
प्रभाचन्द्र :
चिर-काल से- अनादि काल से मूढात्मा, अर्थात् बहिरात्मा सो रहे हैं, अर्थात् अति जड़ता को प्राप्त हुए हैं । कहाँ (सो रहे हैं)? कुयोनियों में, अर्थात् नित्य निगोदादि चौरासी लाख योनियों में । क्या होने से वे उनमें सो रहे हैं? अन्धकार, अर्थात् अनादि मिथ्यात्व के संस्कार (के वश) होकर (सो रहे हैं) - ऐसे होते हुए (सोये हुए) वे (बहिरात्मा) यदि संज्ञी (जीवों में) उत्पन्न होकर कदाचित् अर्थात् दैववशात् जागृत हों, तो वे 'मेरा-मैं ' ऐसा अध्यवसाय करते हैं । किसमें? अनात्मीयभूत में और अनात्मभूत में - अनात्मीय में, अर्थात् वास्तव में अनात्मीयभूत / अपने नहीं - ऐसे पुत्र-स्त्री आदि में 'ये मेरे हैं' - ऐसा मानते हैं, अर्थात् ऐसा अध्यवसाय करते हैं; और अनात्मभूत जो शरीरादि उनमें 'यह मैं ही हूँ' - ऐसा अध्यवसाय करते हैं - ऐसी विपरीत मान्यता करते हैं ॥५६॥ इसलिए बहिरात्मस्वरूप का त्याग करके, स्व-पर के शरीर को इस प्रकार देखना, वह कहते हैं : - |