+ अन्तरात्मा लौकिक संसर्ग से परे -
जनेभ्यो वाक् तत: स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमा:
भवन्ति तस्मात्संसर्गं जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥72॥
लोक-संग से वच-प्रवृति, वच से चञ्चल चित्त ।
फिर विकल्प, फिर क्षुब्ध मन, मुनिजन होय निवृत्त ॥७२॥
अन्वयार्थ : [जनेभ्यो] लोगों के संसर्ग से [वाक्] वचन की प्रवृत्ति होती है; [ततः] उससे [मनस:स्पन्द] मन की व्यग्रता होती है -उससे चित्त चलायमान होता है [तस्मात्] चित्त की चंचलता से [चित्तविभ्रमा: भवन्ति] चित्त में नाना प्रकार के विकल्प उठने लगते हैं-मन क्षुभित हो जाता है [ततः] इसलिए [योगी] योग में संलग्न होनेवाले अन्तरात्मा को [जनै: संसर्ग त्यजेत्] लौकिकजनों के संसर्ग का परित्याग करना चाहिए ।
Meaning : When you meet people, you talk. When you talk, your mind is distracted. Therefore, the yogI should stay away from people (In order to focus on his inner self).

  प्रभाचन्द्र    वर्णी 

प्रभाचन्द्र :

लोगों के साथ बोलने से वचन की प्रवृत्ति होती है; प्रवृत्ति से मन का स्पंदन - मन में व्यग्रता होती है; उस आत्मा के (भावमन के) स्पन्दन से चित्त विभ्रम, अर्थात् विविध प्रकार के विकल्पों की प्रवृत्ति होती है; इसलिए योगियों की तजना । क्या (तजना)? संसर्ग - सम्बन्ध । किसके साथ का? लोगों के साथ का ॥७२॥

तो क्या उनका (लोगों का) संसर्ग छोड्कर जंगल में निवास करना? - ऐसी आशङ्का का निराकरण करते हुए कहते हैं --