
प्रभाचन्द्र :
उस आत्मस्वरूप का कथन करना, अर्थात् अन्य को समझाना; दूसरों ने, अर्थात् जिन्होंने आत्मस्वरूप जाना हो, उनसे वह आत्मस्वरूप पूछना; तथा उस आत्मस्वरूप की इच्छा करना, अर्थात् उसको परमार्थस्वरूप मानना; उसमें तत्पर रहना, अर्थात् आत्मस्वरूप की भावना का आदर करना; जिससे, अर्थात् इस प्रकार आत्मस्वरूप की भावना करने से, अविद्यामय स्वरूप का, अर्थात् बहिरात्मस्वरूप का त्याग करके, विद्यामयरूप, अर्थात् परमात्मस्वरूप प्राप्त किया जा सके ॥५३॥ वाणी-शरीर से भिन्न, आत्मा का असम्भव होने से उसके विषय में बोलना (पूछताछ करना) इत्यादि योग्य नहीं है -- ऐसा कहनेवाले के प्रति कहते हैं : - |