+ अन्तरात्मा में समूल परिवर्तन -
सुखमारब्धयोगस्य बहिर्दु:खमथात्मनि
बहिरेवाऽसुखं सौख्यमध्यात्मं भावितात्मन: ॥52॥
बाहर सुख भासे प्रथम, दुःख भासे निज माँहि ।
बाहर दुःख निजमाँहि सुख, भासे अनुभव माँहि ॥५२॥
अन्वयार्थ : [आरब्धयोगस्य] योग का अभ्यास शुरू करनेवाले को [बहि:] बाह्य विषयों में [सुखं] सुख मालूम होता है [अथ] और [आत्मनि] आत्मस्वरूप की भावना में [दुःखं] दुःख प्रतीत होता है किन्तु [भावितात्मन:] यथावत् आत्म-स्वरूप को जानकर, उसकी भावना के अच्छे अभ्यासी को [बहि: एव] बाह्य विषयों में ही [असुखं] दुःख जान पडता है और [अध्यात्म] अपने आत्म-स्वरूप में ही [सौख्यम्] सुख का अनुभव होता है ।
Meaning : Newcomers to the path of meditation are conditioned to feel happiness in the objects of the senses and find spiritual contemplation to be a chore. But accomplished yogIs who realise that there is no pleasure in external objects find the external world to be bereft of happiness and spiritual contemplation to be full of joy.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

बाहर अर्थात् बाह्य विषयों में सुख लगता है । किसको ? योग का आरम्भ करनेवाले को, अर्थात् प्रथम बार आत्मस्वरूप की भावना के अभ्यासी को । और कहते हैं - आत्मा में, अर्थात् आत्म-स्वरूप में (उसकी भावना में) दुःख (कठिनता) लगता है, परन्तु भावितात्म को, अर्थात् यथावत् जाने हुए आत्म-स्वरूप के (उसकी भावना के) अभ्यासी को, बाह्य में ही, अर्थात् बाह्य-विषयों में ही असुख (दुःख) भासित होता है । और कहते हैं - आत्मा में, अर्थात् उसके अध्यात्म-स्वरूप में ही (उसकी भावना में ही) सुख लगता है ॥५२॥

वह भावना इस प्रकार करना चाहिए यह कहते हैं : -