
प्रभाचन्द्र :
स्वबुद्धि से, अर्थात् आत्मबुद्धि से जहाँ तक ग्रहण करता है । क्या ग्रहण करता है? त्रय को (तीन को); किसके (त्रय को)? काय, वाणी और मन के त्रय को, अर्थात् जहाँ तक आत्मा में काय-वाणी-मन का सम्बन्ध ग्रहण करता है - स्वीकार करता है, ऐसा अर्थ है । वहाँ तक संसार है परन्तु इन काया-वाणी-मन के भेद का अभ्यास होने पर, अर्थात् आत्मा से काय-वाणी-मन भिन्न है - ऐसे भेद का अभ्यास होने पर- भेदभावना होने पर, निवृत्ति, अर्थात् मुक्ति होती है । शरीरादि में आत्मा का भेदाभ्यास होने पर, वह (अन्तरात्मा) शरीर की दृढतादि होने पर, आत्मा की दृढतादिक नहीं मानता - ऐसा बतलाकर 'घने' इत्यादि चार श्लोक कहते है : - |