत्पन्न) हों; कौन (दो)? राग और द्वेष । किसको (उत्पन्न हो)? तपस्वी को । तब ही, अर्थात् राग-द्वेष के उदय काल में ही स्वस्थ आत्मा की (बाह्यविषयों से व्यावृत्त होकर / वापस हटकर) स्वरूप में स्थिर होते हुए आत्मा की भावना करनी । वैसा करने से राग-द्वेष क्षण में (शीघ्र ही) उपशमते हैं - शान्त हो जाते है ॥३९॥
अब, राग-द्वेष के विषय को तथा विपक्ष को दर्शाते हुए कहते हैं --