+ अन्तरात्मा वैज्ञानिक की भांति -
तद् ब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत्
येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥53॥
कथन पृच्छना कामना, तत्परता बढ़ जाय ।
ज्ञानमय हो परिणमन, मिथ्याबुद्धि नशाय ॥५३॥
अन्वयार्थ : [तत् ब्रूयात्] उस आत्म-स्वरूप का कथन करे; उसे दूसरों को बतलावे; [तत् पराम् पृच्छेत्] उस आत्म-स्वरूप को दूसरे आत्मानुभवी पुरुषों से-विशेष ज्ञानियों से पूछे, [तत् इच्छेत्] उस आत्म-स्वरूप की इच्छा करे, उसकी प्राप्ति को अपना इष्ट बनाये, और [तत्पर: भवेत्] उस आत्म-स्वरूप की भावना में सावधान हुआ आदर बढ़ावे, [येन] जिससे [अविद्यामय रूपं] यह अज्ञानमय बहिरात्मरूप [त्यक्त्वा] छूटकर, [विद्यामयं व्रजेत्] ज्ञानमय परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति होवे ।
Meaning : He who desires spiritual perfection (liberation) ought to discuss, seek information on, desire and immerse himself in that which shall remove his nescience and bring him true wisdom.

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

उस आत्मस्वरूप का कथन करना, अर्थात् अन्य को समझाना; दूसरों ने, अर्थात् जिन्होंने आत्मस्वरूप जाना हो, उनसे वह आत्मस्वरूप पूछना; तथा उस आत्मस्वरूप की इच्छा करना, अर्थात् उसको परमार्थस्वरूप मानना; उसमें तत्पर रहना, अर्थात् आत्मस्वरूप की भावना का आदर करना; जिससे, अर्थात् इस प्रकार आत्मस्वरूप की भावना करने से, अविद्यामय स्वरूप का, अर्थात् बहिरात्मस्वरूप का त्याग करके, विद्यामयरूप, अर्थात् परमात्मस्वरूप प्राप्त किया जा सके ॥५३॥

वाणी-शरीर से भिन्न, आत्मा का असम्भव होने से उसके विषय में बोलना (पूछताछ करना) इत्यादि योग्य नहीं है -- ऐसा कहनेवाले के प्रति कहते हैं : -